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________________ 108 अनेकान्त [ वर्ष 3, किरण 1 हुए हैं, उनकी मूर्ति उनकी 66 हज़ार रानियों सहित तालाबमें नहाती हुई नंगी स्त्रियोंके चीरहरणके महाबनाई जाय और जब वे फौज पलटन लेकर छह खंड निंदनीय किलोलको कृष्ण के साथ राधाके प्रेमको, या फ़तह करनेको निकले थे, तबकी उनकी मूर्ति फ़ौज शेषनागके पकड़ने और कंसको मार डालनेकी कृष्णकी पलटन और लड़ाई के सब हथियारोंसहित बनाई जाय बहादुरीको पूजने बँदनेयोग्य समझ, इस ही रूपमें तो क्या हमारे दिगम्बर भाई उसको अपने जैन मन्दिरों में उसकी भक्ति स्तुति करते हैं; उसके इन ही सब कृत्योंकी रखना मंजूर कर लेंगे ? क्या उनकोभी इसी तरह मानेंगे लीला करके अपनेको धन्य समझते हैं / यह ही उनका जिस तरह इन वीतरागी प्रतिमाओंको मानते हैं और कीर्तन,भक्ति-स्तुति और पूजन है / ऐसी ही अवस्थाओंक्या ऐसा करना जैनधर्म, जैनशास्त्रों और जैनसिद्धान्तोंके की वे मूर्तियाँ अपने मन्दिरोंमें बनाते हैं और प्रतिमायें विरुद्ध न होगा। स्थापन करते हैं / इन ही सब लीलाअोंके करनेसे वे यदि गृहस्थावस्था और राजपाटके समयकी तीर्थ- कृष्ण भगवान्की प्रतिमाको प्रतिष्ठित और मन्दिरमें कर भगवान्की मूर्तियाँ मन्दिर में रखने और दर्शन और स्थापने पूजने और बंदने योग्य बनाते हैं। ऐसी ही मनन करने के योग्य नहीं हैं तब इन परम वीतरागी प्रतिमा वे श्रीरामचन्द्रकी बनाते हैं, जिनको बगल में प्रतिमाअोंको मन्दिर में रखने और दर्शन मनन करने सीता बैठी हो, हनुमान गदा लिये पास खड़ा हो / इस योग्य बनाने के वास्ते इनके ऊपर गर्भ, जन्म और राज प्रतिमाकी प्रतिष्ठा यदि वे सीताके हरण हो जाने. पर भोगकी लीलाओंका हो जाना क्यों जरूरी समझा जाने रोते फिरने, फिर हनुमानकी सहायतासे लंका पर चढ़ाई लगा है / यह तो बिल्कुल ही उलटी बात हुई / जब करने, महाघमासान युद्ध कर लाखों करोड़ों पुरुषोंका हम भगवान्के बालपन या गृहस्थ-जीवनकी मूर्तियां बध होने के बाद रावणको मार सीताको घर ले आनेकी अपने लिये कार्यकारी नहीं समझते हैं, किन्तु उनकी लीला करने के द्वारा करें तो ठीक ही है। उनके मतके परमवीतराग अवस्थाकी मूर्ति ही अपने लिये कार्यकारी अनुसार उनके परमपज्य विष्णुभगवान्ने रावणको समझते हैं, जिसके दर्शनसे हमको भी वीतरागताकी मारनेके वास्ते ही तो रामचन्द्ररूपमें जन्म लिया था, शाहो हम भी इस पापी गहस्थके जंजालके महा- और फिर इस ही प्रकार कंसको मारने और गोपियोंका मोहको तोड़ अपने आत्म कल्याण में लगें और महादुख- उद्धार करने के वास्ते ही कृष्णके रूपमें जन्म लिया था। दाई संसारसागरसे निकल अविनाशी सच्चे सुखका इस ही प्रकार के रूपोंमें वे अपने विष्णु भगवान्को अनभव करें, तब इन परमवीतराग रूप मूर्तियोंके ऊपर पूजते हैं / इस कारण उनका राम और कृष्णकी यह गर्भ-जन्म और गृहस्थभोग आदिका संस्कार करनेसे तो सब लीलायें करना, इन ही सब लीलाओंकी भक्ति इनको साफ़ तौर पर बिगाड़ना और अपने कामके योग्य स्तुति करना, इन सब लीलाओंके करने से ही इनकी नहीं रहने देना ही है / प्रतिमाओं को पूज्य और प्रतिष्ठित बनाना तो बेशक ठीक वैष्णव हिन्दू श्रीकृष्णकी बाल्यावस्थाको “ठुमक बैठता है, लेकिन इन अपने पड़ौमियोंकी रीसकर, हमारा ठमक चलत बाल बाजत पैंजनियां' ग्रामकी गोपियोंके भी अपनी परमवीतरागरूप प्रतिमाओं पर अपने साथ उसकी नाना प्रकारकी क्रीड़ाओं और किलोलोंको, तीर्थंकर भगवान्के बालपन, गृहस्थजीवन और राजभोग
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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