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________________ 66 अनेकान्त [वर्ष 3 किरण 1 अरे मूढ ! पुत्र-कलत्र, गृह-वाटिका, धन-दौलत. कठिन है। जिन्हें तू अपने समझना है, वे तेरे कहाँ हैं ? ममत्व- तुझे पता नहीं,जीवको अपनी क्षण क्षण मरने जीने भावसे हो त उनके साथ बँधा है / ममस्व तोड़ और वाली निगोद दशासे ऊपर उठ, मनुष्यभव तक पहुँचनेदेख, वे स्वभाव, क्षेत्र, काल आदि सब ही अपेक्षाओंसे में कितनी कितनी बाधाओं और आपदाओंसे लड़ना तुझसे भिन्न हैं। वे न तेरे साथ पाये हैं, न तेरे साथ पड़ा है। कितनी असफलताओं और निराशाओंका जायेंगे / न वे तेरे रोग, शोक, जरा मृत्युको हरण करने मुँह देखना पड़ा है कितनी भूलों और सुधारों में से वाले हैं / वे सब नाशवान हैं। इनके मोहमें पड़कर निकलना पड़ा है / जीवनका उत्कर्षमार्ग अगणित मौत. सु क्यों व्यर्थ ही अपनेको खोता है ? के दरोंमेंसे होकर गुजरता है और शोक-संतापकी वे तो क्या, यह शरीर भी, जिसपरतू इतना छायासे सदा ढका है / मनुष्यभव इसी उस्कर्षमार्ग मोहित है, जिसकी तू अहर्निश सेवा करता है, तु नहीं की अंतिम मंजिल है। है। यह तेरो एक कृत्ति है, जो कि प्रकृतिका सहारा यहां ही जीवको पहली बार उस वेदनाका अनुभव ले जीवन उत्थानके लिये रची गई है। इसका पोषण होता है जो उसे दुःखसे सुखकी ओर, मृत्युसे अमृतजीवन उत्कर्षके लिये है,जीवन इसके पोषणके लिये नहीं की ओर, नीचे से ऊपरकी अोर, विकल्पोंसे एकताकी है / ज़रा स्वचारहित इसके स्वरूपको तो विचार / यह पोर, बाहिरसे अन्दरकी अोर लखानेको मजबूर कतना घिनावना और दुर्गन्धमय है / यह अस्थिपंजर- करती है। से बना हुआ है, माँससे विलेपित है, मलमूत्र और यहाँ ही पहली बार उस सुबुद्धिका विकास होता कृमिकुल से भरा है। इसके द्वारोंसे निरन्तर मल झर है जो इसे हेय उपादेय हित अहित, निज परमें विवेक रहा है। कौन बुद्धिवर इसे अपनाएगा? करना सिखाती है। तेरा शरीर पानीके बुलबुले के समान क्षणिक है। यहाँ ही पहली बार उस अलौकिक दृष्टिका उदय तेरा अायु कालगतिके साथ क्षण क्षण क्षीण हो रही होता है जो इसे लौकिक क्षेत्रोंसे ऊपर अलौकिक क्षेत्रोंहै और तेरा यौवन स्वप्नलीलाके समान नितान्त का भान कराती है / जो इसे शिल्पिक, नैतिक, वैज्ञा जरामें बदल रहा है। तुझे अपने भविष्यका तनिक निक और पारमार्थिक क्षेत्रोंका दर्शन कराती है / भी ध्यान नहीं / परन्तु मृत्यु निरन्तर तेरी ओर ताक यहाँ ही पहली बार अर्थशक्ति की वह प्रेरणा अनुलगाये बैठी है। भव होती है जो इसके पुरुषार्थको भौतिक उद्योगोंसे __ हे मानव ! तू व्यर्थही इस मनुष्य भवको व्यसनोंमें उठा अलौकिक उद्योगोंकी अोर लगाती है। सना हुआ, श्राहार, निद्रा, मैथुन, परिग्रहमें लगा हुआ यहाँ ही पहली बार उस अवस्थाकी आवश्यकता बरबाद न कर यह मनुष्यभव चिंतामणि रत्नके समान मालूम होती है जो इसे स्वच्छन्दता, सुखशीलताको महामूल्यवान, महादुर्लभ और महाकष्टसाध्य पदार्थ छोड़ यम नियम. व्यवहार रोति, संस्था. प्रथा धारण है / जीवनमें रूप-श्राकार, भोग विलास, कंचन-कामिनी करनेकी प्रेरणा करती है। सब ही मिल सकते हैं; परंतु मनुष्यभव मिलना बहुत यहाँ ही पहली बार वह धर्मवृक्ष अंकुरित होता है
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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