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________________ कातिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] वीरके दिव्य उपदेशकी एक झलक भारमश्रद्धा जिसका मूल है,, साम्यता जिसकी स्निग्ध दिये हैं। काया है। दया जिसका मद है। आत्मज्ञान जिसका ऐ भव्यात्मा ! यदि तू वास्तवमें बुद्धिमान है। प्रफुल्ल पुष्प है / त्याग जिसका सौरभ है और अमर स्वहितेषी है और उद्यमी है तो अब ऐसी योजन कर जिसका फल है। कि तुझे फिर अधोगति जाना न पड़े। बारबार मृत्युके इन्हीं अलौकिक शक्तियों के कारण मनुष्यभव सबसे चक्करमें गिरना न पड़े। बहुत काल बीत चुका है / महान् है, प्रधान है और अमूल्य है। उसका एक समय भी अब किसी प्रकार वापिस नहीं परन्तु हा ! जीवन मानवी शरीरसे उभर भौतिक हो सकता है / जो काल बाकी है बड़ी तेजीके साथ क्षेत्रसे जितना ऊँचा उठा, जितना इसकी बुद्धि, पाच- गुजर रहा है / देरका अवसर नहीं ! प्रमाद छोड़, जाग रण और पुरुषार्थका विकास बढ़ा, जितना इसकी दुःख और खड़ा हो / जो कल करना है वह श्राज कर, जो अनुभूति और दुःख निवृतिकी कामनाने ज़ोर पकड़ा, आज करना है वह अब कर / जितना दुःखसमस्याको हल करनेके लिये इसने जीवन इससे पहिले कि मृत्यु अपनी टंकारसे तेरे प्राणोंको नगतको देखने, जानने और सुखमार्ग खोजनेका परिश्रम घायल करे, और तेरा शरीर पके हुए पातके समान किरा / उतना ही उतना इसकी भूल भ्रान्तियोंने, आयुडालसे टूटकर धराशायी हो, तू इसे आत्मसाधनाइसकी मिथ्या कल्पनाओं और मान्यताओंने भी जोर में लगादे। पकड़ा / इसकी आशायें और लालसायें भी विचित्र दिलकी ग्रन्थियोंको तोड़, संशय छोड़, निशंक हुई / इसका विकल्पप्रपञ्च और विमोह भी विस्तीर्ण बन, अपनेमें विश्वास धर कि तू तू ही है। तू सबमें है, सब तुझमें हैं पर तुझ सिवा तुझमें नहीं। ___ इन ही नवीन भ्रान्तियों, मान्यताओं और श्रा- मोहजालके तार तार कर, अन्दर बैठ, निर्वात हो शाओंके कारण इसकी बाधायें और विपदायें भी सबसे दीपक जगा और देख, तू कितना ऊँचा और महान है। गहन हैं। इसकी समस्यायें और जिम्मेवारियाँ भी इसमें ईर्षा और द्वेष कहाँ है / तू कितना सोहना सु. सबसे जटिल हैं। ___न्दर है, इसमें प्रारमअरुचि और परासक्ति कहाँ है। . पाशाके इन पाशोंमें फँसकर तनिक गिरना शुरू मेरा तेरा छोड़, जगसे मुँह मोड़, निर्भय बन, हुआ कि पतनका ठिकाना नहीं। फिर वह रोके नहीं अपने ही में लीन हो, और अनुभव कर, तू कितना रुकता / सीधा रसातलकी ही राह लेता है। मधुर और प्रानन्दमय है / इसमें दुःख कहाँ और शोक ओह ! मोहजालके इन मृदु तारोंने, झूठी प्रा- कहाँ है / तू कितना परिपूर्ण है इसमें राग और इच्छा शाओंकी मधुर मुस्कानने तुझ समान समुन्नत, समु. की गुब्जाइश कहाँ है। तू तो निरा अमृत सरोवर है ज्ज्वल अनेक जीवन बान्ध बान्धकर रसातलको पहुँचा इसमें जरा और मृत्यु कहाँ है। हुआ।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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