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________________ अनेकान्त वर्ष 3, किरण 1 - सूत्र, नियुक्ति प्रादिके उदाहरण देखकर शाकटायनको आचेलक्कुद्दे सियसेज्जाहररायपिंडकरियम्मे / श्वेताम्बर मान लेना पड़ा था, जो कि निश्चित रूपसे वद जट्ठ पडिवक्कमणे मासं पज्जो सवणकप्पो॥ यापनीय थे। ____ इस गाथामें दश प्रकारके श्रमणकल्प अर्थात् .. अपराजितसरिके यापनीय होनेका सबसे स्पष्ट श्रमणों या जैन साधुअोंके प्राचार गिनाये हैं। उनमें प्रमाण यह है कि उन्होंने दशवैकालिक सूत्रपर एक सबसे पहला श्रमणकल्प आचेलक्य या अचेलकता या टीका लिखी थी और उसका भी नाम इस टीकाके निर्वस्त्रता है / साधुओंको क्यों नग्न रहना चाहिए, समान 'श्रीविजयोदया' रखा था। इसका जिक्र उन्होंने और निर्वस्त्रतामें क्या क्या गुण हैं, वह कितनी अावस्वयं 1167 नम्बरकी गाथाकी टीकामें किया है- श्यक है, इस बातको टीकाकारने खूब विस्तारके साथ "दशवकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपं- लगभग दो पेजमें स्पष्ट किया है और इसका बड़े जोरोंसे चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते / " अर्थात् समर्थन किया है। उसके बाद शंका की है कि यदि मैंने उद्गमादि दोषोंका वर्णनदशवैकालिक टीका में किया ऐसा मानते हो, अचेलकताको ही ठीक समझते हो, तो है, इसलिये अब उसे यहाँ नहीं करता / दिगम्बर फिर पूर्वागमोंमें जो वस्त्र-पात्रादिका ग्रहण उपदिष्ट है, सम्प्रदायका कोई प्राचार्य किसी अन्य सम्प्रदायके श्रा. सो कैसे ?* चार-ग्रन्थकी टीका लिखेगा, यह एक तरहसे अद्भुत-सी पूर्वागमोंमें वस्त्रपात्रादि कहाँ उपदिष्ट हैं, इसके बात है जब कि दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टिमें दशवैका- उत्तरमें आगे उन पूर्वागमोंसे नाम और स्थानसहित लिकादि सूत्र नष्ट हो चुके हैं / वे इस नामके किसी उद्धरण दिये हैं। जिन आगमोंके वे उद्धरण हैं, ग्रन्थके अस्तित्व में मानते ही नहीं हैं। उनके नामोंसे और उन उद्धरणोंका जो अभिप्राय यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि श्वेतांबर है, उससे साफ समझमें आ जाता है कि वे कोई दिग- . संप्रदाय-मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं यापनीयसंघ शायद म्बर सम्प्रदायके आगम या शास्त्र नहीं हैं बल्कि वही उन सभीको मानता था; परन्तु ऐसा जान पड़ता है हैं जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उपलब्ध हैं और कुछ पाठकि दोनोंके आगमोंमें कुछ पाठ-भेद था और इसका भेदके साथ यापनीय संघमें माने जाते थे। कारण शायद यह हो कि वर्तमान वल्लभीवाचना अक्सर ग्रन्थकार किसी मतका खंडन करने के लिए से पहलेकी कोई वाचना ( संभवतः माथुरी वाचना) उमी मतके ग्रन्थोंका भी हवाला दिया करते हैं और यापनीय संघके पास रही हो। क्योंकि विजयोदया अपने सिद्धांतको पुष्ट करते हैं / परन्तु इस टीका में टीकामें आगमोंके जो उद्धरण दिये गये हैं वे श्वेतांबर ऐसा नहीं है। यहाँ तो अपने ही आगामोंका हवाला श्रागमोंमें विल्कुल ज्योंके त्यों नहीं मिलते है। देकर अचेलकता सिद्ध की गई है और बतलाया है कि अपवादरूपसे अवस्था-विशेषमें ही वस्त्रका उपयोग जिस 427 नं० की गाथाकी टीकापरसे पं० सदा. किया जा सकता है। सखजीने टीकाकारको श्वेतांबरी करार दिया है, वह अथवमन्यसे पर्वागमेष वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टं तथा ( तत्कथं ?)
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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