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________________ वीर-शासन-दिवस और हमारा उत्तरदायित्व [लेखक-श्री दशरथलाल जैन ] "अपने बड़ोंकी तुममें कुछ हो तो हम भी जानें। उनकी इस अनभिज्ञता-उदासीनतासे लाभ उठाकर गर वो नहीं तो बाबा फिर सब कहानियाँ हैं // " दूसरे धर्मवाले उनपर अपना प्रभाव जमानेमें इस संसारमें अनेक जैन तीर्थंकर धर्मतीर्थके समर्थ हो जाते हैं / उनका कुछ आकर्षण बढ़ने पर प्रवर्तन करनेवाले हुए हैं / उनकी धर्म-आज्ञाओं जब वे लोग उनके ग्रन्थोंको पढ़ने, उनकी सभा और व्यवस्थाओंका प्रसार भी परिमित काल तक सोसाइटियोंमें भाग लेने और उनकी किसी किसी ही रहा है / उसके बाद उसमें बराबर शिथिलता प्रवृत्तिको अपनाने या उसका अनुमोदन-मात्र आती रही है—यहाँ तक कि कभी कभी तो धर्मका करने लगते हैं, तो इधर अपने ही लोगोंकी ओरसे मार्ग ही अर्से के लिये लुप्तप्राय होगया है। कारण, उन्हें अनेक प्रकारको हृदयबेधक कटूक्तियाँ तथा यह संसार आत्मवाद और अनात्मवादकी सदैवसे फब्तियाँ सुननेको मिलती हैं, जिनसे उनका हृदय समरभूमि रहा है। जब कभी किसी अलौकिक विकल हो जाता है, उसमें कषाय जाग उठती है पुण्यशाली अध्यात्मवादकी प्रचण्ड तेजोमय मूर्ति- और वे अपने उस नये मार्गको ही हर तरहसे का प्रादुर्भाव होता है तब अज्ञानान्धकारमें चिर- पुष्ट करनेमें लग जाते हैं / उनका तमाम बुद्धि-बल कालसे भटकते हुए अज्ञानी और मिथ्यामार्गी तथा धन-बल उस ओर काम करने लगता है जीवोंको अपनी आत्माको पहचान सकनेका प्रकाश जिसके फलस्वरूप विपुलमाहित्यकी रचना तथा मिलता है। जिनका भविष्य उज्ज्वल होता है वे उसका प्रचार होकर प्रवाह बह जाता है और आत्मकल्याणकी ओर लग जाते हैं और शेष भद्र जन-बल भी बढ़ जाता है। आत्मानों में अपनी आत्माको पहचानने के लिये मनुष्योंमें विचारवान सन्मार्गी आत्माओंकी एक प्रकारका आन्दोलनसा मच जाता है। इस संख्या हमेशा कम रहा करती है, जन-साधारणका तरह कुछ काल तक संसारमें धर्ममार्गका प्रवर्तन बहुभाग तो सिर्फ गतानुगतिक ही होता है और रहता है, बादको फिर अज्ञानान्धकार छाजाता है। वे प्रायः “महाजनो येन गतः स पन्थाः" के ही पलोगोंमें बहुत कालातक एक ही धर्मका सेवन-वह थिक बन जाते हैं / यह ठीक है कि आत्माको पहभी अव्यवस्थित रूपसे-करते करते कुछ तो पूर्व चाननेवाले अलौकिक महान आत्माओंकी कृपासे पापके उदयसे स्वयं ही धर्ममें अरुचि हो जाती है जीवोंका झुकाव स्वात्माकी ओर होता है, लेकिन तथा प्रमाद बढ़ जाता है-वे अपने धर्मसे अन- इसके लिये उन्हें जड़वाद-अर्थात् प्रकृति और भिज्ञ तथा विमुखसे रहने लगते हैं, और कुछ उसकी साधक परिस्थितियोंसे सदैव यद्ध करना
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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