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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० 2466] विनयसे तत्त्वकी सिद्धि है 116 हूँ कि मेरे पास एक विद्या है / उसके प्रभावसे होगई है। मैं इन आमोंको तोड़ सका हूँ। अभयकुमारने कहा यह बात केवल शिक्षा ग्रहण करनेके वास्ते मैं स्वयं तो क्षमा नहीं कर सकता, परन्तु महाराज है। एक चांडालकी भी विनय किये बिना श्रेणिकश्रेणिकको यदि तू इस विद्याको देना स्वीकार करे, जैसे राजाको विद्या सिद्ध नहीं हुई, इसमेंसे यही तो उन्हें इस विद्याके लेनेकी अभिलाषा होनेके सार ग्रहण करना चाहिये कि सद्विद्याको सिद्ध कारण तेरे उपकारके बदले मैं तेरा अपराध क्षमा करने के लिये विनय करना आवश्यक है। आत्मकरा सकता हूँ / चांडालने इस बातको स्वीकार कर विद्या पानेके लिये यदि हम निग्रंथ गुरुका विनय लिया। तत्पश्चात् अभयकुमारने चांडालको जहाँ करें, तो कितना मंगलदायक हो। श्रेणिक राजा सिंहामन पर बैठे थे वहाँ लाकर विनय, यह उत्तम वशीकरण है। उत्तराध्ययनश्रेणिकके सामने खड़ा किया और राजाको सब में भगवान्ने विनयको धर्मका मूल कहकर वर्णन बात कह सुनाई / इस बातको राजाने स्वीकार किया है / गुरुका, मुनिका, विद्वान्का, माता-पिताकिया / बादमें चांडाल सामने खड़ा रहकर थरथराते का और अपनेसे बड़ोंका विनय करना, ये अपनी पगमे श्रेणिकको उस विद्याका बोध देने लगा, परन्तु उत्तमताके कारण हैं। वह बोध नहीं लगा / झटसे खड़े होकर अभय -श्रीमद् राजचन्द्र कुमार बोले, महाराज ! आपको यदि यह विद्या अवश्य सीखनी है, तो आप सामने आकर खड़े * किसी कविने क्या खूब कहा हैरहें और इसे सिंहासन दें। राजाने विद्या लेनेके उत्तम गुणको लीजिए यदपि नीच पै होय / / वाम ऐसा ही किया, तो तत्काल ही विद्या सिद्ध परौ अपावन ठौर में कंचन तजे न कोय / आलोचन जैनधर्ममें आलोचन अथवा आलोचनाको बड़ा महत्व प्राप्त है, उसकी गणना अंतरंग तपमें है और वह प्रायश्चित्त नामके अंतरंग तपका पहला भेद है, जिसके द्वारा आत्मशुद्धिका उपक्रम किया जाता है / अपने किये हुए दोषों, अपराधों तथा प्रमादोंको खुले दिलसे गुरुसे निवेदन करना अथवा अन्यप्रकारसे उन्हें प्रकट कर देना आलोचना कहलाता है और वह आत्मविकास के लिये बहुत ही आवश्यक वस्तु है। जब तक मनुष्य अपने दोषोंको दोष, अपराधोंको अपराध और प्रमादोंको प्रमाद नहीं समझता अथवा समझता हुआ भी अहंकारवश उन्हें छिपानेकी और उनका संशोधन न होने देनेकी कोशिम करता है तबतक उसका उत्थान नहीं हो मकता--नसे पतनोन्मुख समझना चाहिये--वह आत्मशुद्धि एवं विकासके मार्गपर अग्रसर नहीं हो सकता। अतः आत्मशुद्धिके अभिलाषियोंका ग्रह पहला कर्तव्य है कि वे आलोचनाको अपनाएँ, अपने दोषों अपनी त्रुटियोंको समझे और उन्हें सद्गुरु आदिसे निवेदनकर अपनेको शुद्ध एवं हलका बनाएँ / मात्र आलोचना-पाठ के पढ़लेनेसे आलोचना नहीं बनती। उससे तो यांत्रिक चारित्रकी-जड़मशीनों-जैसे आचरणकी वृद्धि होती है। -युगवीर
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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