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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीर-शासन दिवस और हमारा उत्तरदायित्व 63 विद्यमान हैं बल्कि देशके बड़े बड़े नेताओं-लाला- संगमरमरके फर्श और टाइल्स जड़वानेमें खर्च लाजपतराय सरीखे राजनीतिज्ञों-और कई इति- करनेसे नहीं रुकते / परन्तु हम देव-शास्त्र गुरुका हासिज्ञोंके मनमें भी बैठी हुई पाई गयी हैं / कई एक ही दर्जा मानते हुए भी शास्त्रोंके पुनरुद्धारार्थ रियासतोंमें जैनियोंके विमान निकालने पर लोग विद्वानोंकी कोई भी समिति कायम नहीं कर पाये। नग्न मूर्तियों पर ऐतराज करते हैं और इतना हमारी पाठशालाएँ और विद्यालय अपने अपने जोर बाँधते हैं कि दंगातक करने लगते हैं-कोला- ढर्रे पर चल रहे हैं, वे प्रायः अध्यापकोंकी पुश्तैनी रम, कुडची, महगांव, बयाना आदि पचासों जायदाद बनादिये गये हैं; ऊँचे विद्यार्थी कितने स्थानोंपर धर्मपालनमें बाधाएँ पड़ीं। यह सब उस हैं, खर्च कितना है, इसका कोई ठीक ठिकाना नहीं; जमानेमें हो रहा है जब कि धर्मपालनमें राज्योंकी समाजका पैसा कितनी बेदर्दीसे धर्मके नामपर तरफसे पूर्ण स्वतंत्रताकी आम घोषणा है। पता है प्रचारक रखकर फूका जाता है, उसका भी कोई इन सब अन्यायोंके मूलमें कारण कौन है ? हम ठिकाना नहीं; माणिकचन्द्र परीक्षालय, महासभा भगवान महावीरकी नालायक सन्तान / परीक्षालय, परिषदपरीक्षालय, मालवा-परीक्षालय __ हम गाली देते हैं उन हिन्दुओंको जो हमपर सबके छकड़े दौड़ लगा रहे हैं, और अब तो विद्याअपनी अज्ञानताके कारण धार्मिक, सामाजिक र्थियोंसे फीस भी लेने लगे / गरज यह कि, अव्य और राजनैतिक हमले करते हैं, हम गाली देते हैं वस्थाका खासा साम्राज्य कायम है, धर्मके नामपर उन्हें जो हमारी उच्चताका मजाक उड़ाते हैं, हम चाहे जैसी अवांछित पुस्तकोंका प्रचार है। जहाँ बुरा कहते हैं उन्हें जो हमारे अलग राजनैतिक ज्ञान प्रसारके क्षेत्रमें जैन समाजमें यह अंधेरे हो हक़ोंको देनेसे इनकार करते हैं; इसी तरह कलि- वहां जैनेतर समाजमें धर्मप्रचारकी बात दिमाग़में युगको भी गाली देकर हम अपनी कायरताका आना ही मुश्किल है। यूनिवर्सिटियों,कालेजों और प्रमाण देते हैं / आखिर इस आत्मवञ्चनासे लाभ हाईस्कूलों तथा सार्वजनिक लाइब्रेरियोंमें तो हमारी क्या ? हम देखते हैं आये दिन हम अपनी एक पुस्तकोंका प्रायः पता भी नहीं मिलता-हमारे नहीं अनेक होनेवाली घरू और बाहरी आपत्तियों सार्वजनिक क्षेत्र हमारे प्रभावसे शून्य रहते हैं। के लिये रोते रहते हैं, लेकिन हम उसके कारण- ऐसी हालत है हमारी, जिसे आँख खोलकर देखते कलापोंको देखते हुए भी उसके वास्त्व क कारण हुए भी हम देख नहीं रहे हैं। भला सोचो तो, तक नहीं पहुँच पाये हैं। सच पूछिये तो हमें दूसरों इसमें किसका कसूर है। जो आँख देखनेके लिये का ऐबजोई करना जितना आसान रहा है, अपनी हो उससे हम विवेक पूर्वक देखें नहीं और आपत्ति अदूरदर्शिता पूर्ण कृतियों और उनके नतीजोंपर होनेपर रोवें तो हमें उस शायरके शब्दोंमें यही नज़र पहुँचाना उतनी ही टेढ़ी खीर रहा है। कहना पड़ेगा कि आज भी हम धर्मके नामपर लाखों रुपया “रोना हमारी चश्मका दस्तर होगया / , मन्दिर बनाने, रथ चलाने, सोना और रंग कराने, . दी थी खुदाने आँख सो नासूर होगया /
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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