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________________ धवलादि-श्रुत-परिचय -- -:: [सम्पादकीयः] धवल' और 'जयधवल' 'नामसे जो सिद्धान्तग्रन्थ इस तरह ये नाम बहुत कुछ पुराने तथा रूढ. हैं प्रसिद्धिको प्राप्त हैं वे वास्तवमें कोई मूल-ग्रन्थ और इनकी सृष्टि टीकाको भाष्यरूपमें प्रदर्शित करनेकी नहीं हैं, बल्कि टीका-ग्रन्थ हैं। खुद उनके रचयिता दृष्टि से हुई जान पड़ती है। परन्तु श्राम जैन-जनंता वीरसेनाचार्यने तथा जिनसेनाचार्यने उन्हें टीका-ग्रन्थ सुने-सुनाये अाधारपर इन्हें मूल एवं स्वतंत्र ग्रंथोंके रूप में लिखा है और इन टीकात्रोंके नाम 'धवला', 'जय- ही मानती आ रही है। अपने स्वरूपसे मूल-ग्रंथ धवला' बतलाए हैं, जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे न होकर टीका-ग्रंथ होते हुए भी, ये अपने साथमें उन प्रकट है मूल सूत्रग्रन्थोंको लिये हुए हैं जिनके आधार पर "भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण" ॥५॥ इनकी यह इतनी बड़ी तथा भव्य इमारत खड़ी हुई है। "कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिश्रा धवला"|| सिद्धिविनिश्चय-टीका तथा कुछ चूर्णियों श्रादिकी तरह .... -धवल-प्रशस्ति ये प्रायः सूत्रोंके संकेत-मात्रको लिये हुए नहीं हैं, बल्कि "इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी ।" मूल सूत्रोंको पूर्ण रूपसे अपनेमें समाविष्ट तथा उद्धृत "एकान्नषष्ठिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य । : किये हुए हैं, और इसलिये इनकी प्रतिष्ठा मूलं समतीतेष समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥” सिद्धान्तग्रन्थों-जैसी ही है और ये प्रायः स्वतन्त्ररूपमें ---जयधवल-प्रशस्ति सिद्धान्तग्रन्थ' समझे तथा उल्लेखित किये जाते हैं । धवल और जयधवल नामोंकी यह प्रसिद्धि श्राजकी धवल-जयधवलकी आधारशिलाएँ अथवा बहुत ही आधुनिक नहीं हैं । ब्रह्म हेमचन्द्र अपने प्राकृत श्रुतस्कन्धमें और विक्रमकी १०वीं-११वीं शता- जयधवलकी ६० हज़ार श्लोकपरिमाण निर्माणको ब्दीके विद्वान् महाकवि पुष्पदन्त अपने महापुराण में भी लिये भव्य इमारत जिस अाधारशिलापर खड़ी है इन्हीं नामोंके साथ इन ग्रन्थोंका उल्लेख करते हैं। उसका नाम 'कसायपाहुड' ( कषायप्राभूत ) है । और यथा धवलकी ७० हज़ार या ७२ हज़ार * श्लोक परिमाण"सदरीसहस्सधवलोजयधवलो सट्रिसहसबोधव्वो। निर्माणको लिये हुए भव्य इमारत जिस मूलाधार पर महबंधो चालीसं सिद्धंततयं अहूं वंदे ॥" खड़ी हुई है वह 'षट्खण्डागम' हैं । घटखण्डागमके -श्रुतस्कन्ध, ८८ ब्रह्म हेमचन्द्रने 'श्रुतस्कन्ध' में धवलका परि"ण उ बुझिउ आयमु सहधामु । माण जब ७० हजार श्लोक जितना दिया है, तब इन्द्रसिद्धंतु धवलु जयधवलु णाम ।।" नन्दि आचार्यने अपने 'श्रुतावतार में उसे 'ग्रन्थसहस्र--महापुराण, १,६,८ द्विसप्तत्या' पदके द्वारा ७२ हज़ार सूचित किया है।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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