SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीरशासनाऽभिनन्दन तव जिन शासन विभवो जयति कलावपि गुणाऽनुशासन विभवः । दोष- कशासनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभा - कृशाऽऽसनविभवः ॥ -- स्वयंभू स्तोत्रे, समन्तभद्रः । हे वीर जिन ! आपका शासन-माहात्म्य - आपके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थों के प्रतिपादनस्वरूप गौरव - कलिकाल में भी जयको प्राप्त है-सर्वोकृष्ट रूप से वर्त रहा है, उसके प्रभाव से गुणों में अनुशासन ये हुए शिष्यों का भव - संसारपरिभ्रमण - विनष्ट हुआ है। इतना ही नहीं, किन्तु जो दोषोंरूपी निराकरण करने में समर्थ हैं - उन्हें अपने पास फटकने नहीं देते और अपने ज्ञान - तेजसे जिन्होंने लोकप्रसिद्ध विभुओं को— हरिहादिको - निस्तेज कर दिया है, ऐसे गणधरदेवादि महात्मा भी आपके इस शासनकी स्तुति करते हैं । दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं, नय प्रमाण-प्रकृताञ्जसार्थम् । घुष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ - युक्तयनुशासने, समन्तभद्रः । हे वीर जिन ! आपका मत -- शासन --नय-प्रमाण के द्वारा वस्तु तत्त्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और संपूर्ण प्रवादियोंसे अबाध्य होनेके साथ साथ दया (अहिंसा), दम (संयम), त्याग और समाधि (प्रशस्त ध्यान) इन चारोंकी तत्परताको लिये हुए हैं । यहीसब उसकी विशेषता है, और इसलिये वह अद्वितीय है । सर्वान्तवत्तद्गुण- मुख्य- कल्पं, सर्वान्तशन्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ - युक्तयनुशासने, समन्तभद्रः । हे वीर प्रभु ! आपका प्रवचनतीर्थ - शासन-सर्वान्तवान् है-- सामान्य, विशेष, द्रव्य, पर्याय, विधि, निषेध, एक, अनेक, आदि अशेष धर्मोंको लिये हुए है और वह गुण-मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये होनेसे सुव्यस्थित है -- उसमें असंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है--जो धर्मों में परस्पर अपेक्षा को नहीं मानते - उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाते हैं - उनके शासन में किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न पदार्थ व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अत: आपका ही यह शासन तीर्थ सर्वदुःखों का अन्त करने वाला है, यही निरन्त है - किसी भी मिथ्यादर्शन के द्वारा स्नण्डनीय नहीं है--और यही सब प्राणियोंके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा 'सर्वोदयतीर्थ' है। भावार्थ- आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयों (परस्पर निरपेक्षनयों) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त ( निरसन) करने वाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही संसार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोंका अन्त करने वाला होनेसे आपका शासन समस्त आपदाओंका अन्त करने वाला है, अर्थात् जो लोग आपके शासन तीर्थका आश्रय लेते हैं, उसे पूर्ण तया अपनाते हैं, उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं । और वे अपना पूर्ण अभ्युदय (उत्कर्ष एवं विकास) सिद्ध करने में समर्थ हो जाते हैं । कामं द्विषन्नप्पुपपत्तिक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खंडितमानशृंगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः । युक्त्यनु०, श्रीसमन्तभद्राचार्यः । हे वीर भगवन् ! आपके इष्ट शासनसे भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखने वाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति) हुआ उपपत्तिचक्षु से - मात्सर्य के त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिआपके इष्टका - शासनका - अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानश्रृंग खण्डित हो जाता है - सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामत का आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिध्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है- - अथवा यूँ कहिये कि आपके शासन तीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy