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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] धवलादि श्रुत-परिचय ११ श्रावश्यक बातोंको भी उसी तरह देख लेना होगा जिस उसमें शीघ्रतादिके वश वर्गणाखण्डकी कापी न हो तरह कि उक्त सूत्रकी एकताके कारण खुद्दाबंधको जी- सकी हो और अधूरी ग्रन्थप्रति पर यथेष्ठ पुरस्कार न वट्ठाण कहनेपर जीवठ्ठाण-विषयक दूसरी ज़रूरी बातोंको न मिल सकनेकी श्राशासे लेखकने ग्रन्थकी अन्तिम वहां देख लेना होगा। अतः मोनी जीने वर्गणासूत्रोंके उक्त प्रशस्तिको ‘वेदनाखण्ड' के बाद जोड़कर ग्रंथप्रतिको उल्लेख परसे जो अनुमान लगाया है वह किसी तरह भी पूरा प्रकट किया हो, जिसकी अाशा बहुत ही कम है। ठीक नहीं है। कुछ भी हो, उपलब्ध प्रतिके साथमें वर्गणाखण्ड नहीं ___ (ङ) एक पाँचवीं बात और है, और वह इस है और वह चार खण्डोंकी ही टीका है, इतना तो प्रकार है स्पष्ट ही है । शेषका निर्णय मूडबिंद्रीकी मूल प्रतिको "प्राचार्य वीरसेन लिखते हैं—अवसेसं सुत्तटुं देखनेसे ही हो सकता है। श्राशा है पं० लोकनाथजी वग्गणाए परूवइस्सामो' अर्थात् सूत्रका अवशिष्ट शास्त्री उसे देखकर इस विषय पर यथेष्ट प्रकाश डालने अर्थ 'वर्गणा' में प्ररूपण करेंगे। इससे स्पष्ट हो जाता की कृपा करेंगे--यह स्पष्ट लिखनेका ज़रूर कष्ट उठाहै कि 'वर्गणा' का प्ररूपण भी वीरसेनस्वामीने किया एँगे कि वेदनाखण्ड अथवा कम्मपयडिपाहुडके २४वें है । वर्गणका वह प्ररूपण धवलसे बहिर्भूत नहीं है किन्तु अधिकारकी समाप्ति के बाद ही-"एवं चउवीसदिधवल ही के अन्तर्भत है।" मणिोगद्दारं समत्तं" इत्यादि समाप्तिसूचक वाक्यों ____ यद्यपि प्राचार्य वीरसेनका उक्त वाक्य मेरे पास के अनन्तर ही-उसमें 'जस्स सेसाण्णमए' नामकी नोट किया हुअा नहीं है, जिससे उस पर यथेष्ट विचार प्रशस्ति लगी हुई है या कि उसके बाद 'वर्गणाखण्ड' किया जा सकता; फिर भी यदि वह वीरसेनाचार्यका ही की टीका देकर फिर वह प्रशस्ति दी गई है। वाक्य है और 'वेदना' अनुयोगद्वार में दिया हुअा है हाँ,सोनीजीने यह नहीं बतलाया कि वह सूत्र कौनतो उससे प्रकृत विषय पर कोई असर नहीं पड़ता- सा है जिसके अवशिष्ट अर्थको 'वर्गणा' में कथन करने यह लाज़िमी नहीं आता कि उसमें वर्गणाखण्डका उल्लेख की प्रतिज्ञा की गई है और वह किस स्थान पर कौनसी है और वह वर्गणाखण्ड फासादि अनुयोगद्वारोंसे बना वर्गणाप्ररूपणमें स्पष्ट किया गया है ? उसे ज़रूर बतहुआ है-उसका सीधा संबंध स्वयं 'वेदना' अनुयोग लाना चाहिये था । उससे प्रकृत विषयके विचारको द्वार में दी हुई है 'वग्गणपरूवणा' तथा 'बंधणिज्ज'. काफ़ी मदद मिलती और वह बहुत कुछ स्पष्ट होजाता । अधिकार में दी हुई वर्गणाकी विशेष प्ररूपणाके साथ अस्तु । हो सकता है, जोकि धवलके बहिभूत नहीं है । और यहाँ तक के इस संपूर्ण विवेचन परसे और ग्रंथकी यदि जुदे वर्गणाखण्डका ही उल्लेख हो तो उस पर वीर- अंतरंग साक्षी परसे मैं समझता हूँ, यह बात बिल्कुल सेनाचार्यकी अलग टीका होनी चाहिये, जिसे वर्तमानमें स्पष्ट हो जाती है कि उपलब्ध धवला टीका षटखण्डाउपलब्ध होने वाले धवलभाष्य अथवा धवला टीकामें गमके प्रथम चार खण्डोंकी टीका है, पाँचवें वर्गणा समाविष्ट नहीं किया गया है । हो सकता है कि जिस खण्डकी टीका उसमें शामिल नहीं है और अकेला विकट परिस्थितिमें यह ग्रंथप्रति मूडविद्रीसे आई है 'वेदना' अनुयोगद्वार ही वेदनाखण्ड नहीं है बल्कि उसमें
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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