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अनेकान्त
[वर्ष ३, किरण १
अपना निजस्वरूप पहिचान कर अपने पैरोंपर खड़े होने- समयमें भी वर्तमानकी भान्ति अनेकों मत-मतान्ततर का अर्थात स्वावलम्बी बनकर आत्मोद्धार करनेका सतत प्रचलित थे । इस कारण जनता बड़े भ्रममें पड़ी थी प्रयत्न करना चाहिये । ईश्वर न तो सृष्टि रचयिता है कि किसका कहना सत्य एवं मानने योग्य है और किसऔर न कर्मफल-दाता।
___ का असत्य ? मत प्रवर्तकोंमें सर्वदा मुठभेड़ हुआ करती ___ शुष्क क्रियाकाण्डों और बाह्य शुद्धिके स्थान पर थी। एक दूसरेके प्रतिद्वन्दी रहकर शास्त्रार्थ चला करते वीर शासनमें अन्तरशुद्धिपर विशेष लक्ष्य दिया गया थे । आपसी मात्सर्यसे अपने अपने सिद्धान्तों पर प्रायः है। अन्तरशुद्धि साध्य है बाह्यशुद्धि साधनमात्र । सब अड़े हुए थे। सत्यकी जिज्ञासा मन्द पड़ गई थी । तब अतः साध्यके लषय-विहीन क्रिया फलवती नहीं होती। भगवान महावीरने उन सबका समन्वय कर वास्तविक केवल जटा बढ़ा लेने, राख लगा लेने, नित्य स्नान "सत्यप्राप्तिके लिये 'अनेकान्त' को अपने शासनमें विकर लेने व पंचाग्नि तपने श्रादिसे सिद्धि नहीं मिल शिष्ट स्थान दिया, जिसके प्रारा सब मतोंके विचारोंको सकती । अतः क्रियाके साथ भावोंका होना नितान्त समभावसे तोला जा सके, पचाया जा सके एवं सत्यको आवश्यक है।
प्राप्त किया जा सके । इस सिद्धान्त द्वारा लोगोंका बड़ा . ___वीर प्रभुने अपना उपदेश जनसाधारणकी भाषामें कल्याण हुआ । विचार उदार एवं विशाल हो गये, ही दिया; क्योंकि धर्म केवल पण्डितोंकी संपत्ति नहीं, सत्यकी जिज्ञासा पुनः प्रतिष्ठित हुई, सब वितण्डावाद उसपर प्राणिमात्रका समान अधिकार है। यह भी वीर- एवं कलह उपशान्त हो गये । और इस तरह वीरशाशासनकी एक विशेषता है । उनका लक्ष्य एकमात्र सनका सर्वत्र जय-जयकार होने लगा। विश्वकल्याणका था।
. यह लेख वीरसेवामन्दिर, सरसावामें वीरशासनसूत्रकृतांग सूत्रसे स्पष्ट है कि भगवान महावीरके जयन्तीके अवसर पर पढ़ा गया था। सफल जन्म
मत झिझको, मत दहलाओ, यदि बनना महामना है ! जो नहीं किया वह 'पर' है, कर लिया वही 'अपना' है !! दो-दिन का जीवन-मेला, फिर खंडहर-सी नीरवतायश-अपयश बस, दो ही हैं, बाकी सारा सपना है !! दो पुण्य-पाप रेखाएँ, दोनों ही जगकी दासी ! है एक मृत्यु-सी घातक, दूसरी सुहृद् माता-सी !! जो ग्रहण पुण्य को करता, मणिमाला उसके पड़तीअपनाता जो पापोंको, उसकी गर्दनमें फाँसी !! इस शब्द कोषमें केवल, है 'आज' न मिलता 'कल' है ! 'कल' पर जो रहता है वह, निरुपाय और निर्बल है !!
वह पराक्रमी-मानव है, जो 'कल' को 'श्राज' बनाकर'भगवत्' जैन .
क्षणभंगुर विश्व-सदनमें, करता निज जन्म सफल है !!