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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा 87 कार्यके करनेमें कोई असुविधा वा अधिक श्रम नहीं बिलकुल अभाव, कहीं पानी ही पानी, कहीं अतिवृष्टि, करना पड़ता / दूसरे अचेतन जगत्की उत्पत्ति अचेतन कहीं अनावृष्टि, कहीं अकाल-कहतका पड़ना, जहाँ परमाणुओं और कर्म-शक्ति से नहीं हो सकती; क्योंकि ज़मीन नीची होना चाहिये वहाँ उसका एकदम ऊँचा ऐसी व्यवस्थित और सुन्दर रचना जडपरमाणु व कर्म- होना और जहाँ ऊँचा होना आवश्यक था वहाँ नीचा शक्ति विचारः-शून्यताके कारण कैसे कर सकते हैं ? होना, निर्जन भयंकर पर्वतों और जंगलोंमें सुन्दरजलचेतन जीव भी चेतन जगतकी ऐसी. विशेष रचना प्रपात और झरनोंका बहना, उल्कापात, महामारी, अल्पज्ञ व स्वल्पशक्तिसम्पन्न होनेकी वजहसे नहीं कर डाँस-मच्छर, कीड़ा-मकोड़ा, साँप बिच्छू सिंह-व्याघ्र सकता, इसलिये चेतनाचेतनात्मक उभय जगत्का कर्ता आदिकी सृष्टि होना, मनुष्यमें एक धनवान दूसरा एकमात्र ईश्वर ही हो सकता है।' निर्धन, एक मालिक दूसरा नौकर, एक स्त्री-पुत्रादिके संसारके समस्त कार्य उपादान और निमित्तकारणके न होनेसे दुखी, दूसरा इन सबके रहने पर भी दरिद्रताके बिना उत्पन्न नहीं होते, इसमें किसीको भी ऐतराज़ नहीं कारण महान् दुखी, एक पंडित दूसरा अक्लका दुश्मन है और होना भी न चाहिये / परन्तु घट, वस्त्र श्रादिके –महामूर्ख और सोनेमें रूप होनेपर भी उसका सुगन्ध समान सभी कार्योका कर्ता-निमित्त कारण-चेतन रहित होना, स्वादिष्ट रसभरे गन्नेमें फलका न लगना, ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है। घास विना किसीके चन्दनके वक्षमें फलोंका न होना तथा पंडितोंका निर्धन उद्यमके बारिश आदिके होनेपर स्वयं पैदा होजाती है; और प्रायः अल्पायुष्क होना आदि संसारमें ऐसे कार्य मूंगा, मणि, माणिक्य, गजमुक्ता आदि भी केवल वैसे देखे जाते हैं जिससे मालूम होता है कि जगतकी रचना कारण मिलनेपर प्रकृतिसे ही पैदा होते हैं, इन्हें कोई त्रुटियोंसे खाली नहीं है / और इसलिये यह जगत नहीं बनाता / यदि कहो कि इन समस्त कार्योका कर्ता किसी एक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा व्यापक ईश्वर वही परमेश्वर है, वह ही छिपा छिपा ऐसे कार्योंको द्वारा नहीं रचा गया और न वह इसका व्यवस्थापक करता रहता है, तो घड़ा, वस्त्र आदिको भी वही क्यों ही है / एक कविने सोनेमें सुगन्ध न होने अादिकी नहीं बना देता ? जिससे कुम्हार आदिकी ज़रूरत ही उक्त बातोंको लेकर ईश्वरकी बुद्धिमत्ता पर जो कटाक्ष न रहे, जीवनकी सभी आवश्यक चीज़ोंका निर्माण वही किया है और इस तरह सृष्टि के निर्मातामें जो किसी ईश्वर कर दिया करे ! जिन वस्तुओंका कर्ता नज़र बुद्धिमान कारणकी कल्पना की जाती है उसका उपहास आता है यदि उनका कर्ता ईश्वर नहीं माना जाता, तो किया है-वह कविके निम्न वाक्यमें देखने योग्य हैजिनका कर्ता सिर्फ स्वभाव है उनको क्यों ईश्वरका गन्धःसुवर्णे फलमिचुदंडे नाकारि पुष्पं किल चन्दनेषु / बनाया हुअा माना जाय ? विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपिनदूसरे, यदि ईश्वर कार्योका बनानेवाला होता, तो बुद्धिदोऽभूत् // वे सब सुंदर और व्यवस्थित होना चाहिये थे। परन्तु इसलिये कहना पड़ता है कि उपर्युक्त तीसरी माआबाद मकानोंकी छतों, अांगन और दीवारों पर घास- न्यतासे भी हमारे विषयका स्पष्टीकरण नहीं होता, उलटे का पैदा होना, कहीं मरुस्थल जैसे स्थानोंमें पानीका हम व्यर्थ के पचड़ेमें फँसे नज़र आते हैं। ईश्वरका
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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