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________________ अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 संयोगसे चैतन्यकी अभिव्यक्ति (उत्पत्ति ) होती है, तीसरी मान्यतामें ईश्वर, जीव और प्रकृतिसे उसीको चेतन, जीव, आत्मा आदि नामसे पुकारते हैं, जगत्का निर्माण माना गया है / इस मान्यतामें न्यायशरीरसे भिन्न कोई 'जीव' नामका पदार्थ नहीं है / धर्म, वैशेषिक श्रादि जितने भी दर्शनोंका अन्तर्भाव होता है अधर्म, स्वर्ग-मोक्ष, पुण्य-पाप अादि पदार्थोंका भी सर्वथा उन सबका यह अभिमत है कि ईश्वरने जीव और अभाव है / कहा भी है अजीव प्रकृतिसे इस जगतकी रचना की है अर्थात् लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृतिः। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़ा-मकोड़ा श्रादि जितने जीवधर्माधौं न विद्यते न फलं पुण्यपापयोः॥ धारी प्राणी हैं उनका उपादान कारण जीव है और कतिपय वैज्ञानिक लोग भी जीवके विषयमें ऐसी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, पर्वत, समुद्र, नदही कल्पनाएँ घड़ते हैं, परन्तु युक्तिकी कसौटी पर कसने- नदी अादि जितने अचेतन पदार्थ देखनेमें आते हैं से उक्त वैज्ञानिक व दार्शनिक अपनी कल्पनामें अत- उनका उपादान कारण अजीव–अर्थात् प्रकृति है, फल मालूम होते हैं / शरीरादिसे भिन्न अहंकारात्मक परन्तु इस चेतन और अचेतन जगत्की रचनामें ईश्वर प्रवृत्ति होती है, पृथ्वी श्रादिके संयोगरूप शरीरका पूर्ण- अनिवार्य निमित्त कारण व व्यवस्थापक है। इन तौरसे अस्तित्व रहने पर भी चेतन या जीवके अभावमें दार्शनिकोंकी इस रचनाक्रमके समर्थनमें जो प्रबल वैसी प्रवृत्ति नहीं होती। जीव जब एक शरीर छोड़ दलील है वह इस प्रकार हैदेता—मर जाता है, तब उस शरीरमें चेतनसे सम्बन्ध संसार में जितने भी कार्य देखने में आते हैं वे किसी रखनेवाली सभी क्रियाओंका अभाव होजाता है, इस न किसी उस-उस कार्यके ज्ञाताके द्वारा ही बनाए जाते लिये पृथिवी आदि अचेतन पदार्थोंका चैतन्यरूपमें हैं / उदाहरणरूपमें जब हम अंगूठीकी अोर दृष्टिपात परिणमन होना वा उनसे चेतन-जीवकी अभिव्यक्ति करते हैं तो हमें साफ़ मालूम हो जाता है कि अंगूठी और उत्पत्ति मानना सारहीन ही नहीं असंभव भी है। अपने प्रा. से ही तय्यार नहीं हुई, किन्तु उसमें स्वर्ण जीवका जड-पदार्थोंसे पृथक्त्व होना तब और भी दृढ़- उपादान कारण होनेपर भी अंगूठी बनानेकी कलाका होजाता है जब एक मनुष्य मरकर पुनः मनुष्य-पर्याय जानकार सुनार ही अंगूठी बनाता है। इसी तरह कुम्हाधारणकर अपने पूर्व-मनुष्य-पर्यायकी घटनाअोंको बिल. र घड़ा, जुलाहा वस्त्र और अन्य कार्योंको जाननेवाला कुल सत्य बतला देता है—यहाँ तक कि अपने कुटु- अन्यकार्योंकी रचना करता है / चूंकि जगत्-रचना भी म्बियों और पड़ौसियोंका परिचय और अपने धन आदि- एक विशेष और बहुत बड़ा कार्य है, इसलिये इस का ठीक व्योरा लोगोंके सामने पेश कर देता है। यह कार्यका भी कोई अत्यन्त बुद्धिमान् कर्ता होना चाहिये, केवल एक किंवदन्ती ही नहीं है, किन्तु ऐसे सत्य इस विपुल कार्यका जो कर्ता है वह महान् ईश्वर है, उदाहरण आये दिन अनेक सुनने वा देखनेमें आते ईश्वरसे भिन्न कोई भी इतने विपुल कार्यका निर्माण रहते हैं / अतः जडपदार्थसे ही तमाम जगत्का निर्माण नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और स्वीकार करनेवाले दर्शन विश्वका रहस्य खोजनेमें व्यापक है, इसलिये वह तमाम सूक्ष्मसे सूक्ष्म और सर्वथा असमर्थ हैं। ... बड़े से बड़े कार्योको सरलतासे करता रहता है, उसे इस
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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