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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा 85 .................. प्रजापतिको लोक-निर्माता बताया गया है वहाँ उसे अपने पूर्व पिंडाकारका परित्याग कर ही कड़ा, कुण्डल, मुसलमान और ईसाई दार्शनिकोंकी तरह ही प्रायः बाली, श्रादि पर्यायों--हालतोंको धारण करता है, स्वीकार किया गया है, फिर न जाने ऊपर लिखी परन्तु उन सभी पर्यायोंमें--जो स्वर्ण के पिण्डसे शुरू मान्यतासे सहमत होते हुए भी कतिपय विद्वान खुदा होती हैं, स्वर्ण व स्वर्ण के पीतादि समस्त गुण पाये और गॉडका उपहास क्यों करते हैं ? यदि वे खुदाका जाते हैं / इसी तरह मृत्तिका आदि जितने भी उपादान मज़ाक उड़ाते हैं तो उन्हें प्रजापतिके तपश्चरण और कारण देखने में श्राते हैं, वे सभी निजसे उत्पन्न होनेवाले उसके लिंग फटने, उससे समुद्र निकलने आदिको न कार्योंमें पर्याय परिवर्तनके सिवाय समानरूपसे पाये जाते भूलना चाहिये और इस गुलगपाड़ेका भी अवश्य भंडा- हैं / यदि ईश्वर जगतका उपादान कारण है तो संसारमें फोड़ करना चाहिये / वेदान्त, न्याय,वैशेषिक, मुसलमान, पर्वत, समुद्र, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि जितने भी कार्य ईसाई श्रादि जिन दर्शनोंमें सष्टि उत्पत्तिके पहले एक- हैं उन सभीमें ईश्वरका अस्तिख व ईश्वरके सर्वज्ञत्व, मात्र ईश्वरके अस्तित्वकी कल्पना की है प्रायः उन व्यापकत्व, सर्वशक्तिमत्त्व आदि गुणोंका सद्भाव अवश्य सभी दर्शनोंमें इसी तरहकी बेसिर पैरकी कल्पनाएँ पाया जाना चाहिये / परन्तु सूक्ष्मरूपसे देखनेपर भी पाई जाती हैं | उन कल्पनाओंकी बुनियाद जगत्के संसार के किसी भी कार्यमें ईश्वरका एक भी गुण नज़र स्वरूप व उसके आदि-अन्तका ठीक पता न लगानेवाले नहीं आता / अतः युक्ति और प्रत्यक्ष प्रमाणसे ईश्वरको दार्शनिकोंके मस्तिष्ककी उपज ही है। जब वे दार्शनिक जगत्का उपादान कारण मानना ठीक नहीं मालूम बहुत कुछ कोशिश करने पर भी लोकका स्वरूप ठीक होता और न ईश्वरका ऐसी झंझटोंमें फंसना ही हृदय न समझ सके, तब उन्होंने एक छिपी हुई महती शक्ति- व बुद्धिको लगता है / इसलिये कहना होगा कि ईश्वरका अनुमान किया और किसीने उसे ब्रह्म, किसीने विषयक उक्त मान्यता मिथ्या और अवैज्ञानिक है। ईश्वर, किसीने प्रजापति, किसीने खुदा और किसीने एकमात्र प्रकृति --जड़पदार्थ की मान्यताको गॉड (God) आदि कहा / जब उस शक्तिकी कल्पना स्वीकार करनेवाले दर्शनोंमें चार्वाक-दर्शन प्रमुख है। की गई बब उसके बाद उसके विषयमें दूसरी भी अनेक चार्वाक दर्शनके माननेवाले दार्शनिकोंका अमिमत है कल्पनाएँ गढी गई और उससे ही समस्त सजीव तथा कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन भूत चतुष्टयके निर्जीव जगतका निर्माण माना गया। सिवाय अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है। इन जड मतइस मान्यताको माननेवाले दार्शनिक चराचर चतुष्टयसे ही संसार बना है। संसारमें जितने कार्य जगत्को उत्पत्तिमें ईश्वरको ही उपादान तथा निमित्त- नज़र आते हैं वे सब इन्हीं भूतचतुष्टयके सम्मेलनसे कारण घोषित करते हैं, परन्तु बुद्धिकी कसौटी पर पैदा हुए हैं | चेतन, जीव या आत्मा नामका पदार्थ कसनेसे यह बिलकुल ही मिथ्या साबित होता है। भी पृथ्वी श्रादिसे भिन्न नहीं हैं। जिस तरह कोद्रव दार्शनिक जगत्को यह भलीभाँति विदित है कि उपादान (अन्नविशेष ) गुड, महुअा अादि विशिष्ट पदार्थों के कारण अपना पूर्व रूप अर्थात् अपनी पूर्व पर्याय व सम्मिश्रणसे शराब पैदा हो जाती है, ठीक उसी तरह हालत मिटाकर ही कार्यरूपमें परिणत होता है / स्वर्ण पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके स्वाभाविक विशिष्ट
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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