SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं० २४६६] धवलादि-श्रुत-परिचय 'कम्मपयडिपाहुड' गुण नाम है उसी प्रकार 'वेयण- उत्तरसूत्र कहते हैं । यथाकसीणपाहुड' भी गुणनाम है; क्योंकि 'वेदना' कोंके "जहा उद्देसो तहा णिहेसो त्ति कट्ट कदिउदयको कहते हैं, उसका निरवशेषरूपसे जो वर्णन अणिोगद्दारं परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि ।" * करता है उसका नाम 'वेयणकसीणपाहुड' है; जैसा कि इससे स्पष्ट है कि 'वेदनाखण्ड' का विषय ही 'धवला' के निम्न वाक्यसे प्रकट है, जो कि श्राराके 'कम्मपयडिपाहुड' है; इसीसे इसमें उसके २४ अधि. जैनसिद्धान्तभवनकी प्रतिमें पत्र : नं० १७ पर दिया कारोंको अपनाया गया है, मंगलाचरण तकके ४४ सूत्र हुश्रा है भी उसीसे उठाकर रक्खे गये हैं। यह दूसरी बात है ___ "कम्माणं पयडिसरूवं वएणेदि तेण कम्मपय- कि इसमें उसकी अपेक्षा कथन संक्षेपसे किया गया है, डिपाहुडे त्ति गुणणाम, वयणकसीणपाहुडे त्ति वि कितने ही अनुयोगद्वारोंका पूरा कथन न देकर उसे तस्स विदियं णाममस्थि, वेयणा कम्माणमुदयो.तं छोड़ दिया है और बहुतसा कथन अपनी ग्रंथपद्धतिके कसीणं णिखसेसं वरणदि अदो वेयणकसीण- अनुसार सुविधा आदिकी दृष्टि से दूसरे खण्डोंमें भी ले पाहुडमिदि, एदवि गुणणाममेव ।" लिया गया है । इसीसे 'षट्खण्डागम' महाकम्मपयडिवेदनाखण्डका विषय 'कम्मपयडिपाहुड' न. होनेकी पाहुड (महाकर्मप्रकृतिप्राभृत) से उद्धृत कहा हालतमें यह नहीं हो सकता कि भूतबलि प्राचार्य कथन जाता है। करने तो बैठे वेदनाखण्डका और करने लगें कथन यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि कम्मपयडिपाहुडका, उसके २४ अधिकारोंका क्रमशः वेदनाखण्ड के मूल २४ अनुयोगद्वारोंके साथ ही धवला नाम देकर ! उस हालतमें कम्मपयडिपाहुडके अन्तर्गत टीका समाप्त हो जाती है, जैसाकि ऊपर बतलाया गया २४ अधिकारों (अनुयोगद्वारों) मेंसे 'वेदना' नामके है, और फिर उसमें वर्गणाखण्ड तथा उसकी टीकाके द्वितीय अधिकार के साथ अपने वेदनाखण्डका सम्बन्ध लिये कोई स्थान नहीं रहता । उक्त २४ अनुयोगद्वारों में व्यक्त करने के लिये यदि उन्हें उक्त २४ अधिकारोंके 'वर्गणा' नामका कोई अनुयोगद्वार भी नहीं है । 'बंधण' नामका.सूत्र देनेकी जरूरत भी होती तो वे उसे देकर अनुयोगद्वारके चार भेदोंमें 'बंधणिज्ज' भेदका वर्णन उसके बाद ही 'वेदना' नामके अधिकारका वर्णन करते; करते हुए, उसके अवान्तर भेदोंमें विषयको स्पष्ट करनेके परन्तु ऐसा नहीं किया गया-'वेदना' अधिकारके.पूर्व लिये । संक्षेप में 'वर्गणा-प्ररूपणा' दी गई है-वर्गणाके 'कदि' अधिकारका और पादको 'फास' आदि अधि.. देखो, पारा जैनसिद्धान्तभवनकी 'धवल' प्रति, कारोंका भी उद्देशानुसार (नामक्रमसे) वर्णन प्रारम्भ पत्र ५५२ । किया गया है । धवलकार श्रीवीरसेनाचार्यने भी, २४ जैसा कि उसके निग्न वाक्यसे प्रकट हैअधिकारोंके नामवाले सूत्रकी व्याख्या करनेके बाद, जो "तेण बंधणिज्जपरूपवणे कीरमाणे वग्गणपरूउत्तरसूत्रकी उत्थानिका दी है उसमें यह स्पष्ट कर दिया वणा णिच्छएणकायव्या । अण्णहा तेवीस वग्गणाहै कि उद्देशके अनुसार निर्देश होता है इसलिये सुइया चेव वग्गणा बंधपाओगा अण्णा जो बंधपाप्राचार्य 'कदि' अनुयोगद्वारका प्ररूपण करने के लिये ओगा ण होतिअत्तिगमाणु वपत्तीदो।"
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy