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________________ 122 अनेकान्त [वर्ष 3, किरण नामका 32 वाँ सूत्र आगया है। पुढवीयो छत्ताइछत्तसंठाण' इत्यागमात् / " .. दूसरी प्रतियोंमें बढ़े हुए सूत्रोंकी बाबत जो यह . ग-"केचिज्जडाः ‘स द्विविध' इत्यादिसूत्राणि कहा जाता है कि वे भाष्यके वाक्योंको ही गलतीसे सूत्र न मन्यते / " समझ लेने के कारण सूत्रोंमें दाखिल होगये हैं, वह यहाँ ये तीनों वाक्य प्रायः दिगम्बर आचार्योंको लक्ष्य 'सम्यक्त्वंच' सूत्रकी बाबत संगत मालूम नहीं होता;क्योंकि करके कहे गये हैं / पहले वाक्यमें कहा है कि 'कुछ लोग पूर्वोत्तरवर्ती सूत्रोंके भाष्यमें इसका कहीं भी उल्लेख नहीं अाहारकके निर्देशात्मक सूत्रसे पूर्व ही “तैजसमपि" है और यह सूत्र दिगम्बरसूत्रपाठमें 21 वें नम्बर पर ही यह सूत्र पाठ मानते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं; क्योंकि पाया जाता है। पं० सुखलालजी भी अपने तत्त्वार्थसूत्र- ऐसा होने पर श्राहारक शरीर लब्धि जन्य नहीं ऐसा भ्रम विवेचनमें इस सूत्रका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उत्पन्न होता है, आहारककी तो लब्धि ही योनि है / ' श्वेताम्बरीय परम्पराके अनुसार भाष्यमें यह बात सम्य- दूसरे वाक्यमें बतलाया है कि 'कुछ लोग 'धर्मा वंशा' क्त्वको देवायुके श्रास्रवका कारण बतलाना) नहीं है। इत्यादि सूत्रको जो नहीं मानते हैं वह ठीक नहीं है।' इससे स्पष्टहै कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ श्वेताम्बरसम्प्रदाय- साथ ही, ठीक न होने के हेतुरूपमें नरकमियोंके दूसरे में बहुत कुछ विवादापन्न है,और उसकी यह विवादापन्नता नामोंवाली एक गाथा देकर लिखा है कि 'चकि टिप्पणमें सातवें अध्यायके उक्त 31 वें. सूत्रके न होनेसे आगममें नरकभूमियों के नाम तथा संस्थानके उल्लेख और भी अधिक बढ़ जाती है; क्योंकि इस सूत्रपर भाष्य वाला यह वाक्य पाया जाता है, इसलिये इन नामों भी दिया हुआ है, जिसका टिप्पणकारके सामनेवाली वाले सूत्रको न मानना अयुक्त है / ' परन्तु यह नहीं उस भाष्यप्रतिमें होना नहीं पाया जाता जिसपर वे विश्वास बतलाया कि जब सूत्रकारने 'रत्नप्रभा' आदि नामोंके करते थे, और यदि किसी प्रतिमें होगा भी तो उसे उन्होंने द्वारा सप्त नरकभूमियोंका उल्लेख पहले ही सूत्रमें कर प्रक्षिप्त समझा होगा / अन्यथा,यह नहीं होसकता कि जो दिया है तब उनके लिये यह कहां लाज़िमी श्राता है टिप्पणकार भाष्यको मूल-चूल-सहित तत्त्वार्थसूत्रका कि वे उन नरकभूमियोंके दूसरे नामोंका भी उल्लेख त्राता (रक्षक) मानता हो वह भाष्यतकके साथमें विद्य- एक दूसरे सूत्र-द्वारा करें। इससे टिप्पणकारका यह हेतु मान होते हुए उसके किसी सूत्रको छोड़ देवे। कुछ विचित्रसा ही जान पड़ता है। दूसरे प्रसिद्ध (4) बढ़े हुए बाज़ सूत्रोंके सम्बन्धमें टिप्पणीके श्वेताम्बराचार्योंने भी उक्त 'धर्मा वंशा' श्रादि सूत्रको कुछ वाक्य इस प्रकार हैं: नहीं माना है, और इसलिये यह वाक्य कुछ उन्हें भी ____क-"केचित्वाहारकनिर्देशान्पूर्व "तैजसमपि" लक्ष्य करके कहा गया है। तीसरे वाक्य में उन श्राचार्यों इति पाठं मन्यते, नैवं युक्तं तथासत्याहारकं न लब्धि- को 'जडबुद्धि' ठहराया है जो “स द्विविधः" इत्यादि जमिति भ्रमः समुत्पद्यते, आहारकस्य तु लब्धि- सूत्रोंको नहीं मानते हैं !! यहां 'श्रादि' शब्दका अभिप्राय रेव योनिः।" 'अनादिरादिमांश्च,' 'रूपिष्वादिमान्,' . 'योगोपयोगी __ख-"केचित्तु धर्मावंशेत्यादिसूत्रं न सन्यते तदसत्। जीवेषु,' इन तीन सूत्रोंसे है जिन्हें 'स द्विविधः' सूत्र'घम्मा वंसा सेला अंजनरि / मघा य माधवई, नामेहि सहित दिगम्बराचार्य सूत्रकारकी कृति नहीं मानते हैं /
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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