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________________ ४२ अनेकान्त उनकी कोई सुनाई नहीं थी । धार्मिक कार्यों में भी उनको उचित स्थान न था अर्थात् स्त्री जाति बहुत कुछ पददलित सी थी । यह तो हुई उच्च नीच जातीयवादकी बात, इसी प्रकार वर्णाश्रमवाद भी प्रधान माना जाता था। साधनाका मार्ग वर्णाश्रमके अनुसार ही होना आवश्यक समझा जाता था। इसके कारण सच्चे वैराग्यवान व्यक्तियोंका भी तृतीयाश्रम के पूर्व सन्यास ग्रहण उचित नहीं समझा जाता था । [वर्ष २, किरण १ जाता था । कल्याणपथमें विशेष मनोयोग न देकर लोग ईश्वरकी लम्बी लम्बी प्रार्थनाएँ करने में ही निमग्न थे । और प्रायः इसी में अपने कर्तव्यकी' इतिश्री' समझते थे । इसी प्रकार शुष्क क्रिया काण्डौंका उस समय बहुत प्राबल्य था । यज्ञयागादि स्वर्गके मुख्य साधन माने जाते थे, बाह्य शुद्धिकी ओर अधिक ध्यान दिया जाता था अन्तरशुद्धिकी ओरसे लोगोंका लक्ष्य दिनोंदिन हटता जा रहा था । स्थान स्थान पर तापस लोग तापसिक बाह्य कटमय क्रियाकाण्ड किया करते थे और जन साधारणको उनपर काफी विश्वास था। वेद ईश्वर कथित शास्त्र हैं, इस विश्वासके कारण वेदाज्ञा सबसे प्रधान मानी जाती थी, अन्य महर्षियों के मत गौण थे। और वैदिक क्रियाकाण्डों पर लोगोंका अधिक विश्वास था । शास्त्र संस्कृत भाषा में होनेसे बहुत साधारण जनता उनसे विशेष लाभ नहीं उठा सकती थी । वेदादि पढ़नेके एममात्र अधिकारी ब्राह्मण ही माने जाते थे । ईश्वर एक विशिष्ट शक्ति है, संसारके सारे कार्य उसीके द्वारा परिचालित है, सुख-दुख व कर्म फलका दाता ईश्वर ही है, विश्वकी रचना भी ईश्वरने ही की है, इत्यादि बातें विशेषरूपसे सर्वजनमान्य थीं। इनके कारण लोग स्वावलम्बी न होकर केवल ईश्वर के भरोसे बैठे रहकर आत्मोन्नति के सच्चे मार्ग में प्रयत्नशील नहीं थे । मुक्ति लाभ ईश्वरकी कृपा पर ही निर्भर माना इस विकट परिस्थितिके कारण लोग बहुत अशान्तिभोग कर रहे थे। शूद्रादि तो अत्याचारोंसे ऊब गये थे। उनकी आत्मा शान्ति प्रासिके लिये व्याकुल हो उठी थी। वे शान्तिकी शोध में चातुरसे होगये थे। भगवान महावीरने अशान्तिके कारणों पर बहुत मननकर, शान्तिके वास्तविक पथका गंभीर अनुशीलन किया । उन्होंने पूर्व परिस्थितिका कायापलट किये बिना शान्ति-लाभको असम्भव समझ, अपने अनुभूत सिद्धान्तों द्वारा क्रान्तिमचादी। उन्होंने जगतके वातावरणकी कोई पर्वाह न कर साहसके साथ अपने सिद्धान्तोंका प्रचार किया। उनके द्वारा विश्वको एक नया प्रकाश मिला। महावीरके प्रति जनताका आकर्षण क्रमशः बढ़ता चला गया। फलतः लाखों व्यक्ति वीरशासनकी पवित्र छत्र-छाया में शान्ति लाभ करने लगे । । वीर शासनकी सबसे बड़ी विशेषता 'विश्वप्रेम' है । इस भावना द्वारा अहिंसाको धर्ममें प्रधान स्थान मिला। सब प्राणियोंको धार्मिक अधिकार एक समान दिये गये पापी से पापी और शूद्र एवं स्त्रीजातिको मुक्तितकका अधिकारी घोषित किया गया और कहा गया कि मोचकादर्वाज्ञा सबके लिये खुला है, धर्म पवित्र वस्तु है, उसका जो पालन करेगा वह जाति अथवा कर्मसे चाहे कितना ही नीचा क्यों न हो, अवश्य पवित्र हो जायगा । साथ ही जातिवादका ज़ोरों से खंडन किया गया, उच्च और नीचका सथा रहस्य प्रकट किया गया और उच्चता-नीचता के सम्बन्ध में जातिके बदले गुणों को प्रधान स्थान दिया गया । सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसपर विशद व्याख्या की गई, जिसकी कुछ रूपरेखा जैनों
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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