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________________ जैन-लक्षणावली अर्थात् लक्षणात्मक जैन-पारिभाषिक शब्दकोष वरसेवामन्दिर सरसावामें दो ढाई वर्षसे 'जैनलक्षणा- नहीं हो सका-उसमें अनेक अड़चनें तथा बाधाएँ ''वली' की तय्यारीका काम अविरामरूपसे होरहा है। उपस्थित हुर्ह / अनेक विद्वानोंके समय तथा ग्रन्थों के कई विद्वान् इस काममें लगे हुए हैं / कोई 200 मुख्य निर्माणकाल एवं ग्रन्थनिर्माताओंके सम्बन्धमें परस्पर दिगम्बर ग्रंथों और 200 के ही करीब प्रमुख-श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें मतभेद है और कितने ही विद्वानों ग्रंथोंपरसे लक्ष्य शब्दों तथा उनके लक्षणोंके संग्रहका तथा ग्रन्थोंका समय सुनिश्चित नहीं है। ऐसी हालतमें कार्य हुअा है / संग्रहका कार्य समाप्तिके करीब है और दोनों सम्प्रदायोंके लक्षणोंको अलग अलग दो विभागोंमें उसमें 25 हज़ार के करीब लक्षणोंका समावेश समझिये। रक्खा गया है / और उनमें अपनी अपनी स्थूल मासंग्रहमें यह दृष्टि रक्खी गई है कि जो लक्षण शुद्ध लक्षण न्यता के अनुसार लक्षणोंका क्रम दिया गया है। इससे न होकर निरुक्तिपरक अथवा स्वरूपपरक लक्षण हैं भी उक्त उद्देश्यकी कुछ परिश्रमके साथ पूरी अथवा उन्हें भी उपयोगिताकी दृष्टि से कहीं कहीं पर ले लिया बहुतसे अंशोंमें सिद्धि हो सकेगी। क्योंकि ग्रन्थों तथा गया है / अब सगृहीत लक्षणोंका क्रमशः संकलन और ग्रन्थकारोंके समय-सम्बन्धमें प्रस्तावना लिखते समय सम्पादन होकर प्रेस-कापी तय्यार की जानेको है / जैसे यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा। . जैस प्रेस कापी तय्यार होती जायगी उसे प्रेसमें छपने के लिये देते रहनेका विचार है / प्रायः चार खण्डोंमें यह यह ग्रन्थ देशी-विदेशी सभी विद्वानोंके लिये एक प्रामामहान् ग्रंथ प्रकाशित होगा। णिक रिफेरेंस बुक(Reference book)का काम देता मेरा विचार ग्रंथमे लक्षणोंको कालक्रमसे देनेका हुआ उनकी ज्ञानवृद्धि तथा किसी विषयके निर्णय करथा और इसलिये मैं चाहता था कि दिगम्बरीय तथा नेमें कितना उपयोगी एवं सहायक सिद्ध होगा उसे बतश्वेताम्बरीय लक्षणोंका इस दृष्टिसे एक ही क्रम तय्यार लानेकी ज़रूरत नहीं। ग्रंथकी प्रकृति एवं पद्धति परसे वह किया जाय, जिसने पाठकोंको लक्षणोंके क्रम- सहज ही में जाना जा सकता है / प्रथम तो प्रत्येक विद्वान् विकासका ( यदि कुछ हो), लक्षणकारोकी मनोवृत्ति के पास इतने अधिक ग्रंथोंका संग्रह नहीं होता और का और देश-कालकी उस परिस्थिति अथवा यदि किसीके पास हो भी तो यह मालूम करना बहुत ही समयादिककी माँगका भी कितना ही अनुभव कठिन तथा अतिशय परिश्रम-साध्य होता है कि कौन विहो सके जिसने उस विकासको जन्म दिया हो अथवा षय किस ग्रंथमें कहाँ कहाँ पर वर्णित है / इस एक ग्रन्थजिससे प्रेरित होकर पूर्ववर्ती किसी लक्षणमें कुछ परिवर्तन के सामने रहते सैंकड़ों ग्रन्थोंका हाल एक साथ मालूम अथवा फेर-फार करनेकी ज़रूरत पड़ी हो। परन्तु ऐसा हो जाता है-यह पता सहज ही में चल जाता है कि
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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