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________________ कार्तिक, वीर निर्वाण-सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज .............. -----------.............. वर्णित है / अन्य किसी दिगम्बर ग्रन्थमें अभी तक यह पं० श्राशाधरकी टीकामें लिखा है-'माचारस्य जीदस्य देखने में नहीं आई। . ., कल्पस्य च गुणप्रकाशना / एतानि हि शास्त्राणि 1544 नम्बरकी गाथामें कहा है कि घोर अवमोदर्य रत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति / ' पं० जिनदास शास्त्रीने हिन्दी या अल्प भोजनके कष्टसे बिना संक्लेश बुद्धि के किये अर्थमें लिखा है कि 'श्राचार शास्त्र,जीत शास्त्र,और कल्प हुए भद्रबाहु मुनि उत्तम स्थानको प्राप्त हुए / शास्त्र इनके गुणोंका प्रकाशन होता है।'अर्थात् तीनोंके दिगम्बर सम्प्रदायकी किसी भी कथामें भद्रबाहुके मत्तसे इन नामोंके शास्त्र हैं और यह कहनेकी जरूरत इस ऊनोदर-कष्टके सहनका कोई उल्लेख नहीं है। नहीं कि श्राचारांग और जीतकल्प श्वेताम्बर सम्प्रदाय___ 428 वे नम्बरकी गाथा में आधारवत्व गुणके में प्रसिद्ध हैं धारक अाचार्यको 'कप्पववहारधारी' विशेषण दिया है इन सब बातोंसे मेरा अनुमान है कि शिवार्य भी और कल्प-व्यवहार निशीथ सूत्र श्वेताम्बर सम्प्रदायके यापनीय संघके आचार्य होंगे / पण्डित जन सावधानीसे प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं / इसी तरह 407 नम्बरकी गाथा में अध्ययन करेंगे तो इस तरहकी और भी अनेक बातें मूलनिर्यापक गुरुकी खोजके लिए परसंघमें जानेवाले मुनि ग्रन्थमें उन्हें मिलेगी जो दिगम्बर सम्प्रदायके साथ मेल की 'आयार-जीद-कप्पगुणदीवणा' होती है। विजयोदया नहीं खातीं / मैने तो यहाँ दिग्दर्शन मात्र किया है / टीकामें इस पदका अर्थ किया है—'प्राचारस्य जीद- साम्प्रदायिक अाग्रहसे और पाण्डित्यके जोरसे खींच-तान संशितस्य कल्पस्य च गुण प्रकाशना / ' और करके मेल बिठाया जा सकता है, परन्तु इतिहासके १-देखो भ० अ० वचनिकाकी भूमिका पृष्ठ 12 विद्यार्थी ऐसे पाण्डित्यसे दूर रहते हैं, उनके निकट और 13 / सत्यकी खोज ही बड़ी चीज़ है / २-मोमोदारिए घोराए भह बाहनसंकिलिष्टमदी। अन्तमें मैं फिर इस बातपर जोर देता हूँ कि याप घोराए विगिछाये प्रडिवण्णो उत्तमं ठाणं॥ नीय संघके साहित्यकी खोज होनी चाहिए, जो न केवल ३-चोहसदसणवपुवीमतामदीसायरोव गंभीगे हमारे प्राचीन मन्दिरोंमें ही बन्द पड़ा है बल्कि विजयो कम्पववहारधारी होदिहु प्राधारवं णाम // दयाटीका और मूलाराधनाके समान उसे हम अबतक 4 मायारजीदकप्पगुणदीवण्णा अत्तसोधिनिझंझा / कुछका कुछ समझते रहे हैं। प्रज्जवम्मदव-लाघवतुट्ठी पल्हादणं च गुणाः // विद्वानोंसे प्रार्थना है कि वे श्रीवट्टकेरि आचार्यके यही गाथा जरासे पाठान्तरके साथ 130 3 नम्बर मूलाचारकी भी जाँच करें कि कहीं वह भी तो यापनीय पर भी है उसमें 'तुट्ठी पल्हादणं च गुणाः' की जगह संघका नहीं है / कुछ कथाग्रन्थ भी यापनीय संघके 'भत्ती पल्हादकरणं च' पाठ है। मिल सकते हैं।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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