Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 03
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
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________________ આ સ્થિતિથી સમાજની ત્રિશંકુ જેવી સ્થિતિ થાય એમાં આશ્ચર્ય શું છે ? इस प्रकार समयानभिज्ञ, विरोधिभाव-पोषक, और असहकारोत्पादक पामर उपदेशकों ( साधु-साध्वियों ) के उपदेश से क्या जनता पर कुछ असर पड़ सकता है ? और धर्म, या समाज की वृद्धि हो सकती है ?, कभी नहीं / ऐसे पामरोचित विरोधी उपदेशों से तो उपदेशकों का अपमान और धर्म समाज की प्रतिदिन हानि ही होना संभव है। ऐसे उपदेशकों के विहारों से समाज, धर्म और जनता को न कभी फायदा हुआ, न कभी होगा और न कभी होता है / ___मुनिवरो ! अब आप यदि समाज और धर्म का अभ्युदय करना चाहते हो, तो सहकारप्रिय बन कर जैनेतरों को अपनाना सीखो और शिथिलताओं को जलाञ्जली देकर अपना विहारक्षेत्र बिशाल बनाओ, तभी आपका साधु-जीवन सफल होगा और उसीसे आपलोग सामाजिक अभ्युदय के दर्शन पुनः कर सकोगे, अन्यथा नहीं / अस्तु. प्रस्तुत श्रीयतीन्द्रविहारदिग्दर्शन का यह तृतीय भाग भी अप्रतिबद्ध लम्बी मुसाफिरी ( पादविहार ) का द्योतक जानना चाहिये / इसमें हमारे विशाल विहार क्षेत्र में आये हुए रास्ते के गाँव, उनमें श्वेताम्बर जैनगृहों की संख्था, जिनालय, धर्मशाला, उपाश्रय और उनके प्रशस्ति-लेख, आदि प्राचीन अर्वाचीन ऐतिहासिक और भौगोलिक सामग्री आले