Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 03
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
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________________ दूर दूर देशों तक अपने विहारों को लंबाते थे और जैनेतरों को भी बडे प्रेम से अपना कर उन्हें धार्मिक मर्म समझाते थे। जिसके फलस्वरूप में भारतवर्ष के एक कोने से दूसरे कोने तक जहाँ देखो वहाँ, जैनों की ही जाहोजलाली दिखाई देती थी / परन्तु जब से जैनमुनिवरों में शिथिलताओंने प्रवेश किया, उनके लम्बे विहार कम पडे और उनके विहार का क्षेत्र अमुक मर्यादा में ही रह गया। तब से जैनधर्म, या उसके माननेवाले जैनों की विशालता भी संकुचित हो गई. अथवा यों समझिये कि नहीं के रूपमें परिणत हो गई। गत वीश वर्षों में अन्य समाजों की संख्या में आर्यसमाजियों की पौनेचार लाख, बौद्धों की इक्कीस लाख, मुसलमानों की पौने त्रेसठ लाख और क्रिश्चियनों की अठारह लाख की वृद्धि हुई है। तब जैनों के धुरन्धर आचार्यादि उपदेशक रहते हुए भी उनकी संख्या में पौने दो लाख की कमी हुई है। इसका कारण क्या है ?, जैन साधु साध्वियों की शिथिलता, या और कुछ। आर्यसमाजी, बौद्ध, मुसलमान और क्रिश्चियनों के मिशनरी ( उपदेशक) प्रतिगाँव और प्रति जंगलों में गरीबों के मददगार, अनाथों के नाथ, असहायों के सहायक, अशिक्षितों के शिक्षक, रोगियों के रोग विनाशक और दुःखियों के बेली बन कर, सब को अपनाते और उनके "लिये तन-धन निछरावल करते हैं। इसीसे उनकी संख्या