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अन्तरङ्गकथा
जल्दी जल्दी बार बार निष्क्रमण और प्रवेश करते हैं। ऐसा जानकर योगी आभ्यन्तर और बाह्य प्रदेश में आश्वास-प्रश्वास का ग्रहण नहीं करता। वह द्वार पर (नासिका-पुट ही निष्क्रमण-द्वार और प्रवेश-द्वार है) ही आते जाते उनका ग्रहण करता है। और 'एक-दो-तीन-चार-पाँच''एक-दो-तीन-चार-पाँचछह......' इस प्रकार एक बार में दस तक जल्दी जल्दी गिनता है। इस प्रकार जल्दी जल्दी गणना करने से आश्वास प्रश्वास का निरन्तर प्रवर्तन उपस्थित होता है। आश्वास प्रश्वास की निरन्तर प्रवृत्ति जानकर आभ्यन्तरगत और बहिर्गत बात का ग्रहण न कर जल्दी जल्दी गणना करनी चाहिये; क्योंकि आभ्यन्तरगत वात की गति की ओर ध्यान देने से चित्त उस स्थान पर वात से आहत मालूम पड़ता है,
और बहिर्गत वात की गति का अन्वेषण करते समय नाना प्रकार के बाह्य आलम्बनों की ओर चित्त विधावित होता है। इस प्रकार विक्षेप उपस्थित होता है। इसलिये स्पृष्ट स्पृष्ट स्थान पर ही स्मृति उपस्थापित कर भावना करने से भावना की सिद्धि होती है। जब तक गणना के विना ही चित्त आश्वास प्रश्वास रूपी आलम्बन में स्थिर न हो जाय, तब तक गणना की क्रिया करनी चाहिये। बाह्य वितर्क का उच्छेद कर आश्वास प्रश्वास में चित्त की प्रतिष्ठा करने के लिये ही गणना की क्रिया की जाती है।
अनुबन्धना-जब गणना का कार्य निष्पन्न हो जाता है तब गणना का परित्याग कर अनुबन्धना की क्रिया का आरम्भ होता है। इस क्रिया के द्वारा बिना गणना के ही चित्त आश्वासप्रश्वासरूपी आलम्बन में आबद्ध हो जाता है। गणना का परित्याग कर स्मृति आश्वास प्रश्वास का निरन्तर अनुगमन करती है। इस क्रिया को अनुबन्धनास्पर्श कहते हैं। (अभिधर्मकोश में इसे 'अनुगम' कहा है।) आदि, मध्य, और अवसान का अनुगमन करने से अनुबन्धना नहीं होती। आश्वासवायु की उत्पत्ति पहले नाभि में होती है, हृदय मध्य है और नासिकाग्र पर्यवसान है। इनका अनुगमन करने से चित्त असमाहित होता है और काम तथा चित्त का कम्पन और स्पन्दन होता है। इसलिये अनुबन्धना की क्रिया करते समय आदि, मध्य और अवसान-क्रम से कर्मस्थान का चिन्तन नहीं करना चाहिये।
स्पर्श या स्थापना-जिस प्रकार गणना और अनुबन्धना द्वारा अनुक्रम से पृथक्-पृथक् कर्मस्थान की भावना की जाती है उस प्रकार केवल स्पर्श या स्थापना द्वारा पृथक् रूप से भावना नहीं होती।गणना कर्मस्थानभावना का मूल है, अनुबन्धना स्थापना का मूल है; क्योंकि अनुबन्धना के विना स्थापना (=अर्पणा) असम्भव है।
इसलिये इन दोनों (गणना और अनुबन्धना) का प्रधान रूप से ग्रहण किया गया है। स्पर्श और स्थापना की प्रधानता नहीं है। स्पर्श गणना का अङ्ग है। स्पर्श का अर्थ है 'स्पृष्ट स्थान'। (अभिधर्मकोश में इसे 'स्थान' कहा है।) स्पर्श-स्थान नासिकाग्र है। स्पर्श-स्थान के समीप स्मृति को उपस्थापितकर गणना का कार्य करना चाहिये। इस प्रकार गणना और स्पर्श द्वारा एक साथ अभ्यास किया जाता है। जब गणना का परित्याग कर स्मृति स्पर्श-स्थान में ही आश्वास प्रश्वास का निरन्तर अनुगमन करती है और अनुबन्धना के निरन्तर अभ्यास से अर्पणा-समाधि के लिये चित्त एकाग्र होता है तब अनुबन्धना, स्पर्श और स्थापना-तीनों द्वारा एक साथ कर्मस्थान का चिन्तन होता है। इसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिये हम यहाँ अट्ठकथा में वर्णित पङ्गल और द्वारपाल की उपमा का उल्लेख करेंगे।
जिस प्रकार कोई पङ्गुल खम्भे के पास बैठकर जिस समय बच्चों को झूला झुलाता है, उस समय झूले के पटरे का अग्रभाग (आते समय), पृष्ठभाग (जाते समय) और मध्यभाग अनायास ही उसको दृष्टिगोचर होता है और इसके लिये उसे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता; उसी प्रकार स्पर्शस्थान (=नासिकाग्र) में स्मृति को उपस्थापित कर साधक का चित्त आते जाते आश्वास प्रश्वास के आदि मध्य और अवसान का अनायास ही अनुगमन करता है।