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विसुद्धिमग्गो
कर्मस्थान में चित्त की प्रवृत्ति होती है । चित्त के शान्त होने से चित्तसमुत्थित रूपधर्म लघु और मृदुभाव को प्राप्त होते हैं। आश्वास प्रश्वास का भी स्वभाव शान्त हो जाता है और वे शनै: शनै: इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि यह जानना भी कठिन हो जाता है कि वास्तव में उनका अस्तित्व है भी या नहीं ।
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यह कायसंस्कार क्रमपूर्वक स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतम हो जाता है। यहाँ तक कि चतुर्थ ध्यान के क्षण में यह परम सूक्ष्मता की कोटि को प्राप्त हो दुर्लक्ष्य हो जाता है। जो कायसंस्कार कर्मस्थान के आरम्भ करने के पूर्व प्रवृत्त था, वह चित्तपरिग्रह के समय शान्त हो जाता है। जो कायसंस्कार चित्तपरिग्रह के पूर्व प्रवृत्त था, वह प्रथम ध्यान के उपचारक्षण में शान्त हो जाता है। इसी प्रकार पूर्व कायसंस्कार उत्तरोत्तर कायसंस्कार द्वारा शान्त हो जाता है। कायसंस्कार के शान्त होने से शरीर का कम्पन, चलन, स्पन्दन और नमन भी शान्त हो जाता है।
आनापानस्मृतिभावना के ये चार प्रकार प्रारम्भिक अवस्था के साधक के लिये बताये गये हैं । इन चार प्रकारों से भावना कर जो साधक ध्यानों का उत्पाद करता है, वह यदि विपश्यना द्वारा अर्हत् पद पाने का अभिलाष रखता है तो उसे शील को विशुद्ध कर आचार्य के समीप कर्मस्थान को पाँच आकारों से ग्रहण करना चाहिये। यह पाँच आकार कर्मस्थान के सन्धि ( = पर्व, भाग) कहलाते हैं। ये इस प्रकार हैं :
उद्ग्रह, परिपृच्छा, उपस्थान, अर्पणा और लक्षण । १. कर्मस्थान ग्रन्थ का स्वाध्याय 'उद्ग्रह' कहलाता है । २. कर्मस्थान के अर्थ का स्पष्टीकरण करने के लिये प्रश्न पूछना 'परिपृच्छा' है। ३. भावनानुयोगवश निमित्त के उपधारण को 'उपस्थान' कहते हैं । ४. चित्त को एकाग्र कर भावना - बल ध्यानों का प्रतिलाभ ' अर्पणा' और ५. कर्मस्थान के स्वभाव का उपधारण 'लक्षण' कहलाता है। साधक दीर्घकाल तक स्वाध्याय करता है, उपर्युक्त आवास में निवास करते हुए आनापानस्मृतिकर्मस्थान की ओर चित्तावर्जन करता है और आश्वास प्रश्वास पर चित्त को स्थिर करता है।
कर्मस्थान - अभ्यास की विधि इस प्रकार है
गणना - साधक पहले आश्वास प्रश्वास की गणना द्वारा चित्त को स्थिर करता है। एक बार में एक से आरम्भ कर कम से कम पाँच तक और अधिक से अधिक दस तक सङ्ख्या गिननी चाहिये । गणनाविधि को खण्डित भी नहीं करना चाहिये । अर्थात् एक, तीन, पाँच इस प्रकार बीच बीच में छोड़ते हुए सङ्ख्या नहीं गिननी चाहिये। पाँच से नीचे रुकने पर चित्त का स्पन्दन होता है और दस से अधिक सङ्ख्या गिनने पर चित्त कर्मस्थान का आश्रय छोड़ गणना का आश्रय लेता है। गणनाविधि का खण्डन होने से चित्त में कम्पन होता है और कर्मस्थान की सिद्धि के विषय में चित्त संशयान्वित हो जाता है। इसलिये इन दोषों का परित्याग करते हुए गणना करनी चाहिये। पहले धीरे धीरे गणना करनी चाहिये । जिस प्रकार धान का तौलने वाला गणना करता है उसी प्रकार धीरे धीरे पहले गणना करनी चाहिये । धान का तौलने वाला तराजू के एक पलड़े में धान भरता है और उसे तौलकर 'एक' कहकर जमीन पर उड़ेल देता है। फिर पलड़े में धान भरता है और जब तक दूसरी बार नहीं उड़ेलता, तब तक बराबर 'एक' 'एक' कहता जाता है। आश्वास प्रश्वासों में जो विशद और विभूत होता है उसी का ग्रहण कर गणना आरम्भ होती है और जब तक दूसरा विशद और विभूत नहीं होता, तब तक निरन्तर आश्वासप्रश्वास की ओर 'एक' 'एक' कहता रहता है, दृष्टि रखते हुए दस तक गणना की जाती है । तदनन्तर फिर से उस प्रकार गणना आरम्भ होती है। इस प्रकार गणना करने से जब आश्वास प्रश्वास विशद और विभूत हो जाय तब शीघ्रता से गणना करनी चाहिये। पूर्व प्रकार की गणना से आश्वास प्रश्वास विशद हो