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वड्डमाणचरिउ
विबुध श्रीधरने भी वि. सं. १२३० के फाल्गुण मासके शुक्ल पक्ष १०वीं रविवारको 'भविसयत्तकहा' को लिखकर समाप्त किया था। उसने अपनी प्रशस्तिमें ग्रन्थ-रचनाका इतिहास लिखते हुए बताया है कि "चन्द्रवार नगरके माथुर-कुलोत्पन्न नारायण एवं उनकी पत्नी रुप्पिणीके दो पुत्र थे-सुपट्ट एवं वासुदेव । उनमेंसे सुपट्टने कवि श्रीधरसे प्रार्थना की कि-'हे कविवर, मेरी माताकी सन्तान जीवित न रहनेसे वह अत्यन्त दुखी, चिन्तित एवं अर्धमृतक सम रहती है। अतः उसके निमित्त आप पंचमीके उपवासके फलको प्रदान करनेवाले वणिक्पति भविष्यदत्तके चरितका प्रणयन कर देनेकी कृपा कीजिए।' कविने उसका अनुरोध स्वीकार कर प्रस्तुत ग्रन्थकी रचना की।"
प्रस्तुत 'भविसयत्तकहा में ६ सन्धियाँ एवं १४३ कडवक हैं । इसका कथानक संक्षेपमें इस प्रकार है
कुरुजांगल देशके गजपुर नगरमें भूपाल नामक राजा राज्य करता था। वहाँके नगरसेठका नाम धनपति था, जिसकी पत्नीका नाम कमलश्री था। चिरकाल तक सन्तान न होनेसे कमलश्री उदास बनी रहती थी। संयोगसे एक बार वहाँ सुगप्त नामक मुनिराज पधारे और उनके आशीर्वादसे उन्हें भविष्यदत्त नामके एक सुन्दर एवं होनहार पुत्रकी प्राप्ति हुई। [ प्रथम सन्धि ]
पूर्व भवमें मनिनिन्दाके फलस्वरूप धनपतिने कमलश्रीको घरसे निकाल दिया। कमलश्री रोती-कलपती हुई अपने पिताके यहाँ पहुँची और पिताने सारा दुःखद कारण जानकर उसे घरमें रख लिया। इधर धनपतिने स्वरूपा नामकी एक अन्य सुन्दरी कन्याके साथ अपना दूसरा विवाह कर लिया। समयानुसार उससे बन्धुदत्त नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। वयस्क होनेपर जब बन्धुदत्त अपने पांच सौ साथियोंके साथ व्यापार-हेतु स्वर्णदीप जानेकी तैयारी करता है, तभी भविष्यदत्तको इसकी सूचना मिलती है। वह भी अपनी माताकी अनुमति लेकर उसके साथ विदेश-यात्राकी तैयारी करता है। स्वरूपाको जब यह पता चला तो उसके मनमें सौतेलेपनकी दुर्भावना जाग उठी और बन्धुदत्तको कहती है कि परदेशमें तुम ऐसा उपाय करना कि भविष्यदत्त परदेशसे वापस ही न लौट सके । शुभ मुहूर्तमें बन्धुदत्तने सदल-बल जल-यान द्वारा प्रस्थान किया और सबसे पहले वे लोग तिलकद्वीप पहुँचे । कपट-वृत्तिसे बन्धुदत्त भविष्यदत्तको उसी अपरिचित द्वीपमें अकेला छोड़कर आगे बढ़ गया। [ दूसरी सन्धि ]
भविष्यदत्त एकाकी रहने के कारण दुखी अवश्य हो गया, किन्तु शीघ्र ही उस द्वीपमें भ्रमण करने में उसका मन लग गया। वहाँ चन्द्रप्रभ भगवान्के मन्दिरमें विद्युत्प्रभ नामक देव अपने अवधिज्ञानके बलसे भविष्यदत्तको अपने पूर्वभवका महान् हितैषी जानकर उसके पास आया तथा उसने उसे उसी द्वीपका परिचय देकर वहाँकी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी राजकुमारी भविष्यरूपाके साथ उसका विवाह करा दिया। इधर भविष्यदत्तकी मां कमलश्री पुत्र-वियोगमें बड़ी व्याकुल रहने लगी। उसने अपने मनकी शान्ति हेतु सुव्रता नामक आर्यिकासे श्रुत-पंचमी-व्रत ग्रहण कर लिया । [ तीसरी-सन्धि ]
भविष्यदत्त भविष्यरूपाके साथ स्वदेश लौटनेके उद्देश्य से अनेकविध मोती, माणिक्य एवं समृद्धियों सहित समुद्री-तटपर आया। संयोगसे बन्धुदत्त भी अजित सम्पत्ति लेकर मित्रोंके साथ उसी समुद्र-तटपर आया। भविष्यरूपाके साथ भविष्यदत्तको देखकर वह भौंचक्का रह जाता है। पूर्वापराधकी क्षमायाचना कर बन्धुदत्त उसे अपने जलयानमें बैठा लेता है। संयोगसे उसी समय भविष्यरूपाको स्मरण आया कि उसकी नागमुद्रिका तो मदन-द्वीप स्थित तिलका-नगरीके शयनकक्षमें ही छूट गयी है। अतः भविष्यदत्त जब वह मुद्रिका उठाने हेतु जाता है, तभी कपटी बन्धुदत्त अपने जलयानको रवाना करा देता है। बेचारी भविष्यरूपा
१. भविसयत्त. अन्त्य प्रशस्ति [-दे. इसी ग्रन्थ की परिशिष्ट सं. १ (ग)] । २. भबिसयत्त,-१२-३। [-दे, इसी ग्रन्थकी परिशिष्ट सं०१ (ग)]
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