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वड्डमाणचरिउ पुरवाड अथवा परवार वंशीय साहू जग्गु [ पत्नी गल्हा ]
तिक्कड़
जल्हण
सलक्खण
सम्पूर्ण
समुद्रपाल
नयपाल
पीथे महिंद [प्रथमा पत्नी सलक्खणा]
नान
कुमर [ पत्नी-पद्मा]
पाल्हण साल्हण वल्ले सुपटु
कविने अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तिमें इस रचनाके विषयमें लिखा है कि 'वलडइ-ग्रामके जिनमन्दिरमें पद्मसेन नामके एक मनिराज अनेक शास्त्रोंका सरस वाणीमें प्रवचन किया करते थे। उसी प्रसंगमें उन्होंने मुझे सुकुमालस्वामीका सुन्दर चरित बतलाया । कविको तो वह सरस लगा ही, किन्तु श्रोताओंमें पीथेपुत्र कुमरको उसने इतना आकर्षित किया कि उसने मुमिवर पद्मसेनसे तत्सम्बन्धी चरित अपने स्वाध्याय-हेतु लिख देनेकी प्रार्थना की । तभी पद्मसेनने कुमरको कवि श्रीधरका परिचय दिया और कहा कि वे इसकी रचना कर सकते हैं। कुमर अगले दिन ही कवि श्रीधरके पास पहुँचा और उनसे 'सुकुमालचरिउ'के प्रणयन हेतु प्रार्थना की । कविने उसे स्वीकार कर लिया तथा उसीके निमित्त उसने प्रस्तुत सुकुमालचरितकी रचना की। कविने स्वयं ही इस रचनाका विस्तार १२०० ग्रन्थ-प्रमाण कहा है।
प्रशस्तिमें प्रयुक्त बलडइ-ग्रामकी स्थितिके विषयमें कविने कोई सूचना नहीं दी । हो सकता है कि वह दिल्लीके आस-पास ही कहीं रहा हो। राजा गोविन्दचन्द्र भी, हो सकता है कि, उसी ग्रामका कोई मुखिया या छोटा-मोटा जमींदार या राजा रहा हो। 'पृथिवीराजरासो' में एक स्थानपर उल्लेख आया है कि अनंगपाल तोमरका दौहित्र पृथिवीराज चौहान जब दिल्लीका सम्राट् बना तब उसके वाम-पार्श्वमें गोइन्दराय, निडुरराय और लंगरी राय बैठते थे। हो सकता है कि यही गोइन्दराय विबुध श्रीधर द्वारा उल्लिखित राजा गोविन्दचन्द्र रहा हो ? मुनि पद्मसेनके गच्छ, गण अथवा परम्पराका कविने कोई उल्लेख नहीं किया, अतः यह कह पाना कठिन है कि ये मनि पद्मसेन कौन थे? हो सकता है कि काष्ठासंघ-पन्नाट-लाडवागड गच्छके भट्टारक-मुनि रहे हों, जो कि भट्टारक विजयकीर्ति ( वि. सं. ११४५ ) की परम्परामें एक साधकके रूपमें ख्याति प्राप्त थे। इन पद्मसेनके शिष्य नरेन्द्रसेनने किसी आशाधर नामक एक विद्वानको शास्त्र-विरुद्ध उपदेश करने के कारण अपने गच्छ अर्थात संघसे निकाल बाहर किया था, जैसा कि निम्न उल्लेखसे विदित होता है :
तदन्वये श्रीमतलाटवर्गटप्रभावश्रीपद्मसेनदेवानां तस्य शिष्यश्री नरेंद्रसेनदेवैः किंचिदविद्यागर्वत असूत्रप्ररूपणादाशाधरः स्वगच्छान्निःसारितः कदाग्रहग्रस्तं श्रेणिगच्छमशिश्रियत् ॥
वस्तुतः इन पद्मसेन तथा उनकी परम्परा पर स्वतन्त्ररूपेण खोज-बीन करना अत्यावश्यक है।
१. बही. १।२। २. सुकुमाल०-११३ दे. इस ग्रन्यकी परिशिष्ट सं.१ (ख)। ३. वही.-६।१३।१४। ४. पृथिवीराज रासो मोहनलाल विष्णुदास पंड्या आदि द्वारा सम्पादित तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित [१६०६] १. भट्टारक सम्प्रदाय (शोलापुर), पृ.२५८-२५६ । ६. वही प. २५२।
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