________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 26 . न हि यादृशमनिंद्रियनिमित्तत्वमीहायास्तादृशं श्रुतस्यापि। तन्निमित्तत्वमानं तु न तयोस्तादात्म्यगमकमविनाभावाभावात् सत्त्वादिवत् / केचिदाहुर्मतिश्रुतयोरेकत्वं श्रवणनिमित्तत्वादिति, तेपि न युक्तिवादिनः। श्रुतस्य / ___साक्षाच्छ्र वणनिमित्तत्वासिद्धेः तस्यानिंद्रियवत्त्वादृष्टार्थसजातीयविजातीयनानार्थपरामर्शनस्वभावतया प्रसिद्धत्वात्। श्रुत्वावधारणाद्ये तु श्रुतं व्याचक्षते न ते तस्य श्रोत्रमतेर्भेदं प्रख्यापयितुमीशते। श्रुत्वावधारणाच्छुतमित्याचक्षाणाः शब्दं श्रुत्वा तस्यैवावधारणं श्रुतं सप्रतिपन्नास्तदर्थस्यावधारणं तदिति प्रष्टव्याः। प्रथमकल्पनायां श्रुतस्य श्रवणमतेरभेदप्रसंगोऽशक्यप्रतिषेधः, द्वितीयकल्पनायां तु श्रोत्रमतिपूर्वमेव श्रुतं स्यानेंद्रियांतरमतिपूर्वं / / तथाहि यद्यपि ईहा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही मन से होते हैं किन्तु जिस प्रकार ईहाज्ञान का निमित्त मन को प्राप्त है, वैसा श्रुतज्ञान का निमित्तत्व मन में नहीं है। अत: केवल सामान्यरूप से उस मन का निमित्तपना मति और श्रुत के तादात्म्यकपन का गमक हेतु नहीं है। प्रकरण प्राप्त हेतु और साध्य की अविनाभावरूप व्याप्ति नहीं बनती है जैसे कि सामान्य सत्ता या द्रव्यत्व आदि हेतुओं से जड़ चेतन, आकाश, पुद्गल, मुक्त, संसारी आदि में एकपना सिद्ध नहीं होता है। कोई वादी कहता है कि कर्ण इन्द्रिय को निमित्त पाकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, अतः इन दोनों में ऐक्यता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहने वाले वादी भी युक्तिर्पूवक कहने वाले नहीं है, क्योंकि कर्णइन्द्रियको साक्षात् निमित्त मानकर श्रुतज्ञान का उत्पन्न होना असिद्ध है। भावार्थ : कर्ण इन्द्रियजन्य मतिज्ञान में अव्यवहित रूप से निमित्तकारण कर्ण इन्द्रिय है। बहुत से श्रुतज्ञान शब्द को सुनकर वाच्य अर्थ की ज्ञप्ति के लिए उत्पन्न होते हैं, उनमें परम्परा से कर्णइन्द्रिय कारण है। कान से शब्दों को सुनकर कर्णजन्य मतिज्ञान होता है, पश्चात् संकेत ग्रहण का स्मरण होता है, पुन: वाच्य अर्थ से होने वाला श्रुतज्ञान समझा जाता है॥ “श्रुतमनिन्द्रियस्य"-इस सूत्रानुसार उस श्रुतज्ञान की अनिन्द्रियत्व से (यानी मन को निमित्त मानकर) उत्पन्न होना और प्रत्यक्ष से देखे नहीं गये सजातीय और विजातीय अनेक अर्थों का विचार करना रूप स्वभाव से प्रसिद्धि है। शब्द को सुनकर निर्णय करने से श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार जो श्रुत का व्याख्यान करते हैं वे वादी उस श्रुतज्ञान का कर्णइन्द्रियजन्य मतिज्ञान से भेद को प्रसिद्ध कराने के लिए समर्थ नहीं हैं। उनसे पूछना चाहिए कि क्या सुनकर अवधारण करने से श्रुतज्ञान होता है ? अथवा व्यक्त करने वाले वादी शब्द को सुनकर उसी शब्द के निर्णय को श्रुतज्ञान समझ लेते हैं ? अथवा इस शब्द द्वारा कहे गये वाच्य अर्थ के निर्णय से श्रुतज्ञान का विश्वास कर रहे हैं ? प्रथम कल्पना में तो श्रुतज्ञान का कर्ण इन्द्रियजन्य मतिज्ञान से अभेद हो जाने के प्रसंग का कोई निषेध नहीं कर सकता है क्योंकि शब्दश्रवण प्रत्यक्ष मतिज्ञान है और उसी को उन्होंने श्रुतज्ञान कह दिया है। द्वितीय कल्पना स्वीकार करने पर अकेले कर्ण इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को ही कारण मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न हो सकेगा। अन्य रसना घ्राण, स्पर्शन, नेत्र और मन इन्द्रिय से उत्पन्न हुए मतिज्ञानरूप कारणों से श्रुतज्ञान नहीं हो सकेगा। इसी बात को स्पष्ट किया गया है। जिनके द्वारा शब्द को सुन करके उसके वाच्य अर्थों का निश्चय ही श्रुतज्ञान माना जाता है, उनके द्वारा नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न हुए मतिज्ञान से श्रुतज्ञान का लाभ नहीं किया जायेगा।