________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 24 न ह्युपादानोपादेयभावः कथंचिद्भेदमंतरेण मतिश्रुतपर्याययोर्घटते यतोस्य विरुद्धसाधनत्वं न भवेत् कथंचिदेकत्वस्य साधने तु न किंचिदनिष्टम्॥ गोचराभेदतश्चेन्न सर्वथा तदसिद्धितः / श्रुतस्यासर्वपर्यायद्रव्यग्राहित्ववाच्यपि // 29 // केवलज्ञानवत्सर्वतत्त्वार्थग्राहितास्थितेः। मतेस्तथात्वशून्यत्वादन्यथा स्वमतक्षतेः॥३०॥ __ “मतिश्रुतयोर्निबंधो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु” इति वचनाद्गोचराभेदस्ततस्तयोरेकत्वमिति न प्रतिपत्तव्यं सर्वथा तदसिद्धेः। श्रुतस्यासर्वपर्यायद्रव्यग्राहित्ववचनेपि केवलज्ञानवत्सर्वतत्त्वार्थग्राहित्ववचनात् / “स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने'' इति तद्व्याख्यानात् / न मतिस्तस्यार्थित्वात्मिकायाः स्वार्थानुमानात्मिकायाश्च तथाभावरहितत्वात्। न हि यथा श्रुतमनंतव्यंजनपर्यायसमाक्रांतानि सर्वद्रव्याणि गृह्णाति तथाभावरहितत्वात् / स्वमतसिद्धांतेऽस्याः वर्णसंस्थानादिस्तोकपर्यायविशिष्टद्रव्यविषयतया प्रतीतेः। मतिज्ञान और श्रुतज्ञानरूप पर्यायों में कारण-कार्यरूप से उपादान-उपादेयपना कथंचित् भेद माने बिना घटित नहीं होता है जिससे कार्यकारणभाव हेतु के विरुद्ध हेत्वाभासपना न हो सके तथा कथंचित् एकपने को दोनों में सिद्ध करने पर स्याद्वादियों के यहाँ कोई अनिष्ट नहीं है। विषय एक होने से मति और श्रुतज्ञान को एक कहना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें सभी प्रकार के विषयों का अभेद पाया जाना असिद्ध है। अत: विषय अभेद भी हेतुस्वरूपासिद्ध नामक हेत्वाभास है। श्रुतज्ञान को असर्व पर्याय और सर्व द्रव्यों के ग्राहकपन होते हुए भी केवलज्ञान के समान सम्पूर्ण तत्त्वार्थों की ग्राहकता सिद्ध है और इस प्रकार मतिज्ञान में परोक्षरूप से सम्पूर्ण अर्थों के ग्राहकपन का अभाव है। अन्यथा ऐसा नहीं मानने पर बौद्ध, नैयायिक, मीमांसक आदि वादियों को भी जैनों के समान अपने सिद्धान्तों की क्षति प्राप्त होती है॥२९-३०॥ मतिंज्ञान और श्रुतज्ञान का विषयनिबन्ध सर्वद्रव्य और द्रव्य की असर्व पर्यायों में है। इस कथन द्वारा विषय को अभेद मानकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में एकपना नहीं समझना चाहिए, क्योंकि सभी प्रकार से उनमें विषयों का अभेद असिद्ध है। श्रुतज्ञान के असर्वपर्याय और सम्पूर्ण द्रव्यों के ग्राहकपन का वचन होते हुए भी केवलज्ञान के समान सम्पूर्ण तत्त्वार्थों की ग्राह्यता का वचन (कथन) है। श्री समन्तभद्राचाय ने आप्तमीमांसा में उस सूत्र की इस प्रकार व्याख्या की है कि स्याद्वाद यानी श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं। भेद इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष रूप से सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है और केवलज्ञान सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है किन्तु मतिज्ञान श्रुत के सदृश नहीं है, तर्क स्वरूप अथवा स्वार्थानुमानस्वरूप उस मतिज्ञान के भी श्रुतज्ञान के समान सर्वतत्त्वों का ग्राहकपना नहीं है जिस प्रकार अनन्त व्यंजनपर्यायों से चारों ओर घिरे हुए सम्पूर्ण द्रव्यों को श्रुतज्ञान ग्रहण करता है। पर मतिज्ञान में सर्व पदार्थों को जानने के सामर्थ्य का अभाव है। अपने जैनमत के सिद्धान्त में वर्ण, रस, संस्थान आदि मोटी-मोटी थोड़ी सी पर्यायों से विशिष्ट द्रव्य के विषय से इस मतिज्ञान की प्रतीति होती है