Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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१२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ १४ (३) प्रास्रव-शुभकर्म का या अशुभकर्म का प्रागमन, वह प्रास्रव है।
* पा समन्तात् स्रवः 'प्रास्रवः'। अर्थात्-सर्व तरफ से स्रवना-पाना वह प्रास्रव कहा जाता है।
* पाश्रूयते-उपादीयते 'प्रास्रवः'। अर्थात्-जिससे कर्म का ग्रहण किया जाय, वह प्रास्रव है।
* अथवा, 'प्राश्नाति-प्रादत्ते कर्म यस्ते 'प्रास्रवाः'। अर्थात्-जीव जिसके द्वारा कर्म को ग्रहण करता है, वह प्रास्रव है।
* आश्रीयते-उपाय॑ते कर्म एभिरित्यास्रवाः। अर्थात्-जिसके द्वारा कर्म उपाजित किया जाय, वह प्रास्रव है।
* अथवा स्रवति क्षरति जलं सूक्ष्मरन्ध्रषु यस्ते प्रास्रवाः। अर्थात्-सूक्ष्म छिद्रों में होकर जल रूपी कर्म जो झरता है अर्थात प्रवेश करता है, वह भी प्रास्त्रव है। जैसे-नौका में पड़े हए सूक्ष्म छिद्रों के द्वारा जल का प्रवेश होने पर जैसे नौका समुद्र में डूबती है, वैसे ही इधर भी हिंसादि छिद्रों के द्वारा जीव रूपी नौका में कर्म रूपी जल का प्रवेश हो जाने से जीव संसार रूपी समुद्र में डूबता है। इसलिए कर्म का आगमन वह प्रास्रव है। इतना ही नहीं किन्तु कर्म के आने के लिए जो हिंसादि मार्ग हैं, वे भी पासव कहे जाते हैं।
सारांश यह है कि जोव और अजीव का (यानो पुद्गल का) संयोग होने पर नूतन कार्माणवर्गणाओं के आने को आस्रव कहते हैं। अथवा जिन मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा कर्म आते हैं, उनको भी प्रास्रव कहते हैं। कर्मों के प्रात्मा में आने का द्वार ही पासव है। इसमें कर्म पुद्गलों यानी कार्माण वर्गणाओं का पाना वह द्रव्य प्रासव है और द्रव्य प्रास्रव में कारणभूत मन-वचन-काया की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति (यानी योग) वह भाव पासव है।
(४) बन्ध-जीवात्मा और कर्म के एकक्षेत्रावगाह को बन्ध कहते हैं । अर्थात् जीव-प्रात्मा के साथ कर्मपुद्गलों का क्षीरनीरवत् एकमेकरूप जो सम्बन्ध होता है, वह 'द्रव्यबन्ध' है तथा द्रव्य सम्बन्ध में कारणभूत जीव-प्रात्मा का अध्यवसाय परिणाम है, वह 'भावबन्ध' है।
(५) संवर-संवियते कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन सः संवरः शुभ या अशुभ कर्मों के न आने को अथवा आत्मा के जिन परिणामों के निमित्त से शुभाशुभ कर्मों का आना रुक जाय उसे संवर कहते हैं । या कर्म और उसका हेतु प्राणातिपातादि जो आत्म परिणाम द्वारा संवराय, रोका जाय उसे संवर कहते हैं । अर्थात्-जीव-आत्मा में आते हुए कर्मों को जो रोकता है वह संवर है। समिति-गुप्ति प्रादि द्रव्यसंवर है तथा द्रव्यसंवर से उत्पन्न होता हा जीवआत्मा का परिणाम या द्रव्यसंवर के कारणभूत जीव-प्रात्मा का परिणाम वह भावसंवर है। अथवा शुभाशुभ कर्मों का जीव-प्रात्मा में न आना वह द्रव्यसंवर है और द्रव्यसंवर में कारणरूप समिति-गुप्ति आदि भावसंवर है। सारांश यह है कि प्रास्रव का जो निरोध होता है, वह संवरतत्त्व है।