Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 99
________________ ११३० ] प्रथमोऽध्यायः के विवेचन ॥ केवलज्ञान का विषय समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों में है। जीव-पुदगलादिक समस्त मूल द्रव्य तथा उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायें इस ज्ञान का विषय हैं। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशिष्ट तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप विश्व के सभी पदार्थों को ग्रहण करता है। इतना ही नहीं, किन्तु वह सम्पूर्ण लोक और अलोक को भी विषय किया करता है। न तो इस ज्ञान से उत्कृष्ट कोई ज्ञान है और न तो ऐसा कोई पदार्थ या पर्याय है कि जो इस केवलज्ञान का विषय न बना हो। यह केवलज्ञान ज्ञानावरण कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से जीव-प्रात्मा में प्रकट होता है। इसलिए यह ज्ञान क्षायिक कहा जाता है । अन्य क्षायोपशमिक ज्ञानों में से कोई भी ज्ञान इस केवलज्ञान के साथ नहीं रह सकता। * यह ज्ञान एकाकी ही रहता है। इसीलिए इसको 'केवल' कहते हैं। * इस केवलज्ञान को इन्द्रिय, मन और आलोक-प्रकाश इत्यादि किसी भी बाह्य अवलम्बन या सहायक की अपेक्षा नहीं रहती है, इसीलिए इसको 'निरपेक्ष' कहा जाता है । * यह केवलज्ञान विश्व के समस्त द्रव्य-भावों का परिच्छेदक है, इसलिए इसको 'परिपूर्ण' कहते हैं। * यह केवलज्ञान विश्व के सर्व पदार्थों का ज्ञापक है, इसी से ही समस्त तत्त्वों का ज्ञान बोध होता है। इसीलिए इसको 'सर्वभावज्ञापक' कहते हैं। * जिस तरह यह केवलज्ञान एक जीव-प्रात्म पदार्थ को जानता है, उसी तरह सम्पूर्ण पर-पदार्थों को भी जानता है, इसीलिए इसको 'समग्र' कहा जाता है। * इस केवलज्ञान की किसी भी प्रकार से मतिज्ञानादिक क्षायोपशमिक ज्ञान से तुलना नहीं हो सकती है। इसलिए इसको 'असाधारण' कहते हैं । * यह केवलज्ञान, ज्ञानावरण आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाली कर्ममलदोषरूप अशुद्धियों से सर्वथा रहित है । इसलिए इसको 'विशुद्ध' कहा जाता है। * इस केवलज्ञान से लोक और अलोक का कोई भी अंश अपरिच्छिन्न नहीं है। इसलिए इसको 'लोकाऽलोकविषय' कहते हैं । * अगुरुलघुगुण के निमित्त से इस केवलज्ञान की अनन्तपर्यायों का परिणमन होता है। इसलिए इसको 'अनन्तपर्याय' कहा जाता है। अथवा-इस केवलज्ञान पर्याय की ज्ञेय स्वरूप पर्यायें अनन्त हैं। इसलिए भी इसको 'अनन्तपर्याय' कहते हैं। यद्वा-इस केवलज्ञान के अविभागपरिच्छेद अनन्त हैं। इसलिए भी इसको 'अनन्तपर्याय' कहते हैं । उक्त कथनों का सार यह है कि--यह पंचम केवलज्ञान अनन्त शक्ति और सम्पूर्ण योग्यता को धारण करने वाला होने से विश्वभर में सर्वथा अप्रतिम है। इस केवलज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और उनकी सर्व पर्यायें हैं। सारे विश्व में ऐसी कोई वस्तु-पदार्थ या कोई भाव-पर्याय नहीं है जिसे

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