Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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प्रथमोऽध्यायः
१।३२ ]
[ ६७ त्रीणि विपर्ययरूपेणापि भवन्ति । अतः एतानि अज्ञानरूपाणि जायन्ते। अत्राहतदेव ज्ञानमिति तदेवाज्ञानं मन्यते । ननु तदत्यन्तं विरुद्धमिति । कथम् ? अत्रोच्यते । एतेषां मिथ्यादर्शनज्ञानपरिग्रहाद् विपरीतमिति, तस्मादज्ञानानि भवन्ति एव । तद्यथा(१) प्रथमं मत्यज्ञानं, (२) द्वितीयं श्रुताज्ञानं, (३) तृतीयं अवधिज्ञानं विपरीतं विभङ्गज्ञानमिति । अर्थात्-त्रीणि अज्ञानानि विपरीतज्ञानानि सन्ति ॥ ३२ ।।
8 सूत्रार्थ-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन विपर्यय अर्थात् अज्ञान रूप भी होते हैं ।। ३२ ।।
विवेचन मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीनों ज्ञान विपर्यय भी हुमा करते हैं। अर्थात् ये तीनों ज्ञान अज्ञान रूप भी कहे जाते हैं। कारण कि जो ज्ञान से विपरीत हैं, उन्हीं को अज्ञान कहा जाता है। ये मत्यादि पाँचों ज्ञान चेतना शक्ति यानी प्रात्मशक्ति के पर्याय हैं। ये सभी अपनेअपने विषय-पदार्थ को यथार्थ रूप से प्रकाशित करते हैं, इसीलिए ज्ञान कहलाते हैं। इनमें पूर्व के मति, श्रुत और अवधि ये तीनों ज्ञान अज्ञान रूप भी होते हैं।
प्रश्न-ज्ञान प्रज्ञान रूप कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि ज्ञान और अज्ञान ये दोनों परस्पर विरोधी शब्द हैं। जैसे-शीत और उष्ण, छाया और ताप, तिमिर (अंधेरा) और प्रकाश। एक हो स्थान में ये विरोधी भाव नहीं रह सकते हैं। वैसे इधर भी मति, श्रुत और अवधि ये तीनों ज्ञान स्वविषय के बोधक हैं तो वे अज्ञान रूप कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर-यहाँ ज्ञान और अज्ञान को विवक्षा प्राध्यात्मिक दृष्टि से की है। इसलिए यहाँ अज्ञान का अर्थ ज्ञान का प्रभाव नहों, किन्तु विपरोत ज्ञान समझना। अर्थात--अलौकिक दृष्टि से ये तीनों पर्याय ज्ञान-स्वरूप हो हैं। इनको ज्ञान और अज्ञान दो स्वरूप से यहाँ कहा, यह संकेत केवल प्राध्यात्मिक शास्त्र-प्राध्यात्मिक ज्ञान का है । सम्यग्दृष्टिवन्त की अपेक्षा उक्त तीनों पर्याय ज्ञानरूप से माने गये हैं तथा मिथ्यादृष्टिवन्त की अपेक्षा इन तीनों पर्यायों को मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान रूप से माना है। विपरीत अवधि-मिथ्यादृष्टि जोव के अवधिज्ञान को ही विभंग कहा जाता है। अवध्यज्ञान और विभङ्गज्ञान दोनों ही पर्यायवाचक शब्द हैं। व्यवहार में ज्ञान के निषेध को अज्ञान कहते हैं। यह निषेध दो प्रकार का माना है। एक पर्युदासनिषेध और दूसरा प्रसह्यनिषेध । 'पर्युदासः सदृग्ग्राही, प्रसास्तुनिषेधकृत्' । अर्थात्-पर्युदास सदृग्ग्राही है और प्रसह्य निषेधकृत् है। जो समान अर्थ को ग्रहण करता है, उसको 'पर्युदास सदृग्ग्राही' कहा जाता है तथा जो सर्वथा निषेध अर्थात् अभाव अर्थ को प्रकट करता है, उसे 'प्रसह्यनिषेध' कहा जाता है। यहाँ पर ज्ञान के निषेध का अर्थ पर्यु दास है, प्रसह्य नहीं है। इसलिए अज्ञान का अर्थ ज्ञानोपयोग का अभाव नहीं है, किन्तु मिथ्यादर्शन सहचरित ज्ञान है ।
मिथ्यादर्शन का सहचारी ज्ञान वास्तविक तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकता है । जब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय होता है तब वस्तु-पदार्थ का यथार्थ बोध नहीं हो सकता,