Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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अति आवश्यकता है। प्रस्तुत में नय का ही विषय चल रहा है। विश्व में जितनी अपेक्षाएँ हैं, उतने ही नय हैं। अपेक्षाएँ अनन्त हैं, तो नय भी अनन्त हैं। ज्ञानी महापुरुषों ने सभी नयों का संक्षेप से सात नयों में समावेश किया है। वे हैं-(१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार, (४) ऋजुसूत्र, (५) साम्प्रत-शब्द, (६) समभिरूढ़ और (७) एवंभूत ।
नय का सामान्य लक्षण-विश्व में किसी भी वस्तु-पदार्थ का तथा उसके विषय का सापेक्षता से निरूपण करना या विचार करना, उसको नय कहते हैं। उसके संक्षेप से दो भेद हैं-(१) एक द्रव्याथिक नय, और (२) दूसरा पर्यायाथिक नय। विश्व की सभी वस्तुओं में समानता अथवा असमानता ये दो धर्म रहे हैं। इसलिए वस्तु मात्र उभयात्मक कहलाती है। किसी समय सामान्य अंश की तरफ और किसी समय विशेष अंश की तरफ मानव की बुद्धि प्रवाहित होती है। जो सामान्य विचार तरफ दष्टि जाती है, उसको 'द्रव्याथिक नय' कहते हैं तथा जो विशेष विचार तरफ दृष्टि जाती है, उसको 'पर्यायाथिक नय' कहते हैं। यह सामान्य विचारात्मक तथा विशेष विचारात्मक दृष्टि एक जैसी नहीं होती है, इसलिए उसके उत्तर भेद सात हैं, जिसमें द्रव्याथिकनय के तीन और पर्यायाथिकनय के चार भेद कहे हैं। यह दृष्टिविभाग गौण और मुख्य भाव की अपेक्षा से जानना चाहिए ।
नय के विशेष भेद-पूर्वकथित द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय को विचार-विमर्श श्रेणी में विभाजित करने से नय के अनेक भेद होते हैं। इसीलिए तो 'विशेष आवश्यक भाष्य' में कहा है कि-'जावन्तो वयरणपहा तावन्तो वा नय विसद्धानो।' (गाथा २२६५) सामान्य दृष्टि वालों के लिए इन सभी का अवबोध अग्राह्य है, इसलिए उनको सुखपूर्वक अवबोध कराने के कारण द्रव्यार्थिकनय के तीन भेद तथा पर्यायाथिकनय के चार भेद किये हैं।
(१) नैगमनय—जो विचार लौकिक रूढ़ि से अथवा लौकिक संस्कार के अनुसरण से उत्पन्न होता है, उसे 'नैगमनय' कहा जाता है। अर्थात्-जो वस्तु-पदार्थ के सामान्य विशेष या भेद-अभेद को ग्रहण करने वाला है, उसको या संकल्प मात्र से वस्तु-पदार्थ के ग्रहण करने को नैगमनय कहते हैं । जैसे-श्री अरिहन्त परमात्मा को सिद्ध भगवन्त कहना। श्री आचार्य महाराज को उपाध्याय महाराज कहना। मिट्टी के घड़े को भी घी का घड़ा कहना ।
(२) संग्रहनय-विवक्षित वस्तू-पदार्थ में भेद नहीं करके किसी भी सामान्य गुण-धर्म की अपेक्षा से अभेद रूप से किसी भी वस्तू-पदार्थ को ग्रहण किया जाय, उसे 'संग्रहनय' कहा जाता है। अर्थात-जो एकवचन, एक अध्यवसाय अथवा एक उपयोग से एक साथ ग्रहण या अवबोध किया जाय, अथवा जो वाक्य समुदाय अर्थ को ग्रहण करता है उसको संग्रहनय कहते हैं। जैसे-जीवत्व (सामान्य धर्म) की अपेक्षा से ये जीव हैं, ऐसा जानना या कहना।
(३) व्यवहारनय-जो संग्रह नय से गृहीत सामान्य विचारात्मक वस्तु-पदार्थ को व्यावहारिक प्रयोजनानुसार विभाजित करता है, उसे 'व्यवहारनय' कहते हैं। अर्थात्-जो संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किए हुए विषय में भेद को ग्रहण करता है, उसे 'व्यवहारनय' कहा जाता है। जैसे जीवद्रव्य में संसारी और मुक्त का भेद करके एक भेद को ग्रहण करना। अथवा फिर संसारी में से भी नरकादि चार गतियों की अपेक्षा से किसी एक भेद को ग्रहण करना, सो व्यवहारनय है। उक्त नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों नय द्रव्याथिक कहलाते हैं।