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श्री उमास्वातिंजी विरचितं
श्री तल्वार्थाधिगम
• सुबोधिका टीका तथा हिन्दी विवेचनामृत
कर्त्ता. आचार्य श्री विजय सुशील सूरि :
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जीवन -झलक
जन्म- वि.सं. १९७३, भाद्रपद शुक्ला द्वादशी, चाणस्मा (उत्तर गुजरात) २८-९-१७
दीक्षा- वि.सं. १९८८, कार्तिक (मृगशीर्ष) कृष्णा २, उदयपुर (राज. मेवाड़) २७-११-३१ गणि पदवी- वि.सं. २००७, कार्तिक (मृगशीर्ष) कृष्णा ६, वेरावल (गुजरात) १-१२-५० पंन्यास पदवी- वि.सं. २००७, वैशाख शुक्ला ३ (अक्षय तृतीया) अहमदाबाद (गुजरात) ९-५-५१
उपाध्याय पव- वि.सं. २०२१, माघ शुक्ला ३, मुंडारा (राजस्थान) ४-२-६५
आचार्य पद- वि.सं. २०२१, माघ शुक्ला ५ (वसंत पंचमी) मुंडारा ६-२-६५
पूज्यपाद श्री प. पू. सूरिचक्रचक्रवर्ती आचार्यदेव श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टालंकार साहित्य-सम्राट् आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी म.सा के पट्टविभूषण कविदिवाकर आचार्यवर्य श्रीमद् विजय दक्षसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर हैं जो परम तपस्वी महाकवि तथा लोकनायक हैं और जगत्-कल्याण के लिए सतत जागरूक हैं। आप भगवान् महावीर के अहिंसामृत को पिलाने हेतु ६० वर्षों से घर-घर, नगर-नगर और ग्राम ग्राम पैदल विहार कर रहे हैं। आपकी सौम्यता की उपमा अमृत-निर्झर से दी जाती है। शीतलता के तो मानों आप हिम सरोवर हैं और विराटता की तुलना हिमगिरि से देना उपयुक्त होगा। आपने राजस्थान की मरुभूमि को ज्ञान गंगा से प्रवाहित करने हेतु इसे ही अपनी कर्मभूमि बनाया (शेष अन्तिम फ्लैप पर)
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ॐ श्रीनेमि-लावण्य-दक्ष-सुशील ग्रन्थमालारत्न ८१ वा ॥
पूर्वधर-परमर्षि-सुप्रसिद्ध श्रीउमास्वातिवाचक-प्रवरेण
विरचितम् ॐ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ॥
[ प्रथमोऽध्यायः ]
- तस्योपरि - शासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति-महाप्रभावशालि-परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकारसाहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद-कविरत्न-परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर-शास्त्रविशारद - कविदिवाकरव्याकरणरत्न-परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वराणां सुप्रसिद्धपट्टधरशास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषणेतिपदसमलङ्कृतेन प्राचार्यश्रीमद्विजयसुशीलसूरिणा
- विरचिता - 'सुबोधिका टोका' एवं तस्य सरल हिन्दीभाषायां 'विवेचनं'.
* प्रकाशक * श्री सुशील साहित्य-प्रकाशन समिति C/0 संघवी श्री गुणदयालचन्द भण्डारी राइका बाग, मु. जोधपुर (राजस्थान)
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KHAMMARNINM MMMMMM * सम्पादकः
* सत्प्रेरकः * जैनधर्मदिवाकर-शासनरत्न-तीर्थप्रभावक
पूज्यवाचकश्रीविनोदविजयजीगणिवर्यः राजस्थानदीपक-मरुधरदेशोद्धारक
तथा परमपूज्य आचार्यदेव
पूज्यपंन्यासश्रीजिनोत्तमश्रीमद्विजयसुशीलसूरिः
विजयजी-गणिवर्यः।
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श्रीवीर सं. २५१८
प्रतियाँ १०००
विक्रम सं. २०४८
प्रथमावृत्तिः
नेमि सं. ४३ मूल्यम्-२५) रूप्यकाणि
ॐ द्रव्यसहायक: ) अष्टोत्तरशतग्रन्थसर्जक-पञ्चप्रस्थानमयसूरिमन्त्रसमाराधक-एकशतैकजिनमन्दिरप्रतिष्ठाकरक - परमपूज्याचार्यदेव - श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वराणां सदुपदेशात् * द्रव्यसहायकः करमावास (धर्मावास) श्रीश्वेताम्बरजैनसंघः [राजस्थान
法就我我我我我我我我我我我我我我我我我我:我我我我我我我我我*
' प्राप्ति-स्थानम् )
प्राचार्यश्री सुशीलसूरि जैनज्ञानमन्दिर शान्तिनगर, सिरोही (राजस्थान)
[ २ ] श्री नेमिनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ अम्बाजीनगर, फालना (राजस्थान)
श्री करमावास जैनसंघ पेढ़ी, करमावास, (राजस्थान)
* मुद्रक * . २१४३५ ताज प्रिन्टर्स, जोधपुर (राजस्थान) XNXX
र २१८५३
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+ समर्पण
विश्ववन्ध-विश्वविभु-चरमतीर्थंकर श्रमणभगवान महावीर परमात्मा के विद्यमान जैनशासन में तथा उन्हीं के पंचम गणधर-श्रुतकेवली श्रीसुधर्मास्वामीजी की सुविहित पट्टपरम्परा के ७४ वें पाटे आये हुए शासनसम्राटसूरिचक्रचक्रवत्ति - तपोगच्छाधिपति-भारतीयभव्यविभूति-महान्प्रभावशालि - अखण्डब्रह्मतेजोमूर्ति-चिरन्तनयुगप्रधानकल्प - वचनसिद्धमहापुरुष-श्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक - श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपतिप्रतिबोधक - प्रातःस्मरणीय-परमोपकारी-परमगुरुदेव-परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरजी म. श्री को तथा ७५ वें पाटे आये हुए उन्हीं के दिव्यपट्टालंकारसाहित्यसम्राट् - व्याकरणवाचस्पति - शास्त्रविशारद - कविरत्न-साधिकसप्तलक्ष श्लोकप्रमाणनूतन-संस्कृतसाहित्यसर्जक - परमशासनप्रभावक - निरुपमव्याख्यानामृतवर्षी - बालब्रह्मचारी - परमोपकारी - प्रगुरुदेव - परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वरजी म. श्री को एवं उन्हीं के ७६ वें पाटे आये हुए उन्हीं के प्रधानपट्टधर-धर्मप्रभावक-शास्त्रविशारद - कविदिवाकर - व्याकरणरत्नपरमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वरजी गुरु महाराजश्री को कृतज्ञभाव से यह 'अनुपम ग्रन्थ' सविनय....सादर....सबहुमान समर्पित
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-प्राचार्यविजयसुशीलसूरि
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* प्रकाशकीय निवेदन ॐ
पूर्वधर महर्षि परमपूज्य वाचकप्रवर श्रीउमास्वातिजी महाराज एक महान् संग्राहक तरीके सुप्रसिद्ध थे। इनके सम्बन्ध में कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजश्री ने भी अपने 'श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक व्याकरण ग्रन्थ में उत्कृष्टेऽनूपेन ॥२।१।३६ इस सूत्र की वृत्ति में 'उपोमास्वाति सङ्ग्रहीतारः' इस तरह उदाहरण रखकर सर्वोत्कृष्ट संग्राहक तरीके कहे हैं। ऐसे सर्वोत्कृष्ट संग्राहक पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज विरचित यह 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' यानी 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमशास्त्र' सुन्दर ग्रन्थ है।
यह एक ही ग्रन्थ सांगोपांग श्रीअर्हद्दर्शन-जैनदर्शन के जीवादि तत्त्वों का ज्ञान कराने में अति समर्थ है। इस महान् ग्रन्थ पर भाष्य, वृत्ति-टीका तथा विवरणादि विशेष प्रमाण में उपलब्ध है तथा विविध भाषाओं में इस पर विपुल साहित्य रचा गया है; जो मुद्रित और अमुद्रित भी है।
१०८ ग्रन्थों के सर्जक समर्थ विद्वान् परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरजी म. श्री ने भी इस तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर प्रकाशित हुए संस्कृत-प्राकृत-हिन्दीगुजराती आदि ग्रन्थों का अवलोकन कर और उन्हीं का पालम्बन लेकर सरल संस्कृत भाषा में संक्षिप्त सुबोधिका टीका रची है तथा सरल हिन्दी भाषा में अर्थयुक्त विवेचनामृत अतीव सुन्दर लिखा है। तदुपरान्त 'सम्बन्धकारिका' की संस्कृत टीका, हिन्दी सरलार्थ और हिन्दी पद्यानुवाद भी किया है। इस ग्रन्थ के सर्जक पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वाति म. का संक्षिप्त जीवन-परिचय भी अपने 'प्राक्कथन' में लिखा है । यह सब प्रकाशित करते हुए हमें अतिप्रानंद का अनुभव हो रहा है ।
पूज्यपाद आचार्य म. श्री को इस ग्रन्थ की सुबोधिका टीका, विवेचनामृत तथा सरलार्थ बनाने की सत् प्रेरणा करने वाले उन्हीं के पट्टधर-शिष्यरत्न पूज्य उपाध्याय श्री विनोद विजय जी गणिवर्य म. तथा पूज्य पंन्यासश्री जिनोत्तम विजय जी गरिणवर्य म. हैं।
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( ५ )
इस ग्रन्थ का सुन्दर 'प्रास्ताविकम्' पं. हीरालाल जी शास्त्री, एम. ए. संस्कृत व्याख्याता, जालोर ने लिखा है, एतदर्थ हम आपके बहुत आभारी हैं ।
हरजी निवासी पण्डित गोविन्दराम जी व्यास के भी हम प्राभारी हैं, जिन्होंने संस्कृत भाषा में प्रस्तुत ग्रन्थ का सुन्दर पुरोवचः लिखा है ।
हमें इस ग्रन्थ को शीघ्र प्रकाशित करने की सत् प्रेरणा देने वाले भी उपाध्याय जी म. और पंन्यासजी म. हैं ।
ग्रन्थ के स्वच्छ, शुद्ध एवं निर्दोष प्रकाशन का कार्य डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी की देख-रेख में सम्पन्न हुआ है । परमपूज्यपाद प्राचार्य म. सा. की आज्ञानुसार हमारे प्रेस सम्बन्धी प्रकाशन कार्य में सहकार देने वाले जोधपुर निवासी श्री सुखपालचन्द जी भंडारी, संघवी श्री गुणदयालचन्द जी भंडारी, श्री मंगलचन्द जी गोलिया, श्री मोतीलाल जी पारेख तथा श्री प्रकाशचन्द जी हैं ।
इन सभी का हम हार्दिक आभार मानते हैं । यह ग्रन्थ चतुर्विध संघ के सभी तत्त्वानुरागी महानुभावों के लिए तथा जैनधर्म में रुचि रखने वाले अन्य तत्त्वप्रेमियों के लिए भी अति उपयोगी सिद्ध होगा, इसी आशा के साथ यह ग्रन्थ स्वाध्यायार्थ आपके हाथों में प्रस्तुत है ।
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प्रास्ताविकम् ।
संसारोऽयं जन्ममरणस्वरूप-संसरणभवान्तरभ्रमणायाः विन्ध्याटवीव घनतमिस्रावृत्तादर्शनतत्वा भ्रमणाटवी। कर्मक्लेशकर्दमानुविद्धेऽस्मिन् जगतीच्छन्ति सर्वे कर्मक्लेशकर्दमैः पारं मोक्षायाहनिशम् गन्तुम् । कथं निवृत्तिः दुखैः ? कथं प्रवृत्तिः सुखेषु च ? जिज्ञासयानया तत्त्वदर्शिनः मथ्नन्ति दर्शनागमसागरं तत्त्वामृतप्राप्तये त्रिविष्टपरिवात्र।
श्रीजैनश्वेताम्बर-दिगम्बरसम्प्रदाये श्रीमदुमास्वातिरपि अजायत महान् वाचकप्रवरः येन तत्त्वचिन्तने कृत्वा भगीरथश्रमञ्चाविष्कृतममृतं, भव्यदेवानां कृते मोक्षायात्र। उमास्वातिस्तत्त्वार्थाधिगम-सूत्राणां रचयितासीत् । यो हि वाचकमुख्यशिवश्रीनां प्रशिष्यः शिष्यश्च घोषनन्दिश्रमणस्य। एवञ्च वाचनापेक्षया शिष्यो बभूव मूलनामकवाचकाचार्याणाम् । मूलनामकवाचकाचार्यः महावाचकश्रमणश्रीमुण्डपादस्य शिष्यः आसीत् ।
न्यग्रोधिकानगरमपि धन्यं बभूव वाचकश्रीउमास्वातेः जन्मना। स्वगतिः नाम्नः पितापि उमास्वातिः सदृशं पुत्ररत्नं प्राप्य स्वपूर्वपुण्यफलमवापेह। धन्या जाता वात्सीजननी । उमास्वातिः स्वजन्मनाऽलंचकार कौभीषणी गोत्रम् नागरवाचकशाखाञ्च ।
स्थाने-स्थाने विहरतोऽयं महापुरुषः कृतगुरुक्रमागतागमाभ्यासः कुसुमपुरनगरे रचयामास ग्रन्थोऽयं तत्त्वार्थाधिगमभाष्यः । ग्रन्थोऽयं रचितवान् स्वान्तसुखाय प्राणिमोक्षाय कल्याणाय च ।
तेन महाभागेन तत्त्वार्थाधिगमसूत्रेषु स्पष्टीकृतं यज्जीवाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपूर्वकं वैराग्यं यावन्नवाधिगच्छन्ति संसारशरीरभोगाभ्यां तावन्मोक्षसिद्धिः दुर्लभाः ।
सम्यग्दर्शनाभावे ज्ञानवैराग्येऽपि दुष्प्राप्ये । जीवानां जगति क्लेशाः कर्मोदयप्रतिफलानि जायन्ते । जीवानां कृत्स्नं जन्म जगति कर्मक्लेशैरनुविद्धः । भवेच्चानुबन्धपरंपरेति तत्त्वार्थाधिगमे विश्लेषितमस्ति । कर्मक्लेशाभ्यामपरामृष्टावस्था एव सत्स्वरूपं सुखस्य । पातञ्जलयोगदर्शनेऽपि "क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषः विशेषः ईश्वरः" जैनदर्शने तु इदमप्येकान्तिकम् यत् पातञ्जलिना पुरुषजीवं ज्ञानस्वरूपं वा सुखस्वरूपं नैवामन्यत । किन्तु जैनदर्शने तु जीवः ज्ञानस्वरूपश्च सुखस्वरूपश्चापि क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टावस्थायाः धारको विद्यते। निर्दोषमेतदेव सत्यमुपादेयञ्च ।
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७)
तत्त्वार्थाधिगमे दशाध्यायाः सन्ति येषु विशदीकृतं व्याख्यातञ्च जैनतत्त्वदर्शनम् । तत्त्वार्थाधिगमस्य प्रथमाध्यायस्य संस्कृत हिन्दी भासाया व्याख्यायितोऽयं ग्रन्थः विद्वमूर्धन्याचार्यः श्रीविजय सुशीलसूरीश्वर महोदयैः श्रतीवोपादेयत्वं धार्यते । जैनदर्शनसाहित्ये शताधिकग्रन्थानां रचयिता श्रीमद्विजयसुशील सूरीश्वरः दर्शनशास्त्राणां प्रतीवमेधावी विद्वान् वर्तते ।
-
उर्वरीक्रियतेऽनेन भवमरुधराऽखिलमण्डलम् । जिनशासनञ्च स्वतपतेज - व्याख्यानलेखन - पीयूषधारा जीमूतमिव श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरेण प्रथमेऽध्याये मोक्षपुरुषार्थसिद्धये निर्दोषप्रवृत्तिश्च तस्या जघन्यमध्यमोत्तरस्वरूपं विशदीकृतमस्ति —
( 9 ) देवपूजनस्यावश्यकता तस्य फलसिद्धिः ।
( २ ) सम्यग्दर्शनस्य स्वरूपं तथा तत्त्वानां व्यवहारलक्षणानि । (३) प्रमाणनयस्वरूपस्य वर्णनम् ।
( ४ ) जिनवचनश्रोतॄणां व्याख्यातृणाञ्च फलप्राप्तिः । (५) ग्रंथव्याख्यानप्रोत्साहनम् ।
(६) श्रेयमार्गस्योपदेश: सरलसुबोधटीकया विवक्षितः ।
अस्य ग्रंथस्य टीका प्राचार्यप्रवरेण समयानुकूल - मनोवैज्ञानिक - विश्लेषरणेन महती प्रभावोत्पादका कृता । प्राचार्यदेवेन तत्त्वार्थाधिगमसूत्रसदृशः क्लिष्ट विषयोऽपि सरलरीत्या प्रबोधितः । जनसामान्यबुद्धिरपि जनः तत्त्वविषयं श्रात्मसात्कर्तुं शक्नोति । अस्मिन् भौतिकयुगे सर्वेऽपि भौतिकैषणाग्रस्ता मिथ्यासुखतृष्णायां व्याकुलाः मृगो जलमिव भ्रमन्ति आत्मशान्तये । आत्मशान्तिस्तु भौतिक सुखेषु असम्भवा । भवाम्भोधिपोतरिवायं ग्रन्थः मोक्षमार्गस्य पाथेयमिव सर्वेषां तत्त्वदर्शनस्य रुचि प्रवर्धयति । आत्मशान्तिस्तु तत्त्वदर्शनाध्ययनेनैव वर्तते न तु भौतिकशिक्षया । एतादृशी सांसारिकीविभीषिकायां प्राचार्यमहोदयस्यायं ग्रन्थः संजीवनीवोपयोगित्वं धार्यते संसारिणाम् । ज्ञानजिज्ञासुनां कृते ग्रन्थोऽयं शाश्वतसुखस्य पुण्यपद्धतिरिव मोक्षमार्ग प्रशस्तिकरोति ।
_suit प्रथमोऽध्यायः पाठकाः स्वजीवनं ज्ञानदर्शनचारित्रमयं कृत्वाऽनुभविष्यन्ति पूर्वशान्तिमिति शुभम् ।
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा बुधवार, १८-३-१६६२ जालोर (राजस्थान )
- पं. हीरालाल शास्त्री, एम. ए. व्याख्याता संस्कृत
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पुरो-वचः ।
भारतीय - वाङ्मयता, निखिलागम - पारावार - निसर्ग-निष्णात-पुनीतानां ज्ञेयमहर्षीणां विद्याविभूति-विभव-विशेषज्ञानां सूत्रकाराणां महती सम्पदामयी-सारगर्भिताप्रशस्तिर्वरीवर्तते ।
भारतीय वाङ्मयता तपःपूत - महर्षीणां विद्या - विभूतिः श्री: सुवरीवर्तते । स्वाध्यायनिष्णात-निपुणानां सन्निधिः अस्ति । काले-कालेऽस्मिन् वाङ्मये सूत्रकाराः समभवन् । ये सूत्रकारत्वेन वाङ्मयसेवां कुर्वन्तः स्वयं कृतज्ञाः सुजाताः। सूत्रयुगस्य शुभारम्भो वैदिकवाङ्मयेषु, श्रमणवाङ्मयेषु, बौद्धवाङ्मयेषु परिष्कृतश्चवर्तते ।
निर्ग्रन्थनिगमागमविद् वाचकवरेण्यः श्रीउमास्वातिः स्वनामधन्यः सूत्रकारत्वेन संप्रसिद्धः समभूत् । पाटलीपुत्रपृथिव्यां श्रामण्यभावेन स्वयं समलंकृतवान् । तत्रैव "तत्त्वार्थसूत्र" रचितवान् । सूत्रमेतत् श्रामण्यपरिभाषां परिष्कतुं पर्याप्तम् । प्रस्य सूत्रस्य निर्ग्रन्थमहाभागैः श्लाघनीया श्लाघा प्रस्तुता। यद्यपि सूत्रकारः स्वयं श्वेताम्बरत्वेन परिचयं स्वोपज्ञभाष्ये दत्तवान् । श्वेताम्बर-निर्ग्रन्थनिगमागमाम्नाये देववाण्यां सूत्रकारत्वेन सर्वप्रथम संबभूव वाचकाग्रणीः प्रमुखः श्री उमास्वाति महाभागः । अयमेव महाभागः श्रोउमास्वातिः प्रायः दिगम्बरपरम्परायां श्रीकुन्दकुन्दमहाशयस्य शिष्यत्वेन श्रीउमास्वामीत्याख्यया प्रचलितः अस्यैव महाविदुषः "श्रीतत्त्वार्थसूत्र" सर्वप्रशस्तिपात्रं वर्तते ।
"तत्त्वार्थसूत्रस्य" आद्यः सर्वार्थसिद्धिटीकाकारः श्रीपूज्यपाददेवनन्दी महामतिः संजातः । तदनन्तरं तत्त्वार्थस्य तारतम्यदर्शी श्रीअकलंकः प्रमेयविद्याविलक्षणः दिगम्बरश्रमणशाखासु राजवातिककारत्वेन संप्रसिद्धः सुधीः प्रतिष्ठितः । दशम्यां शताब्द्यां विद्याचणः श्रीविद्यानन्दी श्लोकवातिककारत्वेन "तत्त्वार्थसूत्रस्य" व्याख्याता जातः । अनेनैव महाशयेन महामीमांसकस्य श्रीकुमारिलमहाभागस्य वैदुष्यं आहद्-विद्याविमर्शदार्शनिक-तुलासु तोलितम् । 'पुनः श्रुतसागराख्यः निर्वसननिर्ग्रन्थः प्रज्ञापुरुषः श्रीतत्त्वार्थसूत्रस्य वृत्तिकारः समयश्रेण्यां जातः ।
इत्थं दिगम्बरवृन्देषु विबुधसेन-योगीन्द्र-लक्ष्मीदेव-योगदेवाभयनन्दि - प्रमुखाः सुधयः श्रीतत्त्वार्थसूत्रस्य तलस्पशिनः संजाताः ।
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(६) श्वेताम्बर - वाङ्मये तत्त्वार्थसूत्रमनुसृत्य विविधास्टीकाः विद्यन्ते । अस्यैव सूत्रस्योपरि महामान्य-श्रीउमास्वातिमहाशयस्य स्वोपज्ञं भाष्यं वर्तते । तस्मिन् भाष्यग्रंथे आत्मपरिचयं प्रदत्तवान् स्वयंश्रीवाचकवरेण्यः ।
वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण
घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः ।। १ ॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपाद - शिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्य - मूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥ २ ॥ न्यग्रोधिका - प्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कौभीषणिना स्वातितनयेन वात्सी - सुतेनाय॑म् ।। ३ ।। अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखातं च दुरागम - विहतमतिं लोकमवलोक्य ।। ४ ।। इदमुच्चैर्नागर - वाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ।। ५ ।। यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तथोक्तम् । सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ।। ६ ।।
श्रीतत्त्वार्थकारः सुतश्चासीत् वात्सीमातुः। स्वातिजनकस्य पुत्रश्च । उच्चनागरीय शाखायाः श्रमणः न्यग्रोधिकायां समुत्पन्नः । गोत्रेण कौभीषणिश्चासीत् । पाटलीपुत्रनगरे रचितवान् सूत्रमिमं ।
श्रामण्यव्रतदाता घोषनन्दी, प्रज्ञापारदर्शी श्रुतशास्त्रे-एकादशाङ्गविदासीत् । विद्यादातृ णां गुरुवराणां वाचकविशेषानां मूलशिवश्रीमुण्डपादप्रमुखानां श्लाघनीया परम्परा विद्यते। पुरातनकाले विद्यावंशस्य सौष्ठवं समीचीनं दृश्यते। तत्त्वार्थकारः श्रीउमास्वाति विद्यावंशविशिष्टविज्ञपुरुषः प्रतिभाति ।
तत्त्वार्थस्य टोकाकारः "श्री सिद्धसेनगणि” “गन्धहस्ती" इत्याख्यया प्रसिद्धिमलभत् । अयमेव सिद्धसेनगणि मल्लवारिनः नयचक्रग्रन्थस्य टीकाकारस्य श्रीसिद्धसूरस्यान्वयेऽभूत् ।
___ अपरश्च टीकाकारः श्रीयाकिनीसूनुः श्रीहरिभद्र-महाभागः, अयमेव हरिभद्रसूरिः तत्त्वार्थस्य लघुवृत्तिटीकां पूर्णां न चकार । यशोभद्रेण पूर्णा कृता।
उपांगटीकाकारेण श्रीमलयगिरिणा "प्रज्ञापना"वृत्तौ चोक्तम्-तच्चाप्राप्तकारित्वं तत्त्वार्थटीकादौ सविस्तरेण प्रसाधितमिति ततोऽवधारणीयं ।।
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सम्प्रति मलयगिरिमहाशयस्य टीका न समुपलभ्यते। महामहोपाध्यायेन श्रीयशोविजयवाचकेन तत्त्वार्थ - भाष्यस्य टोका रचितासीत् । सा टोकापि स्खलिता वर्तते ।
तत्त्वार्थस्य रचनाशैली रम्या हृदयंगमा च, अस्यैव ग्रन्थस्य सौम्यस्वरूपेगा तपस्विना श्रीसुशीलसूरिमहाभागेन टीका नवीना रचिता। अयमेव सूरिमहोदयः स्वाध्यायनिष्ठः सुज्ञः सर्वथा तपसि ज्ञाने च नितरां निमग्नः वर्तते ।
सूरिपुंगवानां श्रुतशास्त्रीयां भक्ति पुरस्कृत्य मया किमपि लिखितमस्ति । नितरां शास्त्ररसस्नातनिष्णाताः भूत्वा भूयोभूयः स्वाध्यायसमुत्कर्ष समुन्नतं कतु लेखनी च लोकोत्तरहितैषिणीं विदधातु विधिज्ञाः सूरिवराः सुतरां भूयासुः । प्रात्मलेखनाचात्मलेखिनी स्वात्महस्तगता सुशोभते सर्वथा सर्वेषां ।
इदं तत्त्वार्थसूत्रं श्रुतसिद्धान्तनिष्पन्नं, संसारक्षयकारणं, मुमुक्षणां चात्मपथपाथेयं सदार्हत्पादपीयूषं ज्ञानदर्शनचारित्रलालिते स्वाध्याय-तपः-समाधिविभूषितं, प्रमेयप्रकाशपुजं पुरातनीपावनी-देववाणी-दुन्दुभिरूपं, शब्दब्रह्मपांचजन्यं, गुरुसेवासमुपलब्धसौष्ठवतन्यं, यः कश्चित्, समुचितां श्रमणसंस्कृति ज्ञातुकामः सः शुद्धचेतसा च सुमेधया सततं पठेत्-पाठयेत् चैनं सूत्रं ।
सूत्रमेतत् शास्त्रज्ञनिष्ठानां नियामक, निर्ग्रन्थसिद्धान्तसारकलितं निगमागमन्यायनिर्मथितम् । विद्याविवेक-शौर्य-धैर्य-धनम् । नित्यं सेव्यं ध्येयं परिशीलनीयं च।
अजस्रमभ्यासमुपेयुषा विद्यावता सूत्रकारेण प्रात्मनः स्मृतिपटलात् पटीयांसं शिक्षासंस्कारसमभिरूढं गोत्रगौरवं न त्यक्त। यद्यपि जातिकुलवित्तमदरहितं श्रामण्यं स्वीकृतं।
सूत्रकारस्य महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते-यथा-"निःशल्यो व्रती" या व्रतत्ववृत्तिता सा निःशल्यतायुक्ता स्यात् । यस्य शल्यत्वं छिन्नं तस्य श्रामण्यं संसिद्धं । इत्थमनेकैः सूत्रः स्वात्मनः सुधीत्वं साधितं ख्यापितं च । इति निवेदयति
महाशिवरात्रि : २ मार्च, १९६२ हरजी
श्रीविद्यासाधकः पं. गोविन्दरामः व्यासः
हरजी-वास्तव्यः
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[ १ ] जगत् में जिनका अनुपम पुण्यप्रभावसाम्राज्य सदा विजयवन्त प्रवर्त्त रहा है ऐसे जैनशासन के सम्राट् परमोपकारी प्रातःस्मरणीय परमगुरुदेव परमपूज्य आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. का मैं परम आभारी हूँ जिनकी पावन निश्रा में वि. सं. १९८८ महा सुद पंचमी (वसन्त पञ्चमी) के दिन गुजरात के श्री सेरीसा तीर्थ में मेरी उपस्थापना यानी बड़ी दीक्षा महोत्सव पूर्वक हुई थी। तथा जिन्होंने संयम के पवित्र पथ में प्रतिदिन मेरी आत्मा को ज्ञान-ध्यानादिक में और आध्यात्मिक प्रगति-प्रवृत्ति में आगे बढ़ाया। आज भी मेरे जीवन के प्रत्येक कार्य में अदृश्य रूप में उन्हीं की असीम कृपा काम कर रही है और मुझ पर सदा शुभाशिष बरसा रही है।
[ २ ] परमपूज्य शासनसम्राट् के दिव्यपट्टालङ्कार-साहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पतिशास्त्रविशारद-कविरत्न-साधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक-परमशासनप्रभावक-परमोपकारी-प्रगुरुदेव-परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद् विजय लावण्य सूरीश्वरजी म.सा. का मैं चिर ऋणी हूँ जिनकी शुभनिश्रा में वि. सं. १६८८ कात्तिक (मगसर) बद द्वितीया के दिन मेवाड़ के श्री उदयपुर नगर में मेरी भागवती-दीक्षा हुई थी। तथा वि.सं. २००७ कात्तिक (मगसर) वद ६ के दिन गुजरात-सौराष्ट्र के श्री वेरावल नगर में महामहोत्सवपूर्वक गरिगपदवी पू. मुनिप्रवर श्री दक्षविजयजी गुरु महाराज के साथ मेरो भो हुई थी। वि. सं. २००७ वैशाख सुद ३ (अक्षयतृतीया) के दिन राजनगरअहमदाबाद में परमपूज्य शासनसम्राट् समुदाय के
(१) प. पू. आ. श्रीमद् विजय दर्शनसूरीश्वरजी म. सा. (२) प. पू. आ. श्रीमद् विजय उदयसूरीश्वरजी म. सा. (३) प. पू. प्रा. श्रीमद् विजय नन्दनसूरीश्वरजी म. सा.
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(४) प. पू. आ. श्रीमद् विजय विज्ञानसूरीश्वरजी म. सा. (५) प. पू. आ. श्रीमद् विजय पद्मसूरीश्वरजी म. सा. (६) प. पू. प्रा. श्रीमद् विजय अमृतसूरीश्वरजी म. सा. (७) प. पू. प्रा. श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी म. सा. (८) प. पू. आ. श्रीमद् विजय कस्तूरसूरीश्वरजी म. सा.
उपर्युक्त आठ प्राचार्य-भगवन्तों के सान्निध्य में भव्य समारोह में १५ गणिवरों को पंन्यास पद प्रदान किया गया था। उनमें गणिवर्य श्री दक्षविजयजी महाराज भी थे और मैं भी सम्मिलित था।
मेरे संयमी जीवन की नौका के सुकानी ऐसे परमोपकारी परमपूज्य प्रगुरुदेव प्राचार्यप्रवर श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी म. सा. ने मुझे ४५ आगमों के योगोद्वहन विधिपूर्वक कराये, व्याकरण-न्याय-साहित्य-आगमशास्त्रादिक का अध्ययन कराया, वि. सं. १९८८ साल से लगाकर वि. सं २०२० फागण (चैत्र) वद ६ के दिन (खिमाड़ा गाँव में पण्डितमरणे समाधिपूर्वक कालधर्म पाकर स्वर्ग सिधाये वहाँ) तक मुझे अपने साथ ही रखा और प्रतिदिन शासनप्रभावना के प्रत्येक प्रतिष्ठादि शुभ कार्यों में प्रोत्साहन देकर आगे बढ़ाया। आज भी मेरे जीवन के प्रत्येक कार्य में अदृश्यरूपेण उन्हीं की असीम कृपा काम कर रही है और मुझ पर सर्वदा शुभाशिष बरसा रही है ।)
[३] प. पू. साहित्यसम्राट् के प्रधानपट्टधर-धर्मप्रभावक-शास्त्रविशारद-कविदिवाकरव्याकरणरत्न-स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेकग्रन्थसर्जक-देशनादक्ष-वडीलबन्धु पूज्यपाद प्राचार्य गुरु महाराज श्रीमद् विजय दक्षसूरीश्वरजी म. सा. का मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूँ जिन्होंने वि. सं. २०२१ महा सुद तीज के दिन राजस्थान-मारवाड़ के मुडारा गाँव में ६१ छोड़ के उद्यापनयुक्त महामहोत्सव में मुझे उपाध्याय पद तथा महा सुद पंचमी (वसन्त पञ्चमी) के दिन प्राचार्य पद प्रदान किया और साथ में शास्त्रविशारद, साहित्यरत्न एवं कविभूषण की पदवी से भी समलङ्कृत किया।
मैं इन सभी महान् विभूतियों परम पूज्य गुरुदेवों का परम ऋणी हूँ और इनके अनुग्रह का आकांक्षी भी।
-प्राचार्य विजय सुशीलसूरि
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प्राक्कथन
पूर्वधर - वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज
* वन्दना
महर्षिणम् ।
जैनागम रहस्य, पूर्वधरं वन्देऽहं श्रीउमास्वाति, वाचकप्रवरं शुभम् ॥ १ ॥
अनादि और अनन्तकालीन इस विश्व में जैनशासन सदा विजयवन्त है । विश्ववन्द्य विश्वविभु देवाधिदेव श्रमण भगवान महावीर परमात्मा के वर्त्तमानकालीन जैनशासन में परमशासनप्रभावक अनेक पूज्य प्राचार्य भगवन्त आदि भूतकाल में हुए हैं । उन प्राचार्य भगवन्तों की परम्परा में सुप्रसिद्ध पूर्वधर महर्षि वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति महाराज का प्रतिविशिष्ट स्थान है ।
आपश्री संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे । जैन आगमशास्त्रों के और उनके रहस्य के असाधारण ज्ञाता थे । पञ्चशत [५०० ] ग्रन्थों के अनुपम प्रणेता थे, सुसंयमी और पंचमहाव्रतधारी थे एवं बहुश्रुतज्ञानवन्त तथा गीतार्थ महापुरुष थे 1 श्री जैन श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों को सदा सम्माननीय, वन्दनीय एवं पूजनीय थे और आज भी दोनों द्वारा पूजनीय हैं ।
ग्रन्थकर्त्ता का काल : पूर्वधर महर्षि वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज के समय का निर्णय निश्चित नहीं है, तो भी श्रीतत्त्वार्थसूत्रभाष्य की प्रशस्ति के पाँच श्लोकों में जो वर्णन किया है, वह इस प्रकार है
* भाष्यगतप्रशस्तिः
वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः, प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण
घोषनन्दि
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क्षमणस्यैकादशाङ्गविदः ॥ १ ॥
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१४ )
वाचनया च महावाचक-क्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्य-मूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥२॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन, विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कौभीषणिना स्वाति-तनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ॥ ३ ॥ अर्हद्वचनं सम्यगगुरु-क्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखातं च दुरागम-विहतमति लोकमवलोक्य ॥ ४ ॥ इदमुच्चै गरवाचकेन, सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं, स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥ ५॥ यस्तत्त्वाधिगमाख्यं, ज्ञास्यति च करिष्यते च तथोक्तम् ।। सोऽव्याबाधसुखाख्यं, प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥ ६ ॥
अर्थ-प्रकाशरूप है यश जिनका अर्थात् जिनकी कीत्ति जगद्विश्रुत है, ऐसे शिवश्री नामक वाचक मुख्य के प्रशिष्य और ग्यारह अङ्ग के ज्ञान को जानने वाले ऐसे श्री घोषनन्दि श्रमण के शिष्य तथा प्रसिद्ध है कीत्ति जिनकी और जो महावाचकक्षमाश्रमण श्री मुण्डपाद के शिष्य थे, उन श्री मूलनामक वाचकाचार्य के वाचना की अपेक्षा से शिष्य, कौभीषणी गोत्र में उत्पन्न हुए ऐसे स्वाति नाम के पिता के तथा वात्सी गोत्र वाली ऐसी (उमा नाम की) माता के पुत्र, न्यग्रोधिका गाँव में जन्म पाये हुए, कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) नाम के श्रेष्ठ नगर में विचरते, उच्चनागर शाखा के वाचक श्री उमास्वाति ने गुरुपरम्परा से मिले हुए उत्तम अर्हद्वचनों को अच्छी तरह समझकर और यह देखकर कि यह विश्व-संसार मिथ्या आगमों के निमित्त से नष्ट-बुद्धि हो रहा है, इसलिये दुःखों से पीड़ित बना हुआ है, जीव-प्राणियों पर अनुकम्पा-दया करके इस आगम की रचना की है और इस शास्त्र को 'तत्त्वार्थाधिगम' नाम से स्पष्ट किया है । जो इस 'तत्त्वार्थाधिगम' को जानेगा और इसमें जैसा कहा गया है, तदनुसार प्रवर्तन करेगा, वह शीघ्र ही अव्याबाध सुख रूप परमार्थ को अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करेगा ।।१-६॥
उक्त प्रशस्ति के अनुसार यह जाना जाता है कि शिवश्री वाचक के प्रशिष्य और घोषनन्दी श्रमण के शिष्य उच्चनागरी शाखा में हुए उमास्वाति वाचक ने 'तत्त्वार्थाधिगम' शास्त्र रचा। वे वाचनागुरु की अपेक्षा से क्षमाश्रमण मुण्डपाद के प्रशिष्य और मूल नामक वाचकाचार्य के शिष्य थे। उनका जन्म न्यग्रोधिका में हुआ था। विहार करते-करते कुसुमपुर (पाटलिपुत्र-पटना) नाम के नगर में यह
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( १५ ) 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' नामक ग्रन्थ रचा। आपके पिता का नाम स्वाति और माता का नाम उमा था।
श्री उमास्वाति महाराज कृत 'जम्बूद्वीपसमासप्रकरण' के वृत्तिकार श्री विजय सिंहसूरीश्वरजी म. ने अपनी वृत्ति-टीका के आदि में कहा है कि उमा माता और स्वाति पिता के सम्बन्ध से उनका 'उमास्वाति' नाम रखा गया।
श्री पन्नवणा सूत्र की वृत्ति में कहा है कि 'वाचकाः पूर्वविदः'। यानी वाचक का अर्थ पूर्वधर है। इस विषय में 'जैन परम्परा का इतिहास भाग १ में भी कहा है कि "श्री कल्पसूत्र के उल्लेख से जान सकते हैं कि आर्यदिन्नसूरि के मुख्य शिष्य आर्यशान्ति श्रेणिक से उच्चनागरशाखा निकली है। इस उच्चनागर शाखा में पूर्वज्ञान के धारक और विख्यात ऐसे वाचनाचार्य शिवश्री हुए थे। उनके घोषनंदी श्रमण नाम के पट्टधर थे, जो पूर्वधर नहीं थे, किन्तु ग्यारह अग के जानकार थे । पण्डित उमास्वाति ने घोषनंदी के पास में दोक्षा लेकर ग्यारह अंग का अध्ययन किया । उनकी बुद्धि तेज थी। वे पूर्व का ज्ञान पढ़ सकें ऐसी योग्यता वाले थे। इसलिए उन्होंने गुरुअाज्ञा से वाचनाचार्य श्रीमूल, जो महावाचनाचार्य श्रीमुण्डपाद क्षमाश्रमण के पट्टधर थे, उनके पास जाकर पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया।
श्री तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्य में उमास्वाति महाराज उच्चनागरी शाखा के थे, ऐसा उल्लेख है। उच्चनागरी शाखा श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा के पाटे आये हुए आर्यदिन्न के शिष्य आर्य शान्ति श्रेणिक के समय में निकली है । अतः ऐसा लगता है कि वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी महाराज विक्रम की पहली से चौथी शताब्दी पर्यन्त में हुए हैं। इस अनुमान के अतिरिक्त उनका निश्चित समय अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। श्रीतत्त्वार्थसूत्र की भाष्यप्रशस्ति में प्रागत उच्चनागरी शाखा के उल्लेख से श्रीउमास्वातिजी की गुरुपरम्परा श्वेताम्बराचार्य आर्य श्री सुहस्तिसूरीश्वरजी महाराज की परम्परा में सिद्ध होती है। प्रभावक आचार्यों की परम्परा में वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज एक ऐसी विशिष्ट श्रेणी के महापुरुष थे, जिनको श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों समान भाव से सन्मान देते हैं और अपनी-अपनी परम्परा में मानने में भी गौरव का अनुभव करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में 'उमास्वाति' नाम से ही प्रसिद्धि है तथा दिगम्बर परम्परा में 'उमास्वाति और 'उमास्वामी' इन दोनों नामों से प्रसिद्धि है।
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( १६ )
विशेषताएँ : जैनतत्त्वों के अद्वितीय संग्राहक, पाँच सौ ग्रन्थों के रचयिता तथा श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र ग्रन्थ के प्रणेता पूर्वधर महर्षि वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ऐसे युग में जन्मे जिस समय जैनशासन में संस्कृतज्ञ, समर्थ, दिग्गज विद्वानों की आवश्यकता थी । उनका जीवन अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण था । उनका जन्म जैनजाति - जैनकुल में नहीं हुआ था, किन्तु विप्रकुल में हुआ था । विप्र-ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण प्रारम्भ से ही उन्हें संस्कृत भाषा का विशेष ज्ञान था । श्री जैनआगम-सिद्धान्त-शास्त्र का प्रतिनिधि रूप महान् ग्रन्थ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र उनके आगम सम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान को प्रगट करता है । इतना ही नहीं, किन्तु भारतीय षट्दर्शनों के गम्भीर ज्ञानाध्ययन की सुन्दर सूचना देता है । उनके वाचक पद को देखकर श्री जैन श्वेताम्बर परम्परा उनको पूर्वविद् अर्थात् पूर्वी के ज्ञाता रूप में सम्मानित करती रही है तथा दिगम्बर परम्परा भी उनको श्रुतकेवली तुल्य सम्मान दे रही है। जैन साहित्य के इतिहास में आज भी जैनतत्त्वों के संग्राहक रूप में उनका नाम सुवर्णाक्षरों में अङ्कित है ।
कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. ने अपने 'श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन' नामक महा व्याकरण ग्रन्थ में "उत्कृष्टे अनूपेन " सूत्र में “उपोमास्वाति संग्रहीतारः" कहकर अद्वितीय अञ्जलि समर्पण की है तथा अन्य बहुश्रुत और सर्वमान्य समर्थ श्राचार्य भगवन्त भी उमास्वाति आचार्य को वाचकमुख्य अथवा वाचक श्रेष्ठ कह कर स्वीकारते हैं ।
* श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की महत्ता *
जैनागमरहस्यवेत्ता पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ने अपने संयमजीवन के काल में पञ्चशत [५०० ] ग्रन्थों की अनुपम रचना की है । वर्त्तमान काल में इन पञ्चशत [५००] ग्रन्थों में से श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण, जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, क्षेत्रसमास, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा पूजाप्रकरण इतने ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं ।
पूर्वधर - वाचकप्रवरश्री की अनमोल ग्रन्थराशिरूप विशाल आकाशमण्डल में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित ऐसा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ यह 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' है । इसकी महत्ता इसके नाम से ही सुप्रसिद्ध है । पूर्वधर - वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज जैन आगम सिद्धान्तों के प्रखर विद्वान् और प्रकाण्ड ज्ञाता थे । इन्होंने अनेक शास्त्रों
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का अवगाहन करके जीवाजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी प्रति सुन्दर रचना की है । यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्र रूप से रचित सबसे पहला प्रत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ, महान् ग्रन्थरत्न है । यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को साधु-महात्माओं को विद्वद्वर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल आत्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदृश देदीप्यमान है और अहर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है । पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को 'अर्हत् प्रवचन संग्रह' रूप में भी जाना है ।
ग्रन्थ परिचय : यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैनसाहित्य का संस्कृत भाषा में निबद्ध प्रथम सूत्रग्रन्थरत्न है । इसमें दस अध्याय हैं । दस अध्यायों की कुल सूत्र संख्या ३४४ है तथा इसके मूल सूत्र मात्र २२५ श्लोक प्रमाण हैं । इसमें मुख्य ने द्रव्यानुयोग की विचारणा के साथ गणितानुयोग और चरणकरणानुयोग की भी प्रति सुन्दर विचारणा की गई है । इस ग्रन्थरत्न के प्रारम्भ में वाचक श्री उमास्वाति महाराज विरचित स्वोपज्ञभाष्यगत सम्बन्धकारिका प्रस्तावना रूप में संस्कृत भाषा के पद्यमय ३१ श्लोक हैं, जो मनन करने योग्य हैं। पश्चात् —
[१] पहले अध्याय में - ३५ सूत्र हैं । शास्त्र की प्रधानता, सम्यग्दर्शन का लक्षण, सम्यक्त्व की उत्पत्ति, तत्त्वों के नाम, निक्षेपों के नाम, तत्त्वों की विचारणा करने के द्वारा ज्ञान का स्वरूप तथा सप्त नय का स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है ।
[२] दूसरे अध्याय में - ५२ सूत्र हैं । इसमें जीवों के लक्षण, प्रपशमिक आदि भावों के ५३ भेद, जीव के भेद, इन्द्रिय, गति, शरीर, आयुष्य को स्थिति इत्यादि का वर्णन किया है ।
[३] तीसरे अध्याय में - १८ सूत्र हैं । इसमें सात पृथ्वियों, नरक के जीवों की वेदना तथा प्रायुष्य, मनुष्य क्षेत्र का वर्णन, तिर्यंच जीवों के भेद तथा स्थिति आदि का निरूपण किया गया है ।
[४] चौथे अध्याय में - ५३ सूत्र हैं । इसमें देवलोक, देवों की ऋद्धि और उनके जघन्योत्कृष्ट प्रायुष्य इत्यादि का वर्णन है
।
[५] पाँचवें अध्याय में - ४४ सूत्र हैं ।
इसमें धर्मास्तिकायादि अजीव तत्त्व का
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निरूपण है तथा षट् द्रव्य का भी वर्णन है। पदार्थों के विषय में जैनदर्शन और जैनेतर दर्शनों की मान्यता भिन्न स्वरूप वाली है। नैयायिक १६ पदार्थ मानते हैं, वैशेषिक ६-७ पदार्थ मानते हैं, बौद्ध चार पदार्थ मानते हैं, मीमांसक ५ पदार्थ मानते हैं तथा वेदान्ती एक अद्वैतवादी है। जैनदर्शन ने छह पदार्थ अर्थात् छह द्रव्य माने हैं । उनमें एक जीव द्रव्य है और शेष पाँच अजीव द्रव्य हैं। इन सभी का वर्णन इस पाँचवें अध्याय में है।
[६] छठे अध्याय में-२६ सूत्र हैं। इसमें प्रास्रव तत्त्व के कारणों का स्पष्टीकरण किया गया है। इसकी उत्पत्ति योगों की प्रवृत्ति से होती है। योग पुण्य और पाप के बन्धक होते हैं। इसलिये पुण्य और पाप को पृथक् न कहकर आस्रव में ही पुण्य-पाप का समावेश किया गया है ।
[७] सातवें अध्याय में-३४ सूत्र हैं। इसमें देशविरति और सर्वविरति के व्रतों का तथा उनमें लगने वाले अतिचारों का वर्णन किया गया है ।
[८] आठवें अध्याय में-२६ सूत्र हैं। इसमें मिथ्यात्वादि हेतु से होते हुए बन्ध तत्त्व का निरूपण है।
[6] नौवें अध्याय में-४६ सूत्र हैं। इसमें संवर तत्त्व तथा निर्जरा तत्त्व का निरूपण किया गया है।
[१०] दसवें अध्याय में-७ सूत्र हैं। इसमें मोक्षतत्त्व का वर्णन है ।
उपसंहार में ३२ श्लोक प्रमाण अन्तिम कारिका में सिद्ध भगवन्त के स्वरूप इत्यादि का सुन्दर वर्णन किया है। प्रान्ते ग्रन्थकार ने भाष्यगत प्रशस्ति ६ श्लोक में देकर ग्रन्थ की समाप्ति की है।
* श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध अन्य ग्रन्थ * श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर वर्तमान काल में लभ्य-मुद्रित अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं ।
(१) श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर स्वयं वाचक श्री उमास्वाति महाराज का 'श्रीतत्त्वार्थाधिगम भाष्य' स्वोपज्ञ रचना है, जो २२०० श्लोक प्रमाण है ।
(२) श्रीसिद्धसेन गणि महाराज कृत भाष्यानुसारिणी टीका १८२०२ श्लोक प्रमाण की है। यह सबसे बड़ी टीका कहलाती है ।
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( १६ ) (३) श्रीतत्त्वार्थ भाष्य पर १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज कृत लघु टीका ११००० श्लोक प्रमाण की है। उन्होंने यह टीका साढ़े पांच (५।।) अध्याय तक की है। शेष टीका प्राचार्य श्री यशोभद्रसूरिजी ने
पूर्ण की है।
(४) इस ग्रन्थ पर श्री चिरन्तन नाम के मुनिराज ने 'तत्त्वार्थ टिप्पण' लिखा है।
(५) इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय पर न्यायविशारद न्यायाचार्य महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कृत भाष्यतर्कानुसारिणी 'टीका' है।
(६) आगमोद्धारक श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी म. श्री ने 'तत्त्वार्थकर्तृत्वतन्मत निर्णय' नाम का ग्रन्थ लिखा है।
(७) भाष्यतर्कानुसारिणी टीका पर पू. शासनसम्राट श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के प्रधान पट्टधर न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारद पू. आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय दर्शन सूरीश्वरजी महाराज ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर के विवरण को समझाने के लिये 'गूढार्थदीपिका' नाम की विशद वृत्ति रची है । सिद्धान्तवाचस्पति-न्यायविशारद पू. आ. श्रीमद् विजयोदयसूरीश्वरजी म. सा. ने भी वृत्ति रची है।
(८) पू. शासनसम्राट् श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के दिव्य पट्टालंकार व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद-कविरत्न-साहित्यसम्राट् पूज्य आचार्यवर्य श्रीमद् लावण्यसूरीश्वरजी महाराज ने श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्' (२६), 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' (३०), 'अर्पितानर्पितसिद्धेः' (३१) इन तीन सूत्रों पर 'तत्त्वार्थ त्रिसूत्री प्रकाशिका' नाम की विशद टीका ४२०० श्लोक प्रमाण रची है ।
(६) सम्बन्धकारिका और अन्तिमकारिका पर श्री सिद्धसेन गणि कृत टीका है।
(१०) सम्बन्धकारिका पर प्राचार्य श्री देवगुप्तसूरि कृत टीका है । (११) आचार्य श्री मलयगिरिसूरि म. ने भी श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर टीका की है । (१२) मैंने [प्रा. श्री विजय सुशीलसूरि ने] भी तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर तथा
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( २० ) उसको 'सम्बन्धकारिका' और 'अन्तिमकारिका' पर संक्षिप्त लघु टीका सुबोधिका, हिन्दी भाषा में विवेचनाऽमृत तथा हिन्दी में पद्यानुवाद की रचना की है।
(१३) पू. शासनसम्राट् श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के पट्टधर शास्त्रविशारद-कविरत्न पू. प्राचार्य श्रीमद् विजयामृतसूरीश्वरजी म. सा. के प्रधान पट्टधरद्रव्यानुयोगज्ञाता पू. प्राचार्य श्रीमद् विजय रामसूरीश्वरजी म. श्री ने इस तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का, सम्बन्धकारिका का तथा अन्तिमकारिका का गुर्जर भाषा में पद्यानुवाद किया है।
(१४) तीर्थप्रभावक-स्वर्गीय प्राचार्य श्रीमद् विजय विक्रमसूरीश्वर जी म. श्री ने गुजराती विवरण लिखा है ।
(१५) श्री तत्त्वार्थ सूत्र पर श्री यशोविजयजी गणि महाराज का गुजराती टबा है।
(१६) कर्मसाहित्यनिष्णात आचार्य श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. के समुदाय के मुनिराज श्री राजशेखरविजय जी ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का गुर्जर भाषा में विवेचन किया है।
(१७) पण्डित खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ने सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र का 'हिन्दी-भाषानुवाद किया है ।।
(१८) पण्डित श्री सुखलाल जी ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का गुर्जर भाषा में विवेचन किया है।
(१६) पण्डित श्री प्रभुदास बेचरदास ने भी तत्त्वार्थसूत्र पर गुर्जर भाषा में विवेचन किया है।
(२०) श्री मेघराज मुणोत ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है।
___ जैसे श्री जैन श्वेताम्बर आम्नाय में 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' नामक ग्रन्थ विशेष रूप में प्रचलित है, वैसे ही श्री दिगम्बर आम्नाय में भी यह ग्रन्थ मौलिक रूपे अतिप्रचलित है। इस महान् ग्रन्थ पर दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि, प्राचार्य
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अकलंकदेव ने राजवात्तिक टीका तथा प्राचार्य विद्यानन्दि ने श्लोकवात्तिक टीका की रचना की है। इस ग्रन्थ पर एक श्रुतसागरी टीका भी है। इस प्रकार इस ग्रन्थ पर आज संस्कृत भाषा में अनेक टीकाएँ तथा हिन्दी व गुजराती भाषा में अनेक अनुवाद विवेचनादि उपलब्ध हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ की महत्ता निर्विवाद है।
* प्रस्तुत प्रकाशन का प्रसंग १ उत्तर गुजरात के सुप्रसिद्ध श्री शंखेश्वर महातीर्थ के समीपवर्ती राधनपुर नगर में विक्रम संवत् १६६८ की साल में तपोगच्छाधिपति शासनसम्राट-परमगुरुदेव-परमपूज्य आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के दिव्यपट्टालंकारसाहित्यसम्राट-प्रगुरुदेव-पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी म. सा. का श्रीसंघ की साग्रह विनंति से सागरगच्छ के जैन उपाश्रय में चातुर्मास था। उस चातुर्मास में पूज्यपाद आचार्यदेव के पास पूज्य गुरुदेव श्री दक्षविजयजी महाराज (वर्तमान में पू. प्रा. श्रीमद् विजय दक्षसूरीश्वरजी महाराज), मैं सुशील विजय (वर्तमान में प्रा. सुशीलसूरि) तथा मुनि श्री महिमाप्रभ विजय जी (वर्तमान में प्राचार्य श्रीमद् विजय महिमाप्रभसूरिजी म.) आदि प्रकरण, कर्मग्रन्थ तथा तत्त्वार्थसूत्र प्रादि का (टीका युक्त वांचना रूपे) अध्ययन कर रहे थे। मैं प्रतिदिन प्रातःकाल में नवस्मरण आदि सूत्रों का व एक हजार श्लोकों का स्वाध्याय करता था। उसमें पूर्वधरवाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज विरचित 'श्रीतत्त्वार्थसूत्र' भी सम्मिलित रहता था। इस महान् ग्रन्थ पर पूज्यपाद प्रगुरुदेवकृत 'तत्त्वार्थ त्रिसूत्री प्रकाशिका' टीका का अवलोकन करने के साथ-साथ 'श्रीतत्त्वार्थसूत्र-भाष्य' का भी विशेष रूप में अवलोकन किया था।
अति गहन विषय होते हुए भी अत्यन्त आनन्द प्राया। अपने हृदय में इस ग्रन्थ पर संक्षिप्त लघु टीका संस्कृत में और सरल विवेचन हिन्दी में लिखने की स्वाभाविक भावना भी प्रगटी। परमाराध्य श्रीदेव-गुरु-धर्म के पसाय से और अपने परमोपकारी पूज्यपाद परमगुरुदेव एवं प्रगुरुदेव आदि महापुरुषों की असीम कृपादृष्टि
और अदृष्ट आशीर्वाद से तथा मेरे दोनों शिष्यरत्न वाचकप्रवर श्री विनोदविजयजी गणिवर एवं पंन्यास श्री जिनोत्तमविजयजी गणि की जावाल [सिरोही समीपवर्ती] में पंन्यास पदवी प्रसंग के महोत्सव पर की हुई विज्ञप्ति से इस कार्य का शीघ्र प्रारम्भ करने हेतु मेरे उत्साह और प्रानन्द में अभिवृद्धि हुई। श्रीवीर सं. २५१६, विक्रम सं.
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( २२ ) २०४६ तथा नेमि सं. ४१ की साल का मेरा चातुर्मास श्री जैनसंघ, धनला की साग्रह विनंति से श्री धनला गाँव में हुआ।
__ इस चातुर्मास में इस ग्रन्थ की टीका और विवेचन का शुभारम्भ किया है। इस ग्रन्थ की लघु टीका तथा विवेचनादियुक्त यह प्रथम-पहला - अध्याय है। इस कार्य हेतू मैंने आगमशास्त्र के अवलोकन के साथ-साथ इस ग्रन्थ पर उपलब्ध समस्त संस्कृत, गुजराती, हिन्दी साहित्य का भी अध्ययन किया है और इस अध्ययन के आधार पर संस्कृत में सुबोधिका लघु टीका तथा हिन्दी विवेचनामृत की रचना की है। इस रचना-लेख में मेरी मतिमन्दता एवं अन्य कारणों से मेरे द्वारा मेरे जानते या अजानते श्रीजिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो उसके लिए मन-वचन-काया से मैं 'मिच्छा मि दुक्कडं' देता हूँ।
श्रीवीर सं. २५१७ विक्रम सं. २०४७
नेमि सं. ४२ कार्तिक सुद ५ [ज्ञान पंचमी]
बुधवार दिनांक २४-११-६०
लेखक-- प्राचार्य विजय
सुशीलसूरि स्थल-श्रीमारिणभद्र भवन
-जैन उपाश्रय मु. पो. धनला-३०६ ०२५ वाया-मारवाड़ जंक्शन, जिला-पाली (राजस्थान)
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है अनुक्रम :
सम्बन्धकारिका : पृष्ठ १ से ८ तक
पृष्ठ संख्या
१६
२०
सूत्र संख्या . विषय
सुबोधिका-मंगलाचरणम् १. पञ्चज्ञानं नयं निक्षेपञ्च वर्णनम् २. सम्यग्दर्शनस्य लक्षणम् । ३. सम्यग्दर्शनस्योत्पत्तिप्रकाराः ४. तत्त्वनामानि ५. तत्त्वानां निक्षेपस्य निर्देशः ६. तत्त्वज्ञानस्योपायः ७. विशिष्ट तत्त्वज्ञानप्राप्त्यर्थं षवाराणां निर्देशः ८. सत्प्रमुखाष्टद्वारेभ्योऽपि तत्त्वानां विशिष्टरूपेण निर्देशः ६. सम्यग्ज्ञानस्य भेदाः १०. मत्यादिपञ्चविधज्ञानानां प्रमाणाऽऽश्रित्य विचारणा ११. परोक्षस्वरूपम् १२. प्रत्यक्षस्वरूपम् १३. मतिज्ञानस्य पर्यायवाचकशब्दाः १४. मतिज्ञानस्योत्पत्तौ निमित्तानि १५. मतिज्ञानस्य भेदाः १६. अवग्रहादीनां भेदाः
२४
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(
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सूत्र संख्या
विषय
पृष्ठ संख्या
१७. अवग्रहादीनां विषयः १८. अवग्रहानामवान्तरभेदः १६. व्यंजनावग्रहस्य विशेषता
श्रुतज्ञानस्य स्वरूपं भेदाश्च २१. अवधिज्ञानस्य भेदाः २२. भवप्रत्ययावधिज्ञानस्य स्वामी २३. क्षयोपशमप्रत्ययावधिज्ञानस्य स्वामी २४. मनःपर्ययज्ञानस्य भेदाः २५. ऋजुविपुलमत्योः विशेषतायाः हेतवः २६. अवधिमनःपर्यययो भेदस्य हेतवः
मतिश्रुतयोः विषयः २८. अवधिज्ञानस्य विषयः २६. मनःपर्ययज्ञानस्य विषयः ३०. केवलज्ञानस्य विषयः ३१. एषां मतिज्ञानादीनां युगपदेकस्मिन् जीवे कति भवन्ति ३२. प्रमाणाभासरूपज्ञानानां निरूपणम् ३३. मिथ्यादृष्टीनां मत्यादित्रिज्ञानानि विपरीतं किम् ३४-३५ नयानां निरूपणम्
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ॐ श्री नवकार महामन्त्र)
AREFREXAGRA
PARATHA
ANDROORK
CONN
श्री नमस्कार महामंत्र
CGDP
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नमो अरिहंताणं नमो सिंद्धाणं नमो अायरियाणं नमो उज्मायाणं नमोलोएसव्वसाहूणं एसो पंचनमुक्कारों, सव्वपावप्पापासणो। मंगलाणं च सवेसि पढम हवइ मंगलं॥
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शांतिलाल अंसदोशी। WYSYY KYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYAA
MAMALAKARMILAMMMMMMMMMMMAMALI
भावपूर्ण कोटिशः वन्दना हो !
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|| श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ।।
श्री करमावास (धर्मावास) नगर में
राजस्थानदीपक परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज साहब की शुभ निश्रा में वि. सं. २०४७ माघ शुक्ला - ५ ( वसन्त पंचमी) सोमवार २१ जनवरी, १६६१ के शुभ दिन
श्री पार्श्वनाथ जिनमन्दिर में सम्पन्न श्री अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव की पावन स्मृति में
श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ करमावास (जि. बाड़मेर-राज.)
की तरफ से सुन्दर प्रार्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है।
5 हम संघ एवं सभी कार्यकर्त्ताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
- ट्रस्टीगण श्री सु. सा. प्र. समिति, जोधपुर
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1.1.1.1.1.0.0
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श्री पार्श्वनाथ जिन मन्दिर, करमावास
पुरुषादानीय 23वें तीर्थंकर
FEBRAN
श्री पार्श्वनाथ भगवान
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शासन सम्राट् तपागच्छाधिपति
परम पूज्य आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजय नेमि सूरीश्वरजी महाराज साहब
शासन के साम्राज्य में, तपे सूर्य सा तेज । तीर्थोद्धार किये कई, सोकर सूल की सेज ॥ धर्मधुरन्धर सद्गुरू, मंगलमय है नाम । नेमिसूरीश्वर को करूँ वन्दन आठों याम ॥
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साहित्यसम्राट
55
परम पूज्य आचार्य देवेश श्रीमद् विजय लावण्य सूरीश्वरजी महाराज साहब
साहित्य के सम्राट हो, शास्त्रविशारद जान । स्वय शारदा ने दिया, जैसे गरूको ज्ञान । व्याकरण-वाचस्पति, काव्य कला अभिराम । श्री लावण्य सूरीश्वरा, वन्दन आठों याम ॥
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धर्म प्रभावक- कवि दिवाकर
VILAS
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परम पूज्य आचार्य देवेश श्रीमद् विजयदक्ष सूरीश्वर जी महाराज साहब शब्दकोश के शहंशाह, सरिता शास्त्र समान । कविदिवाकर ने किया, काव्यशास्त्र का पान ।। ग्रन्थों की रचना में राचे, सरस्वती के धाम । दक्ष सूरीश्वर को करूँ, वंदन आठों याम ।।
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जैन धर्मदिवाकर राजस्थान दीपक
SAMOSANNISA
परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी महाराज साहब शान्तसुधारस मृदु मनी, राजस्थान के दीप । मरूधरोद्धारक सत्कवि, तुम साहित्य के सीप ।। कविभूषण हो तीर्थ-प्रभावक, नयना निष्काम । सुशील सूरीश्वर को करूँ वन्दन आठों याम ।।
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सुयोग्य गुरू के सुयोग्य शिष्य जिनोत्तम गणि है नाम, गुरू शिष्य की इस जोड़ी पर जिनशासन को नाज। अल्पवय और अल्पकाल में जिनके बड़े है काम, भविष्य के आचार्य जिनोत्तम चन्द्र का तुम्हें प्रणाम ।। पूज्य पंन्यासप्रवर श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य महाराज
मधुर प्रवचनकार है मुनिवर, मुनि जिनोत्तम नाम उत्तम, पारसमणि सुगुरू कृपा से, स्वर्णिम हो रहे जिनोत्तम । सुशोभित अब पंन्यास पद से, आचार्यप्रवर भी होंगे, गुरूवर मिले है, विराट् उनको क्यों न वे विराट् होंगे।।
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पूर्वधर-परमर्षि श्रीउमास्वातिवाचकप्रवरेण विरचितम्
श्री
त
त्वा
ग
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सूत्रम् (प्रथमोऽध्यायः)
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ॐ
ॐ ह्रीं महं नमः ॥
॥ वर्तमानशासनाधिपति-श्रीमहावीरस्वामितीर्थकरेभ्यो नमः॥ ॥ अनन्तलग्धिनिधान-श्रीगौतमस्वामिगणधरेभ्यो नमः ॥
॥ गणसम्पत्समृद्ध-श्रीसुधर्मस्वामिगणधरेभ्यो नमः ॥ ॥ पूर्वधर-वाचकप्रवर-श्रीउमास्वातिभगवद्भ्यो नमः ॥ ॥ शासनसम्राटश्रीनेमिसूरीश्वरपरमगुरुभ्यो नमः ॥
॥ साहित्यसम्राट-श्रीलावण्यसूरीश्वरप्रगुरुभ्यो नमः ॥ * पूर्वधर-परमर्षि-सुप्रसिद्ध-श्रीउमास्वातिवाचकप्रवरेण विरचितम् *
# श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
-तस्योपरिजैनधर्मदिवाकर-शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषणेति पदसमलङ्कृतेन
श्रीमद्विजयसुशीलसूरिणा विरचिता 'सुबोधिका टीका' एवं तस्य सरलहिन्दीभाषायां विवेचनामृतम्
+ मंगलाचरणम् ॥
[शार्दूलविक्रीडित-वृत्तम्] नत्वा देवाधिदेवं सुरनरमहितं वर्धमानं जिनेन्द्र , वाग्देवी गौतमेशं गणधरप्रवरं श्रीसुधर्माभिधं च । स्मृत्वा विश्वे प्रसिद्धं परमगुरुवरं नेमिसूरीश्वरं वै , श्रीमल्लावण्यसूरि प्रगुरुप्रवरं सद्गुरु दक्षसूरिम् ॥१॥
__ [अनुष्टुब्-वृत्तम्] वाचकश्रीउमास्वाति : नाम्ना पूर्वधरेण वै। ख्यातं तत्त्वार्थसूत्रं यद्, सभाष्यं रचितं वरम् ॥ २॥ भाष्यानुसारिणी तस्य, लघुटीका 'सुबोधिका'। तत्त्वार्थसूत्रभाषायां, 'विवेचनामृतं' तथा ॥३॥ विज्ञप्त्या श्रीविनोदस्य, वाचकप्रवरस्य वै । जिनोत्तमस्य पन्यास, - वरस्यान्तिषदोऽपि च ॥ ४॥ देव-गुरुप्रसादाच्च, सुशीलसूरिणा मया । बालानां तत्त्वबोधार्थ, क्रियते कर्मक्षायिना ॥ ५॥
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प्रथमोऽध्यायः
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* पञ्चज्ञानं नयं निक्षेपञ्च वर्णनम् * श्रीसर्वज्ञविभुना जिनेश्वर-तीर्थङ्करदेवेन अर्थरूपेण कथितं, सूत्ररूपेण श्रुतकेवलीश्रीगणधरभगवन्तेन गुम्फितं च यद् शास्त्रं तद् आगमशास्त्रमेवेति जैनदर्शनेन । एतद् आगमशास्त्रमवलोकय पूर्वधर-परमर्षिश्रीउमास्वातिनाम्ना वाचकप्रवरेण सिद्धान्तागमशास्त्रस्य साररूपमिदं 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' नामक ग्रन्थं सम्यगविरचितमिति । तस्य दशाध्यायाः सन्ति । तेषु प्रथमोऽध्यायोऽत्र विमृश्यते । अत्र प्रथमाऽध्याये प्रथमसूत्रमिदम्'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥
* सुबोधिका टीका * सम्यग्दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च एतानि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि । मोक्षस्य मार्गः मोक्षमार्गः। सम्यग्दर्शनं, सम्यग्ज्ञानं, सम्यक्चारित्रमित्येष त्रिविधो मोक्षमार्गः । एतानि च निखिलानि मोक्षसाधनानि, न तु न्यूनानि । त्रीण्येव संमिलने सति मोक्षस्य मार्गः साधनः एवेत्यर्थः । एकस्याऽभावेऽपि असाधनानि इत्यतस्त्रयाणां ग्रहणम् । एषां च पूर्वलाभे सति भजनीयमुत्तरम्, किन्तु उत्तरलाभे तु पूर्वलाभो नियतरेव ज्ञेयः । अर्थात् सम्यग्दर्शनं, सम्यग्ज्ञानं तथा सम्यक्चारित्रं मोक्षमार्गो भवति । एतानि त्रीणि संहितान्येव मोक्षस्य साधनं जायते, नत्वन्यथा। एतेषु एकस्याप्यभावे मोक्षसाधनं नैव भवितुमर्हति । एतेषु प्रथमस्य (पूर्वस्याप्राप्तौ सत्यां तत्पश्चाद्भवस्य परस्य) प्राप्तिर्भवेद् वा न भवेत्, किन्तु परस्य प्राप्तौ सत्यां पूर्वस्य ज्ञानमवश्यंभावि । अर्थात्-दर्शनस्य ज्ञाने सत्यपि ज्ञानस्य चारित्रस्य वा ज्ञानं निश्चयेन न जायते । एवमेव ज्ञानस्य प्राप्तौ सत्यामपि चारित्रस्य प्राप्तिनिश्चयेन न भवति, किन्तु चारित्रस्योपलब्धौ सत्यां तत्पूर्वयोर्दर्शन-ज्ञानयोः प्राप्तिर्जायते एव, एवं ज्ञानोपलब्धौ
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११ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ३ सत्यां तत्पूर्वस्य दर्शनोपलब्धिः निश्चितैव । अत्र ज्ञानस्य वीतरागभावस्य सर्वोत्कृष्टत्वमेव मोक्षः । अपि च आमूलानां कर्मबन्धानां क्षयः मोक्षः । तत्र सम्यगिति प्रशंसार्थे निपातः, समञ्चतेर्वा भावः । दर्शनमिति । सर्वेन्द्रियाणामनिन्द्रियाणां च विषयाणां सम्यग्रूपेण प्राप्तिरिति सम्यग्दर्शनम् । प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । युक्तियुक्तदर्शनं सम्यग्दर्शनम्। संगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वभूतजीवाजीवादिपदार्थेषु श्रद्वा वर्तते एव सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वभूत-जीवाजीवादिपदार्थानां यथार्थबोधं सम्यग्ज्ञानम् । यथार्थज्ञानपूर्वकमसक्रियायाः निवृत्तिः सक्रियायां च प्रवृत्तिः सम्यक्चारित्रम्। समस्तकर्मणां क्षयो मोक्षः। साधनमुपायश्च मार्गः । अतः युगपत् 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि' एव मोक्षस्य मार्गः । तद् द्वारा हि भव्यजीवस्य मोक्षप्राप्तिरेव ।
* सूत्रार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं अर्थात् मोक्ष के साधन एवं मोक्ष के उपाय हैं ॥१॥
ॐ विवेचन अनादि और अनन्तकालीन इस विश्व में जीव भी अनादिकाल से अनन्तानन्त हैं। संसार में रहे हुए समस्त जीव सदैव सुख चाहते हैं; दुःख कोई कभी नहीं चाहता। सुख की प्राप्ति के लिए और दुःख को दूर करने के लिए वे लोक में अर्थ और काम इन दोनों पुरुषार्थों का सेवन करते हैं। उनका सेवन करने पर भी सर्वथा न तो दुःख दूर कर सकते हैं और न ही सम्पूर्ण सुख को प्राप्त कर सकते हैं। कारण कि अर्थ से और काम से मिलने वाला सुख दुःखमिश्रित तथा क्षणिक होने से अपूर्ण है।
धर्म और मोक्ष इन दोनों पुरुषार्थों के सेवन से ही चिरन्तन तथा दुःखरहित सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में धर्म और मोक्ष ये दोनों ही मुख्य हैं। उनमें भी धर्म तो मोक्ष का कारण होने से प्रौपचारिक पुरुषार्थ है। अतः चारों पुरुषार्थों में मोक्षपुरुषार्थ ही मुख्य है-प्रधान है। इसलिए ज्ञानी महापुरुषों ने भी भव्यजीवों को मोक्षमार्ग का ही सदुपदेश दिया है और देते हैं। यहाँ भी पूर्वधर परमर्षि वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज प्रथम मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं। प्रस्तुत शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मोक्ष है।
मोक्ष का स्वरूप-बन्धकारणों के सर्वथा अभाव हो जाने से जो सर्वाङ्गीण सम्पूर्ण आत्मविकास की परिपूर्णता होती है, वही मोक्ष है अर्थात् वह ज्ञान और वीतरागभाव की सर्वोत्कृष्टतापराकाष्ठारूप है।
साधनों का स्वरूप-जिस गुण के विकास से तत्त्व यानी वस्तुधर्म की प्राप्ति हो और
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११
जिसके द्वारा हेय यानी छोड़ने योग्य, उपादेय यानी स्वीकार करने योग्य तत्त्व की, यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। नय और प्रमाण से होने वाले जीवादि तत्त्वों का यथार्थज्ञान, वही सम्यग्ज्ञान है। वस्तु-पदार्थ के ज्ञान अंश को नय कहते हैं, और सम्पूर्ण ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। सम्यग्ज्ञानपूर्वक कषायभावों की अर्थात् राग-द्वेष की और मन-वचन-काया के योगों की निवृत्ति से जो स्वरूप-रमणता होती है, वही सम्यक्चारित्र है।
साधनों का साहचर्य-मोक्ष के साधनभूत धर्म को-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन विभागों में विभक्त करके पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज इस ग्रन्थ के प्रारम्भिक प्रथम सूत्र में ही उनका निर्देश करते हुए कहते हैं कि
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है ॥१॥ अर्थात्-ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग यानी मोक्ष के साधन-उपाय हैं। इस सूत्र में मोक्ष के साधनों का निर्देश मात्र है; न कि उनका स्वरूप और न ही उनके भेद। कारण कि आगे उनके स्वरूप और उनके भेद का वर्णन विस्तार से करेंगे। इसलिए यहाँ तो शास्त्र की रचना क्रमबद्ध हो सके, इस बात को लक्ष्य में रखकर इनका नाम मात्र, उद्देश्य मात्र ही निरूपण किया जा रहा है।
___ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों [रत्नत्रय] मिले हुए ही समवाय रूप से मोक्ष के मार्ग यानी साधन-उपाय माने गए हैं; न कि पृथक्-पृथक् एक या दो। इन तीनों में से यदि एक का अभाव हो जाय तो भी मोक्ष का साधन नहीं हो सकता। इसे अधिक स्पष्ट करते हए कहते हैं कि सम्यग्दर्शन होने पर भी सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र हो या न हो, सम्यग्ज्ञान होने पर भी सम्यक्चारित्र हो या न हो, किन्तु जब सम्यक्चारित्र होगा तब सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान अवश्य ही होगा तथा जहाँ पर सम्यग्ज्ञान होता है वहाँ पर सम्यग्दर्शन भी अवश्य ही रहता है। जैसे-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान परिपूर्णता के रूप में प्राप्त होते हुए भी सम्यकचारित्र की अपूर्णता के कारण तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थानक में पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता और चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थानक में शैलेषी अवस्था रूप परिपूर्ण चारित्र प्राप्त होते ही सम्यग्दर्शनादि तीनों साधनों की सम्पूर्ण प्रबलता हो जाने से पूर्ण मोक्ष का सामर्थ्य प्राप्त होता है।।
इन्द्रिय और मन के विषयभूत सर्व पदार्थों की दृष्टि-श्रद्धा रूप प्राप्ति को 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि दोषों से रहित प्रशस्त दर्शन को सम्यग्दर्शन कहते हैं। अथवा संगत-युक्तिसिद्ध दर्शन को भी सम्यग्दर्शन कहते हैं। सारांश यह है कि-सम्यक् यानी प्रशस्त या संगत। सम्यग्दर्शन यानी विश्व के तत्त्वभूत जीवाजीवादि पदार्थों में श्रद्धा । सम्यग्ज्ञान यानी तत्त्वभूत जीवाजीवादि पदार्थों का वास्तविक यथार्थबोध । सम्यक्चारित्र यानी वास्तविक यथार्थज्ञान द्वारा असक्रिया से निवृत्ति और सक्रिया में प्रवृत्ति । मोक्ष यानी मुक्तिसमस्त कर्मों का क्षय-विनाश। मार्ग यानी साधन-उपाय। अर्थात-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की सम्पूर्ण मिली हुई अवस्था वह मोक्ष का मार्ग-साधन-उपाय है। ज्ञानी महापुरुषों ने सांसारिक सुखों को सुखाभास कहा है। विश्व में एक मोक्षावस्था ऐसी है कि समस्त इच्छाओं का अभाव हो जाता है और स्वाभाविक सन्तोष प्रगट होता है, वही सुख सच्चा सुख है, अन्य नहीं ।।१॥
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१।२ ]
प्रथमोऽध्यायः
सम्यग्दर्शनस्य लक्षरणम्
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥
[ ५
* सुबोधिका टीका *
तत्त्वार्थानामर्थानां तत्त्वभूतजीवादिपदार्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थ श्रद्धानं तत् सम्यग् - दर्शनम् । अथवा तत्त्वेनार्थानां तत्त्वभूतजीवादिपदार्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत् सम्यग्दर्शनम् । तदेवं प्रशम-संवेग-निर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्ति - लक्षणानि चिह्नानि तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति । प्रर्थात् स्वभावाधिगमहेतुभ्यां सम्यग्दर्शनस्य प्राप्तिः तत्त्वार्थपदार्थानां चेतसि सर्वाङ्गीरणरूपेण विकासोदयेन जायते ।
तस्य प्रशमादि पञ्चभावानां संक्षिप्तस्वरूपमाह
(१) रागद्व ेषादीनामनुद्रेकः 'प्रशमः' शान्तिरित्यर्थः ।
(२) जन्ममरणादि - विविधदुःख - व्याप्त संसारात् भयभीरुता 'संवेगः' अर्थात् मोक्षं प्रति रागः ।
(३) भवदेह - भोगेषूपरतिः 'निर्वेद : ' संसारं प्रति उद्वेगरित्यर्थः ।
(४) सर्वभूतदया 'अनुकम्पा' करुणाभावः ।
(५) जीवादयोऽर्थाः यथास्वं सन्तीति मति 'आस्तिक्यं' इति ।
'तमेव सच्चं निःशङ्क जं जिणेहि पवेइनं' इतिशास्त्रवचनमपि प्रोक्तं चेति प्रशमादि पंच लक्षणानि यस्मिन् भवेयुः सैव सम्यग्दर्शनी ज्ञातव्यः ।
* सूत्रार्थ - तत्त्वरूप अर्थों के श्रद्धान को या तत्त्वरूप से अर्थों के श्रद्धान करने को तत्त्वार्थश्रद्धान कहते हैं । इसी का नाम 'सम्यग्दर्शन' है ||२||
5 विवेचन 5
ध्यात्मिक विकास के कारण जो तत्त्वनिश्चय की रुचि मात्र आत्मिक तृप्ति के लिए होती है, वही सम्यग्दर्शन है । प्रर्थात् – तत्त्वरूप जीवादि पदार्थों की श्रद्धा यानी जीवादि पदाथ जिस स्वरूप में हैं, उसी स्वरूप में मानना । श्राध्यात्मिक विकास से आत्मा में जो एक प्रकार का परिणाम हुआ है, वह ज्ञेयमात्र को तात्त्विक रूप में जानने की, हेय को त्याग करने की और उपादेय को ग्रहरण-स्वीकार करने की रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व है तथा उस रुचि के बल से होने वाली जो धर्मतत्त्व-निष्ठा है वही व्यवहार सम्यक्त्व है ।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १३
मोहनीय कर्म के क्षयोपशम आदि से होता हुआ जो शुद्ध श्रात्मपरिणाम है वही मुख्य सम्यक्त्व है । उससे होती हुई तत्त्वार्थ श्रद्धा, वह श्रौपचारिक सम्यक्त्व है ।
६]
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होते हुए जिस जीव का मन होता है उसको तत्त्वार्थ की श्रद्धा श्रवश्य होती है। जैनागमशास्त्र में सम्यग्दर्शन की पहचान कराने के लिए प्रशमादि पाँच लिङ्ग प्रतिपादित किये हैं । उनका स्वरूप क्रम से इस प्रकार है
( १ ) प्रशम - तत्त्वपदार्थों के प्रसत् पक्षपात यानी शान्ति ही प्रशम है । ही प्रशम कहा जाता है ।
से होने वाले कदाग्रह श्रादि दोषों का उपशम क्रोधादि कषायों का उद्रेक न होना अर्थात् क्रोधाधिक का निग्रह करना राग-द्वेष की ग्रन्थियों का भेद ही चित्त की तटस्थ वृत्ति होती है ।
( २ ) संवेग - सांसारिक बन्धनों का भय ही संवेग है । अर्थात् जन्म और मरण आदि के अनेक दुःखों से व्याप्त ऐसे इस संसार को देखकर भयभीत होना और मोक्ष के प्रति राग रखना, यही संवेग कहा जाता है । इसमें सांसारिक सुख को दुःख रूप मानने का है ।
(३) निर्वेद - संसार, शरीर और भोग इन तीनों विषयों में प्रासक्ति का कम हो जाना निर्वेद है । अर्थात् संसार के प्रति उद्वेग होना, यही निर्वेद कहा जाता है । इसमें सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने की उत्कट अभिलाषा इच्छा है ।
(४) अनुकम्पा - दुःखी जीवों के दुःख दूर प्रकार का स्वार्थ नहीं रखकर दुःखी जीवों के प्रति प्राणी मात्र पर मैत्री भावना, परिणामों में जीवों को होने वाली प्रवृत्ति है ।
करने की इच्छा अनुकम्पा है । अर्थात् — किसी करुणा भाव रखना अनुकम्पा है । अनुकम्पा में दुःखों से मुक्त करने की भावना और तदर्थं
(५) प्रास्तिक्य - जीवादिक पदार्थों का जो स्वरूप सर्वज्ञ वीतराग श्री अरिहन्त भगवान ने कहा है, वही सत्य है ऐसी अचल - अटल श्रद्धा श्रास्तिक्य भावना है । अर्थात् जगत् में रहे हुए आत्मा आदि पदार्थों को अपने-अपने स्वरूप के अनुसार मानना । युक्ति प्रमाणसिद्ध प्रात्मा आदि परोक्ष पदार्थों को भी स्वीकार करना यही 'प्रास्तिक्य' कहा जाता है। इसमें परोक्ष होते हुए भी युक्ति, प्रमाण, नय आदि द्वारा सिद्ध होते हए जीव पदार्थ का स्वीकार होता है ।
इन प्रशम आदि पाँच लक्षणों द्वारा श्रात्मा में सम्यग्दर्शन गुरण की पहचान हो सकती है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा गया है || २ ||
सम्यग्दर्शनस्योत्पत्तिप्रकाराः -
निसर्गादधिगमाद् वा ॥ ३ ॥
* सुबोधिका टीका *
तदेतत् सम्यग्दर्शनं
निसर्गादधिगमाद् वा उत्पद्यत इति द्विहेतुकं द्विविधं भवति । तद्यथा - निसर्गसम्यग्दर्शनं, अधिगमसम्यग्दर्शनं चेति । निसर्गः परिणाम: स्वभाव:
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११३
]
प्रथमोऽध्यायः
अपरोपदेश-इत्यनर्थान्तरम् । अनादिकालीनविश्वे परिभ्रमतः कर्मणः स्वकृतस्य विविधं पुण्यपापफलमनुभवतो जीव: ज्ञान-दर्शनोपयोगस्वाभाव्यात् परिणामाध्यवसायानां स्थानान्तराणि गच्छतोऽनादिकालीनमिथ्यादृष्टिवतोऽपि सतः परिणामाध्यवसायविशेषाद् अपूर्वकरणं तादृग् भवति । येनास्यानुपदेशात् सम्यग्दर्शनमुत्पद्यते इति । तदेवं निसर्गसम्यग्दर्शनम् । अधिगमः अभिगमः आगमशास्त्रनिमित्तं श्रवणं शिक्षा उपदेश इत्यनर्थान्तरम् । तदेवं परस्योपदेशाद् यत् तत्त्वार्थश्रद्धानं भवति, तद् अधिगमसम्यग्दर्शनं इति । सम्यग्दर्शनस्योत्पत्तिः अन्तरंग-बाह्याभ्याम् द्वाभ्यां निमित्ताभ्यां भवति । विशिष्टशुभात्मपरिणामान्तरंगभेदश्च गुरूपदेशादिबाह्यनिमित्तानि निसर्गात्= परस्योपदेशरहितक्षयोपशमादिस्वाभाविकपरिणामात् (अध्यवसायात्), अथवा अधिगमाद् =परस्योपदेशादिबाह्यनिमित्तत्वाद् अर्थात्-शास्त्रश्रवणाद् वा गुरोः सदुपदेशादिबाह्यनिमित्तत्वाच्च सम्यग्दर्शनं समुत्पद्यते ॥३॥
ॐ सूत्रार्थ-वह सम्यग्दर्शन निसर्ग (पर के उपदेश बिना क्षयोपशम आदि स्वाभाविक परिणाम-अध्यवसाय मात्र) से और अधिगम (पर के उपदेश आदि बाह्यनिमित्त) से उत्पन्न होता है ॥ ३ ॥
ॐ विवेचन पूर्व के सूत्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा गया है। वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। एक निसर्गसम्यग्दर्शन और दूसरा अधिगमसम्यग्दर्शन । निसर्ग यानी बाह्य निमित्त बिना स्वाभाविक । अधिगम यानी गुरु के उपदेश आदि बाह्य निमित्तपूर्वक ।
(१) बाह्य निमित्त बिना स्वाभाविक परिणाम-अध्यवसाय मात्र से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन निसर्गसम्यग्दर्शन कहा जाता है। ..
(२) गुरु-उपदेश आदि बाह्य निमित्त से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन अधिगमसम्यग्दर्शन कहा जाता है।
पदार्थों को यथार्थ रूप से जानने की रुचि संसारवर्ती जीव को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की अभिलाषाओं से होती है। जो धन, धान्य और प्रतिष्ठादि सांसारिक वासनाओं के लिए तत्त्वजिज्ञासा अर्थात् वस्तु-पदार्थ का ज्ञान होता है, वह सम्यग्दर्शन नहीं है। कारण कि उसका परिणाम मोक्ष की प्राप्ति नहीं होने से सिर्फ संसार की वृद्धि है। इसलिए कहा है कि आध्यात्मिक विकास के लिए जो तत्त्व की रुचि है वह केवल आत्मा की तृप्ति के लिए होती है, वही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति अन्तरंग और बाह्य निमित्त से होती है। आत्मा के परिणाम अन्तरंग निमित्त हैं और गुरु का उपदेश आदि बाह्य निमित्त हैं। केवल अन्तरंग निमित्त
प्रगट होने वाला सम्यग्दर्शन निसर्ग सम्यग्दर्शन है और बाह्य निमित्त द्वारा अन्तरंग निमित्त से
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
प्रगट होने वाला सम्यग्दर्शन अधिगमसम्यग्दर्शन है। ऐसा होने में तद्-तद्जीव का तथाभव्यत्व कारण है।
प्रत्येक जीव में तथाभव्यत्व भिन्न-भिन्न होने से सम्यग्दर्शनादि गुण भी भिन्न-भिन्न रीति से भिन्न-भिन्न हेतुओं से प्राप्त होते हैं। इससे किसी जीव को निसर्ग से और किसी जीव को अधिगम से सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति होती है। जिस जीव का जिस प्रकार का तथाभव्यत्व हो उसे वैसे ही मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शन आदि गुणों की प्राप्ति होती है, अनन्तर मोक्ष की भी प्राप्ति होती है।
निश्चय और व्यवहार दृष्टि से भिन्नता-आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न हुअा अात्मा का परिणाम ही निश्चय सम्यक्त्व है। वह ज्ञेयमात्र को तात्त्विक रूप से जानने की, हेय को छोड़ने की
और उपादेय को ग्रहण करने की रुचि रूप है। जिस रुचि के बल से धर्मतत्त्व की निष्ठा यानी जागृति उत्पन्न होती है वह व्यवहार सम्यक्त्व है। निश्चय और व्यवहार दृष्टि से दोनों सम्यक्त्व में पृथक्ता यानी भिन्नता है।
सम्यक्त्वी के चिह्न-जीव को सम्यग्दर्शन की अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई इसकी पहिचान के लिए पाँच लिङ्ग माने हैं, जिनके नाम हैं-प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ।
सम्यक्त्व के भेद-सम्यक्त्व के पाँच भेद हैं-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, वेदक और सास्वादन । संसारवर्ती जीव जब जगत् में प्रथम बार ही सम्यक्त्व प्राप्त करता है तब औपशमिक सम्यक्त्व पाता है।
हेतुभेद-प्रात्मा को जब सम्यग्दर्शन के योग्य आध्यात्मिक उत्क्रान्ति यानी उन्नति होती है तब सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। किन्तु उसमें इस आविर्भाव के लिए किसी जीव को बाह्य निमित्त की अपेक्षा रहती है और किसी जीव को अपेक्षा नहीं भी रहती है। जैसे कोई व्यक्ति अध्यापक यानी शिक्षक आदि की सहायता से शिल्पादि कलाओं को सीखता है और कोई व्यक्ति अन्य की सहायता बिना भी स्वयं ही सीख लेता है।
आन्तरिक हेतुओं-कारणों की समानता होते हुए भी बाह्य निमित्त की अपेक्षा और अनपेक्षा लेकर 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' में सम्यग्दर्शन को निसर्ग सम्यग्दर्शन और अधिगम सम्यग्दर्शन इन दो भेदों में विभक्त किया है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए बाह्य निमित्त भी अनेक प्रकार के होते हैं। जैसेकोई जिनेश्वर भगवान आदि की मूर्ति-प्रतिमा इत्यादि धार्मिक वस्तुओं के अवलोकन से सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। कोई गुरु के सदुपदेश से, शास्त्र के पठन-पाठन से तथा कोई सत्संग इत्यादिक से भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। निसर्ग, परिणाम, स्वभाव तथा अपरोपदेश ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। अधिगम, पागम, निमित्त, श्रवण और शिक्षा ये सब भी एकार्थवाची शब्द हैं।
सम्यक्त्व का उत्पत्तिकम-अनादिकालीन इस संसार के प्रवाह में अनन्तपुद्गलपरावर्तन पर्यन्त अनन्त दुःखों का अनुभव करते हुए जीव-प्रात्मा के तथाभव्यत्व का परिपाक हो जाने से नदीघोलपाषाणन्याय से अनाभोग से उत्पन्न हुए प्रात्मा के विशिष्ट शुभ अध्यवसाय रूप यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा जब आयुष्य बिना सात कर्मों की स्थिति घट कर सिर्फ अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण अर्थात्
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११३
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प्रथमोऽध्यायः
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९
पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होती है, तब जीव-आत्मा राग-द्वेष की ग्रन्थि (यानी राग-द्वेष के तीव्र परिणाम) के पास आता है। राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को भेद कर आगे बढ़ने के लिए जोव-प्रात्मा को वीर्योल्लास की अति आवश्यकता रहती है। राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थि तक आये हुए अनेक जीव पुनः वहाँ से पीछे फिरते हैं। वे आयुष्य बिना अन्य कर्मों की दीर्घ स्थिति को बाँधते हैं और संसार में परिभ्रमण करते हैं। कितने ही अभव्य जीव और दूरभव्यजीव इस राग-द्वेष की दुर्भेय ग्रन्थि तक आकर भी ग्रन्थि का भेद न कर सकने से पीछे फिरते हैं तथा जो ग्रन्थि तक आये हए आसन्न भव्य जीव हैं, जिनमें आध्यात्मिक विकास साधने की योग्यता प्रगटी है, वे ग्रन्थिभेद के लिए अवश्य ही प्रात्मा के अपूर्व वीर्योल्लास रूप अपूर्वकरण द्वारा राग-द्वेष की दुर्भेद्य निबिड़ ग्रन्थि को भेदते हैं। तत्पश्चाद् आत्मा के उत्तरोत्तर विशुद्ध अध्यवसाय रूप अनिवृत्तिकरण द्वारा जीव मिथ्यात्व की स्थिति पर अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण अन्तरकरण करता है।
मिथ्यात्वकर्म के दलिकों से रहित अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति को अन्तरकरण कहा जाता है। यह अन्तरकरण उदयक्षण से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त की मिथ्यात्व की स्थिति से ऊपर की
हर्त प्रमाण स्थिति में रहे हए मिथ्यात्व के दलिकों को वहां से ले लेता है और इस स्थिति को तण-घास बिना की उर्वर भूमि के समान मिथ्यात्व कर्म के दलिकों से रहित करता है। इस तरह अन्तरकरण होते हुए मिथ्यात्व कर्म की स्थिति के दो भाग होते हैं। उसमें एक भाग अन्तरकरण की नीचे की स्थिति का होता है और दूसरा भाग अन्तरकरण की ऊपर की स्थिति का होता है। नीचे की स्थिति में मिथ्यात्व का उदय होने से जीव मिथ्यादृष्टि है। उसका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण का है। वह स्थिति समाप्त होते ही अन्तरकरण प्रारम्भ हो जाता है। उसके प्रथम समय से ही जीव प्रौपशमिक सम्यक्त्व को पाता है। अब अन्तरकरण में रहा हा जीव मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दलिकों को शुद्ध करता है। इससे उसके तीन पुंज बनते हैं
(१) शुद्ध पुज, (२) अर्धशुद्ध पुंज और (३) अविशुद्ध पुज। इन तीनों पुजों के नाम इस प्रकार हैं
(१) शुद्ध पुज का नाम सम्यक्त्व मोहनीय कर्म है। (२) अर्धशुद्ध पुज का नाम मिश्र मोहनीय कर्म है। (३). अविशुद्ध पुज का नाम मिथ्यात्व मोहनीय कर्म है।
इसकी व्याख्या के लिए 'कोदरा' (कोदों) धान्य का उदाहरण कहा जाता है। जैसेनशा उत्पन्न करने वाले कोदरा को शुद्ध करते हुए उसमें से कितना ही भाग शुद्ध होता है, कितना ही भाग अर्धशुद्ध होता है और कितना ही भाग अशुद्ध ही रहता है; वैसे ही इधर भी जीव-प्रात्मा द्वारा मिथ्यात्व के दलिकों को शुद्ध करते हुए कितने ही दलिक शुद्ध होते हैं, कितने ही दलिक अर्द्धशुद्ध होते हैं तथा कितने ही दलिक अशुद्ध ही रहते हैं।
अन्तरकरण का काल पूर्ण होते ही जो शुद्ध पुज का अर्थात् सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय हो जाय तो जीव-आत्मा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पाता है, अर्द्ध शुद्ध पुज का अर्थात् मिश्र
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१० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १४ मोहनीय कर्म का उदय हो जाय तो मिश्र सम्यक्त्व पाता है तथा अशुद्ध पुज का अर्थात् मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय हो जाय तो मिथ्यात्व पाता है।
सारांश यह है कि संसार में अनेक प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हुए भव्य जीवभव्यात्मा किसी भी समय विशुद्धपरिणामी हो जाता है। इस विशुद्ध प्रात्म-परिणामधारा को ही अपूर्वकरण कहते हैं। इससे तात्त्विक पक्षपात की बाधक रागद्वेष की तीव्रता मिट जाती है तथा प्रात्मा सत्यता के लिए जागत हो जाती है। इस प्रकार की आध्यात्मिक जागति को सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व की उत्पत्ति का क्रम है। इसे विशेषता से जानने के लिए सैद्धान्तिक तथा कार्मग्रन्थिक शास्त्रों का अवलोकन करना चाहिए। क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए कार्मग्रन्थिक तथा सैद्धान्तिक दो मत हैं। इनमें कार्मग्रन्थिक मत से जीव-पात्मा सर्वप्रथम औपशमिक सम्यक्त्व ही प्राप्त करता है। सैद्धान्तिक मत से औपशमिक या क्षायोपशमिक इन दोनों में से कोई भी एक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। (१-३)
सार रूप में कहें तो अरिहन्त भगवन्तों में देवबुद्धि, कंचन एवं कामिनी के त्यागी गुरु में गुरुबुद्धि एवं जिनेश्वर प्रणीत तत्त्वों में श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। श्रद्धा जीवन के मुख्य गुणों को स्थिर कर विकास का ही साधन है। यह कोई बाह्यहेतु नहीं है, यह तो आत्मिक गुण है । श्रद्धा ही जीवन-चरित्र है एवं अयोग्य में विश्रद्धा, योग्य में सुश्रद्धा ही श्रद्धा-शुद्धि है।
तत्त्वनामानिजीवाऽजीवाऽस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४॥
* सुबोधिका टीका * जीव-अजीव-प्रास्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-इत्येष सप्तविधोऽर्थस्तत्त्वम् । अथवा एते सप्त पदार्थाः तत्त्वानि सन्ति । अर्थात् जीवः, अजीवः, आस्रवः, बन्धः संवरः निर्जरा मोक्षश्चैते सप्तसंज्ञका एव तत्त्वानि भवन्ति इत्यर्थः । एतान् लक्षणतो विधानतश्च पुरस्तात् उपदेक्ष्यामः । तत्त्वार्थसारस्यानुसारम्
सामान्यादेकधा जीवो बद्धो मुक्तस्ततो द्विधा । स एवासिद्धनोसिद्ध-सिद्धत्वात् कीर्त्यते त्रिधा ॥ २३४ ॥ श्वाभ्रतिर्यग्नरामर्त्य - विकल्पात् स चतुर्विधः । प्रशमक्षयतद्वन्द्व . परिणामोदयोद्भवात् ॥२३५ ॥ भावात्पंच - विधत्वात् स पंचभेदः प्ररूप्यते । षड्मार्गगमनात् षोढा सप्तधा सप्तभंगतः ॥ २३६ ॥
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१।४ ]
प्रथमोऽध्यायः
अष्टधाष्टगुणात्मत्वादष्ट कर्मवृतोऽपि पदार्थनवकात्मत्वान्नवधा दशजीवभिदात्मत्वादिति
* सूत्रार्थ - ( १ ) जीव, संवर, (६) निर्जरा और (७)
दशधा चिन्त्यं
[ ११
च
1
तु सः ।
यथागमम् ।। २३७ ।। (षट्पदम् )
(४) बन्ध, (५)
(२) प्रजीव, (३) श्रात्रव, मोक्ष ये सात तत्त्व हैं ॥ ४ ॥
5 विवेचन फ
_ranaप्रकरणम् इत्यादि कई ग्रन्थों में पुण्यतत्त्व और पापतत्त्व को पृथक् मानकर नौ तत्त्व कहे हैं, किन्तु यहाँ तो इनको आस्रवतत्त्व और बन्धतत्त्व के अन्तर्गत मानकर सात ही तत्त्व प्रतिपादित किये गये हैं । मूल में तत्त्व दो ही आते हैं । जोवतत्त्व और अजीवतत्त्व | सर्व सामान्य की अपेक्षा जीवद्रव्य का एक ही भेद माना है और अजीवद्रव्य के पाँच भेद माने हैं जिनके नाम हैं - ( १ ) पुद्गल, (२) धर्म, (३) अधर्म, (४) आकाश और (५) काल । इन्हीं छह को षड्द्रव्य कहने में प्राता है । किन्तु इतने से ही मोक्षमार्ग का स्पष्टीकरण नहीं होता। इसलिए सात तत्त्वों को भी अवश्य जानना चाहिए। ये सातों तत्त्व जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य के संयोग से ही निष्पन्न होते हैं ।
संक्षेप में इन सात तत्त्वों का स्वरूप इस प्रकार है - तत्त्व = तत् + त्व, उसमें 'तत्' शब्द है और 'त्व' प्रत्यय है । तत् यानी ते = अर्थात् लोक और अलोक रूप विश्व । ऐसे विश्व का त्व यानी परणा, अर्थात् ऐसे विश्व जगत् का मूल वह 'तत्त्व' है । अर्थात् - इस विश्व में जो कोई भिन्न-भिन्न पदार्थ दिखाई देते हैं और प्रत्येक प्राणी जिस तरह जीवित है तथा जिस तरह जीना चाहिए, इन प्रत्येक के जो मूल पदार्थ हैं, उन्हें 'तत्त्व' कहा जाता है । जैसे- हम जितने जीवित जीवों को देख रहे हैं, उन सभी का मूल जीव तत्त्व है; वैसे हम घट और पट इत्यादि जितनी जड़ वस्तुएँ भी देख रहे हैं, उन सभी का मूल जीव तत्त्व है ।
* तत्त्वों का सामान्य अर्थ
( १ ) जीव - 'जीवति प्राणान् धारयतीति जीब: ।' जो जीवे अर्थात् प्रारणों को धारण करे वह 'जीव' कहलाता है । अर्थात् - जो चेतना गुरण से युक्त है या जो ज्ञान और दर्शन रूप उपयोग को धारण करने वाला है, वही जीव है। विश्व - लोक में वह मुख्य तत्त्व है, इसलिए इस तत्त्व को 'जीव तत्व' कहते हैं । इसमें देव, मनुष्य, तियंच और नरकगति के सर्व जीव आते हैं । मोक्ष में भी जितने जीव हैं, वे सभी जीवतत्त्व में ही आ जाते हैं ।
(२) प्रजीव - जो जीव के लक्षण से या जीव के स्वभाव से विपरीत हो अर्थात् चैतन्य लक्षण रहित हो और सुख एवं दुःख का अनुभव भी जिसको न हो, वह जड़ लक्षण वाला श्रजीव है । वही जीव तत्त्व कहा जाता है। जितने जड़ पदार्थ विश्व में हैं, वे सभी इसी अजीव तत्त्व में श्रा जाते हैं । जैसे—धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय तथा
काल द्रव्य ।
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१२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ १४ (३) प्रास्रव-शुभकर्म का या अशुभकर्म का प्रागमन, वह प्रास्रव है।
* पा समन्तात् स्रवः 'प्रास्रवः'। अर्थात्-सर्व तरफ से स्रवना-पाना वह प्रास्रव कहा जाता है।
* पाश्रूयते-उपादीयते 'प्रास्रवः'। अर्थात्-जिससे कर्म का ग्रहण किया जाय, वह प्रास्रव है।
* अथवा, 'प्राश्नाति-प्रादत्ते कर्म यस्ते 'प्रास्रवाः'। अर्थात्-जीव जिसके द्वारा कर्म को ग्रहण करता है, वह प्रास्रव है।
* आश्रीयते-उपाय॑ते कर्म एभिरित्यास्रवाः। अर्थात्-जिसके द्वारा कर्म उपाजित किया जाय, वह प्रास्रव है।
* अथवा स्रवति क्षरति जलं सूक्ष्मरन्ध्रषु यस्ते प्रास्रवाः। अर्थात्-सूक्ष्म छिद्रों में होकर जल रूपी कर्म जो झरता है अर्थात प्रवेश करता है, वह भी प्रास्त्रव है। जैसे-नौका में पड़े हए सूक्ष्म छिद्रों के द्वारा जल का प्रवेश होने पर जैसे नौका समुद्र में डूबती है, वैसे ही इधर भी हिंसादि छिद्रों के द्वारा जीव रूपी नौका में कर्म रूपी जल का प्रवेश हो जाने से जीव संसार रूपी समुद्र में डूबता है। इसलिए कर्म का आगमन वह प्रास्रव है। इतना ही नहीं किन्तु कर्म के आने के लिए जो हिंसादि मार्ग हैं, वे भी पासव कहे जाते हैं।
सारांश यह है कि जोव और अजीव का (यानो पुद्गल का) संयोग होने पर नूतन कार्माणवर्गणाओं के आने को आस्रव कहते हैं। अथवा जिन मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा कर्म आते हैं, उनको भी प्रास्रव कहते हैं। कर्मों के प्रात्मा में आने का द्वार ही पासव है। इसमें कर्म पुद्गलों यानी कार्माण वर्गणाओं का पाना वह द्रव्य प्रासव है और द्रव्य प्रास्रव में कारणभूत मन-वचन-काया की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति (यानी योग) वह भाव पासव है।
(४) बन्ध-जीवात्मा और कर्म के एकक्षेत्रावगाह को बन्ध कहते हैं । अर्थात् जीव-प्रात्मा के साथ कर्मपुद्गलों का क्षीरनीरवत् एकमेकरूप जो सम्बन्ध होता है, वह 'द्रव्यबन्ध' है तथा द्रव्य सम्बन्ध में कारणभूत जीव-प्रात्मा का अध्यवसाय परिणाम है, वह 'भावबन्ध' है।
(५) संवर-संवियते कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन सः संवरः शुभ या अशुभ कर्मों के न आने को अथवा आत्मा के जिन परिणामों के निमित्त से शुभाशुभ कर्मों का आना रुक जाय उसे संवर कहते हैं । या कर्म और उसका हेतु प्राणातिपातादि जो आत्म परिणाम द्वारा संवराय, रोका जाय उसे संवर कहते हैं । अर्थात्-जीव-आत्मा में आते हुए कर्मों को जो रोकता है वह संवर है। समिति-गुप्ति प्रादि द्रव्यसंवर है तथा द्रव्यसंवर से उत्पन्न होता हा जीवआत्मा का परिणाम या द्रव्यसंवर के कारणभूत जीव-प्रात्मा का परिणाम वह भावसंवर है। अथवा शुभाशुभ कर्मों का जीव-प्रात्मा में न आना वह द्रव्यसंवर है और द्रव्यसंवर में कारणरूप समिति-गुप्ति आदि भावसंवर है। सारांश यह है कि प्रास्रव का जो निरोध होता है, वह संवरतत्त्व है।
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१।४ ]
प्रथमोऽध्यायः
[ १३
(६) निर्जरा - निर्जरणं विशरणं परिशटनं निर्जरा ।' अर्थात् - कर्म का बिखरना, भरना, सड़ना, विनाश को प्राप्त करना यही निर्जरा तत्त्व है । कर्मों का एकदेशरूप से जीव- श्रात्मा से सम्बन्ध छूट जाने को निर्जरा कहते हैं । श्रात्मप्रदेशों से कर्मपुद्गलों का जो मुक्त होना, यही द्रव्यनिर्जरा है । द्रव्यनिर्जरा में काररणभूत जीव-प्रात्मा के शुद्ध परिणाम, या द्रव्यनिर्जरा से उत्पन्न होता हुआ आत्मा का शुद्ध अध्यवसाय यानी परिणाम, यह भावनिर्जरा है ।
(७) मोक्ष - जीव - प्रात्मा से कर्मों के सम्बन्ध के सर्वथा छूट जाने को मोक्ष कहते हैं । अर्थात् - कर्मों का सर्वथाक्षय हो जाना वह द्रव्य मोक्ष है तथा कर्मों के सर्वथा क्षय होने में कारण रूप जो आत्मा का निर्मल अध्यवसाय - परिणाम यानी सर्वसंवरभाव, श्रबन्धकता, शैलेशीभाव या चतुर्थ शुक्लध्यान है, वह भावमोक्ष है । अथवा आत्मा में सिद्धत्व परिणति है, वह भी भावमोक्ष है । सारांश यह है कि आत्मा में रहे हुए समस्त कर्मों का क्षय वह द्रव्यमोक्ष है और द्रव्यमोक्ष में कारणभूत आत्मा के निर्मल परिणाम, या द्रव्यमोक्ष से होता आत्मा का निर्मल परिणाम, वह भावमोक्ष है ।
* तत्त्वों का प्रयोजन
इस शास्त्र का मुख्य विषय मोक्ष है । मोक्ष के अर्थी जीवों के लिए जिन वस्तु-पदार्थों का ज्ञान प्रति आवश्यक है, उन्हीं वस्तुनों को यहाँ पर तत्त्व स्वरूप में प्रतिपादित किया है। इस ज्ञान की पूर्ति के लिए इधर सात तत्त्वों का कथन है ।
जीवत्व के कथन से मोक्ष के अधिकारी का निर्देश होता है । श्रजीवतत्त्व के कथन से ऐसा सूचित होता है कि विश्व में एक ऐसा भी तत्त्व है कि जो जड़ होने से मोक्षमार्ग के उपदेश का अधिकारी नहीं है । बंधतत्त्व के कथन से मोक्ष के विरोधी भाव और प्रास्वतत्त्व के कथन से यही विरोधी भाव का कारण बताया है । संवरतत्त्व के कथन से मोक्ष का कारण और निर्जरातत्त्व के कथन से मोक्ष का क्रम बताया है ।
इन तत्त्वों को जानकर हेय तत्त्व का त्याग करना चाहिए और उपादेय तत्त्वों का सेवन करना चाहिए । विश्व में हेय तत्त्वों का त्याग और उपादेय तत्त्वों का सेवन-ग्रहण; यही तत्त्वज्ञान का प्रयोजन है ।
आगमशास्त्रों में कहा है कि सर्व तत्त्व ज्ञेय हैं। जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये चार तत्त्व उपादेय हैं तथा जीव, प्रास्रव और बन्ध ये तीन तत्त्व हेय हैं। नौ तत्त्वों की अपेक्षा विचारेंगे तो पापतत्त्व सर्वथा हेय है और पुण्यतत्त्व अपेक्षा से हेय है तथा उपादेय भी है । अशुद्ध पुण्य सर्वथा यही है । शुद्ध पुण्य तो व्यवहार से अमुक कक्षा पर्यन्त ही उपादेय है । शुद्ध पुण्य भोमिया के समान जीव- श्रात्मा को आध्यात्मिक विकास साधने में सहायक होता है तथा कार्य पूर्ण होते ही चला जाता है । इसलिए अपेक्षा से पुण्य उपादेय है, ऐसा कहा है, किन्तु निश्चय से तो शुद्ध पुण्य भी है है । कारण कि वह जीव- श्रात्मा की स्वतन्त्रता को रोकता है। श्रागमशास्त्र में पुण्य कर्म को सुवर्ण की बेड़ी के समान कहा है और पाप कर्म को लोहे की बेड़ी के समान कहा है। सभी कर्म जीव आत्मा की स्वतन्त्रता को रोकते हैं, इसलिये कर्ममात्र बेड़ी के समान है । जहाँ तक जीवश्रात्मा कर्मों की बेड़ी में बँधा हुआ है, वहाँ तक परतन्त्र ही है ।
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१४ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[
११४
* तत्त्वों का सम्बन्ध * प्रश्न-जीवादितत्त्वों का परस्पर सम्बन्ध कैसा है ? इसके उत्तर में कहा है कि जीवतत्त्व में अजीव तत्त्व कर्म का प्रास्रव-प्रवेश होता है। इससे कर्म का बन्ध पड़ता है। जीव-प्रात्मा के साथ अजीव-कर्मपुद्गल क्षीरनीर के समान एकाकार बन जाते हैं। जब कर्म का उदय होता है तब जीव को संसार में परिभ्रमण और दुःख का अनुभव होता है। इसलिए दुःख का मूल कारण प्रासव तत्त्व है। इसे दूर करने के लिए प्रात्मा को प्रास्रव का निरोध करना चाहिए। अर्थात् आस्रव द्वारा प्राते हुए कर्म को संवर द्वारा हटाना चाहिए। आस्रव का द्वार बन्द करने में संवर ही काम करता है। अब पूर्व काल में बँधे हए कर्मों का विनाश करने के लिए निर्जरातत्त्व की आवश्यकता है। संवरतत्त्व और निर्जरातत्त्व से प्रात्मा सर्वथा कर्मरहित हो जाता है। जीव-प्रात्मा की सर्वथा कर्म रहित जो अवस्था है वही मोक्ष है।
* तत्त्वों में संख्याभेद * जीवादि नौ तत्त्वों का एक-दूसरे में यथायोग्य समावेश करने से सात तत्त्व, पाँच तत्त्व, अथवा दो तत्त्व भी गिने जाते हैं। जैसे—शुभ कर्म का प्रास्रव वह पुण्य है और अशुभ कर्म का आस्रव वह पाप है। इस कारण से पुण्यतत्त्व और पापतत्त्व को प्रास्रवतत्त्व में गिनें तो सात तत्त्व होते हैं।
अथवा, प्रास्रवतत्त्व, पूण्यतत्त्व और पापतत्त्व को बन्धतत्त्व में गिनें; तथा निर्जरा और मोक्ष इन दोनों में से कोई भी एक गिनें तो पाँच तत्त्व होते हैं। अथवा, संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व और मोक्षतत्त्व ये तीन जीवस्वरूप हैं। इसलिए जीवतत्त्व में इन तीनों को गिनें तो (१) जीवतत्त्व और (२) अजीवतत्त्व ये दो ही तत्त्व हैं। इत्यादि विवक्षाभेद होते हुए भी प्रस्तुत इस शास्त्र ग्रन्थ में तो सात तत्त्वों का ही नाम निर्देशपूर्वक निरूपण किया है।
* तत्त्वों में जीव और अजीव * जीव यह जीवतत्त्व है। संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीन तत्त्व भी जीवस्वरूप (यानी जीवपरिणाम) होने से या जीव के स्वभाव रूप होने से जीवतत्त्व हैं। इसलिए जीव, संवर, निर्जरा
और मोक्ष ये चार जीवतत्त्व हैं। शेष पाँच तत्त्व अजीव हैं। उनमें पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध ये चारों कर्म के परिणाम होने से अजीव हैं। अर्थात ये चारों अजीवतत्त्व में गिने जाते हैं।
* तत्त्वों में रूपी और अरूपी * विश्व में वास्तविक रीति से जीवतत्त्व अरूपी ही है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में तो देहधारी होने से रूपी भी कहा है। संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व और मोक्षतत्त्व ये तीन जीव के परिणाम रूप होने से अरूपी हैं तथा पुण्यतत्त्व, पापतत्त्व, प्रास्रवतत्त्व एवं बन्धतत्त्व ये चारों कर्म के परिणाम होने से रूपी हैं। अजीवतत्त्व में रूपी और अरूपी दोनों प्रकार पाते हैं। कारण कि धर्मास्तिकाय इत्यादि प्ररूपी हैं और केवल एक पूदगल द्रव्य ही रूपी है। इस कारण से 'नवतत्त्व प्रकरण' में अजीवतत्त्व के चार भेद रूपी और दस भेद अरूपित्व से कहे हैं।
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११४ ] प्रथमोऽध्यायः
[ १५ * तत्त्वों में हेय, ज्ञेय और उपादेय * श्री नवतत्त्व प्रकरण ग्रन्थ में नवतत्त्वों के नामों का निर्देश इस प्रकार है
जीवाऽजीवा पुण्णं, पावाऽऽसंवरो य निज्जरणा।
बन्धो मुक्खो य तहा, नवतत्ता हुंति नायव्वा ॥१॥ अर्थ-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर और निर्जरा तथा बन्ध और मोक्ष; ये नवतत्त्व जानने योग्य हैं।
__ - * यन्त्र *
संख्या
नौ तत्त्वों के नाम | हेय ज्ञेय | उपादेय | जीव | अजीव | रूपी | अरूपी
जीवतत्त्व
अजीवतत्त्व
पुण्यतत्त्व
पापतत्त्व
प्रास्रवतत्त्व
संवरतत्त्व
निर्जरातत्त्व
बन्धतत्त्व
मोक्षतत्त्व
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श्रोतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १५ अब इन नवतत्त्वों में हेय, ज्ञेय और उपादेय कौन-कौन हैं ? तो कहते हैं कि-जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व दोनों ज्ञेय यानी जानने योग्य हैं।
पुण्यतत्त्व मोक्ष में विघ्नरूप नहीं है, तो भी मोक्ष के मार्ग में भोमिया (वलावा) समान है। इसलिए व्यवहारनय से उपादेय यानी अादरणीय है, किन्तु मार्ग दिखाने वाले भोमिया को इष्ट नगर पहुँचने के पश्चाद् जैसे छोड़ देते हैं, वैसे ही इधर भी निश्चयनय से तो पुण्यतत्त्व भी हेय यानी छोड़ने योग्य है। कारण कि पुण्यतत्त्व शुभकर्म होते हुए भी सोने की बेड़ी समान है और पापतत्त्व लोहे की बेड़ी के समान है। पुण्य और पाप दोनों कर्मों का सर्वथा क्षय जब हो जाय तब ही आत्मा की मुक्ति होती है। निश्चय से तो पुण्यकर्मरूप पुण्यतत्त्व हेय यानो छोड़ने योग्य होते हुए भी श्रावक-श्राविकानों को उपादेय यानी आदर के योग्य हैं। श्रमण-श्रमणियों को तो अपवाद मार्ग ही आदरने योग्य है तथा पापतत्त्व हेय यानी छोड़ने योग्य है। आस्रवतत्त्व कर्म के प्रागमन रूप होने से हेय है और संवरतत्त्व तथा निर्जरातत्त्व ये दोनों तत्त्व जीव-आत्मा के स्वभाव रूप होने से उपादेय हैं। बन्धतत्त्व हेय है और मोक्षतत्त्व उपादेय है।
वास्तविक रीति से नवतत्त्व ज्ञेय हैं। तो भी विशेष रूप में कहा है कि
हेया बंधासवपावा, जीवाऽजीव हुंति विनया।
संवर-निज्जर मुक्खो, पुण्णं हुंति उवाएए ॥१॥ अर्थात्-(१) (पुण्य), पाप, प्रास्रव और बन्धतत्त्व हेय में जानना। (२) जीव और अजीवतत्त्व ज्ञेय में जानना। (३) संवर, निर्जरा, मोक्ष और पुण्यतत्त्व उपादेय में जानना।
* तत्त्वानां निक्षेपस्य निर्देशः * नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः॥५॥
* सुबोधिका टीका * जीवादीनां तत्त्वानां पदार्थानां नामादिभिश्चतुभिरनुयोगद्वारासो निक्षेपो व्यवहारो भवति । विस्तरेण लक्षणं भेदञ्च ज्ञातु विभागीकरणमेव, न्यासो निक्षेपः कथ्यते इत्यर्थः । तद्यथा-नामजीवः स्थापनाजीवो द्रव्यजीवो भावजीवश्चेति । अनर्थान्तरमिति नाम संज्ञा कर्म ।
(१) सचेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य 'जीव' इति नामकरणं नामजीवः । अथवा-यस्य जीवस्यऽजीवस्य वा नाम क्रियते द्रव्यमिति तन्नामद्रव्यं ज्ञेयम् । अत्र नामनिक्षेपो वर्त्तते ।
(२) यः काष्ठपुस्तकचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु 'जीव' इत्येवंरूपा स्थापना स
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११५ ] . प्रथमोऽध्यायः
[ १७ स्थापना जीवः । अथवा-यत् काष्ठपुस्तकचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते द्रव्यमिति तत् स्थापनाद्रव्यं ज्ञेयम् । यथा-देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो रुद्रः स्कन्दो विष्णुरिति । अत्र स्थापना निक्षेपो वर्तते।
(३) द्रव्यजीव इति गुणपर्यायरहितः, बुद्धया परिकल्पितोऽनादिपारिणामिकभावसंयुक्तो जीवः स एव द्रव्यजीवः । अथवा-द्रव्यं द्रव्यनाम गुणपर्यायरहितं प्रज्ञास्थापितं धर्मादीनामन्यतमत् । अत्र केचिदप्याहुः-यद् द्रव्यतो द्रव्यं भवति तच्च पुद्गलद्रव्यमेवेति । यथा सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते अरणवः स्कन्धाश्चेति । तद्भङ्गः शून्यमेवप्रतिभाति । यतोऽजीवस्य यदि सजीवत्वं भवेत् तदैव द्रव्यजीव इति कथ्येत तद् भवितुन्नार्हति । अत्र हि द्रव्य निक्षेपो वर्तते ।
(४) भावतो जीवा औपशमिक-क्षायिक-क्षायौपशमिकौदयिक-पारिणामिकभावसंयुक्ता उपयोगलक्षणा एव। सोऽपि संसारिणो मुक्ताश्च द्विविधाः । एवमजीवादिषु सर्वपदार्थेषु ज्ञातव्यमिति । अत्र हि भावनिक्षेपो वर्त्तते ।
एवं निखिलानामनादीनामादिमतां च जीवाऽजीवादीनां भावानां मोक्षपर्यन्तानां तत्त्वार्थाधिगमार्थं न्यासः कार्यः, अर्थात् निक्षेपः कार्य इति ।। ५ ।।
* सूत्रार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार अनुयोगों के द्वारा जीवादितत्त्वों का न्यास-निक्षेप अर्थात् लोकव्यवहार होता है ॥५॥
卐 विवेचन ॥ विश्व के सर्व व्यवहार और ज्ञान-भाव के लिए मुख्य साधन भाषा ही है। वह भाषा शब्दों से बनती है। वे शब्द प्रयोजन अथवा प्रसंग के अनुसार अनेक अर्थ वाले होते हैं। इसलिए इनके ज्यादा विभाग न कर सकें तो भी कम से कम चार विभाग अवश्य ही करने चाहिए। लक्षण और भेदों के द्वारा विश्व के पदार्थों का ज्ञान जिससे विस्तार के साथ हो सके, ऐसे व्यवहार रूप उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं। इनके अवबोध से जिज्ञासुओं को तात्पर्य समझने में सरलता होती है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों के द्वारा जीवादितत्त्वों के न्यास-निक्षेप-व्यवहार का निर्देश है। इससे यह ज्ञात होगा कि जो शब्द सम्यग्दर्शन और विश्व के जीवादितत्त्वों में व्यवहत किये जाते हैं, वे मोक्ष की और मोक्षमार्ग की सार्थकता को कैसे प्राप्त करा सकते हैं, उनका दिग्दर्शन इन नामादि चार निक्षेपों से कराते हैं
(१) नामनिक्षेप-वस्तु-पदार्थ का जो नाम होता है वह नामनिक्षेप है अर्थात् जिस शब्द की व्युत्पत्ति आदि से भी सार्थकता सिद्ध नहीं होती है, केवल लोकरूढ़ि से ही संकेतित है उसको नामनिक्षेप कहते हैं। जैसे-जीव या अजीव किसी भी द्रव्य की 'जीव' ऐसी संज्ञा रख देने से उसको नामजीव कहते हैं।
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१८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११५ (२) स्थापना निक्षेप-स्थापना यानी आकृति-प्रतिबिम्ब । किसी भी काष्ठ, पुस्त, चित्र, अक्ष निक्षेपादि में 'यह जीव है' इस तरह का जो प्रारोपण करते हैं, उसे स्थापना जीव कहते हैं। जैसे-देवताओं की मूत्ति-प्राकृति आदि में कि ये इन्द्र हैं, ये रुद्र हैं, ये स्कन्द हैं, या ये विष्णु हैं, इत्यादि। किसी भी वस्तु-पदार्थ में अन्य वस्तु-पदार्थ का आरोपण करने को 'वह यही वस्तु-पदार्थ है' स्थापना निक्षेप कहते हैं। चाहे वह वस्तु उसके समान आकार को धारण करने वाली हो या न हो तो भी। जैसे-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आकार वाली मूत्ति-प्रतिमा में यह प्रारोपण करना कि ये वे ही श्रमण भगवान महावीर स्वामी हैं, जिन्होंने देवरचित दिव्य समवसरण में बैठकर जगत की जनता को मोक्ष के मार्ग का सद्धर्मोपदेश दिया था। इसको साकार में स्थापना निक्षेप समझना चाहिए और कोई शतरंजादि मोहरों में जो राजा, मन्त्री, हाथी, घोडा आदि का प्रारोपण करते हैं, उसको अतदाकार में स्थापना निक्षेप कहना चाहिए। इधर प्रश्न यह होगा कि नाम और स्थापना निक्षेप में गूगों की अपेक्षा नहीं रखी जाती है, तो फिर दोनों में अन्तर क्या ? इसका उत्तर यह है कि नामनिक्षेप में गुणों की अपेक्षा का जैसा सर्वथा अभाव है, वैसा स्थापना निक्षेप में नहीं है। कारण कि नाम रखने में किसी प्रकार का नियम नहीं है, किन्तु स्थापना के लिए तो अनेक प्रकार के नियम कहे हैं और अन्य बात यह भी है कि नाम में आदरसत्कार का अनुग्रह नहीं होता है, किन्तु स्थापना में वह अवश्य ही होता है। जिस मूत्ति-प्रतिमा में जिसकी स्थापना की गई है, सो उस मूर्ति का भी तद्समान ही आदर-सत्कार-बहुमान होता है । जैसे-श्री ऋषभदेव भगवान की मूत्ति में ऋषभदेव भगवान की स्थापना की गई है, तो उस मूत्तिप्रतिमा का भी अवश्य ही श्री ऋषभदेव भगवान के समान आदर-सत्कार बहुमान किया जाता है।
(३) द्रव्यनिक्षेप-वस्तु-पदार्थ की भूतकाल की या भविष्यत्काल की जो अवस्था है, वही द्रव्यनिक्षेप है। अर्थात् जो अर्थ भावनिक्षेप की पूर्व अवस्था रूप हो या उत्तर अवस्था रूप हो, उसे ही द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। सारांश यह है कि किसी भी वस्तु-पदार्थ की आगे जो पर्याय होने वाली है, उसको पूर्व से ही उस पर्याय रूप कहना इसको द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। जैसे-किसी राजपुत्र को या युवराज को राजा कहना। क्योंकि वह वर्तमानकाल में राजा नहीं है, किन्तु भविष्यत्काल में होने वाला है। इसलिए उसको वर्तमानकाल में राजा कहना यह द्रव्यनिक्षेप का विषय है। अथवा अतीत अनागत पर्याय रूप से वर्तमान वस्तु-पदार्थ के व्यवहार करने को द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। जैसे-राज्य छोड़ देने वाले को भी राजा-महाराजा कहना, भूतपूर्व महाराजा इत्यादि । वह द्रव्यनिक्षेप है।
(४) भावनिक्षेप-विश्व में रही हुई वस्तु-पदार्थ की वर्तमान अवस्था। अर्थात् किसी भी वस्तु-पदार्थ का उसकी वर्तमान पर्याय की अपेक्षा कथन करना सो ही भावनिक्षेप है। सारांश यह है कि जो शब्द पूर्ण रूप से व्यापत्ति और प्रवृत्ति से अर्थयुक्त हो, उसको भावनिक्षेप कहते हैं । जैसे कि वर्तमान में राज्य करता है, इसलिए उसको राजा कहना। अथवा मनुष्य पर्याय युक्त जीव को मनुष्य कहना, इत्यादि ।
जिस तरह से इन नामादि चार निक्षेपों को यहाँ पर जीव द्रव्य की अपेक्षा घटित करके बताया है, उसी तरह विश्व के सर्व द्रव्यों और उनकी पर्यायों तथा सम्यग्दर्शन इत्यादि की अपेक्षा भी
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१।६ ]
प्रथमोऽध्यायः
[ १६
घटित करना चाहिए। जीवादि तत्त्वों का भी नामादि चार निक्षेप जान करके अर्थ का विभाग करना चाहिए, किन्तु मोक्षमार्ग के लिए तो उनको एकभावरूप जानें । कारण कि भावनिक्षेप बिना प्रथम के तीनों निक्षेप निष्फल हैं । निक्षेप जो हैं वे मूल वस्तु-पदार्थ के पर्याय हैं, इतना ही नहीं किन्तु स्वधर्म हैं । इसलिए तो विशेषावश्यक भाष्य में कहा है कि - ' चत्तारो वत्थु पञ्भवा ।' श्रीश्रनुयोगद्वार सूत्र में भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।
द्रव्य और भाव ये दोनों निक्षेप सापेक्ष हैं । इसलिए तो एक ही वस्तु-पदार्थ का एक अपेक्षा से द्रव्यनिक्षेप में और दूसरी अपेक्षा से भावनिक्षेप में भी समावेश किया जाता है । जैसे- दधि यानी दही शिखण्ड की अपेक्षा से द्रव्य शिखण्ड है, दूध की अपेक्षा से द्रव्य दूध है और दही की अपेक्षा से भाव दही है । इसी तरह अन्य घट, पट इत्यादि में भी समझना । यहाँ पर इतना ध्यान अवश्य ही रखना है कि जो वस्तु भावनिक्षेप से पूज्य या त्याज्य है, उस वस्तु के अन्य तीन निक्षेप भी पूज्य या त्याज्य हैं ।। ५ ।।
* तत्त्वज्ञानस्योपायः
प्रमाण - नयैरधिगमः ॥ ६ ॥
* सुबोधिका टीका
पूर्वोक्त-जीवादितत्त्वानां प्रमाणाद् नयाद् वा श्रधिगमं ज्ञानं जायते । न पदार्थस्य सर्वदेशानां अर्थात् प्रत्येकमंशस्य ज्ञानं भवति तत् प्रमाणम्, एवं येन पदार्थस्य केवलमेकदेशः अर्थात् कश्चिदेवांशो ज्ञायते स नयः कथ्यते । तत्र प्रमाणं द्विविधं परोक्षं प्रत्यक्षं चाऽग्रे वक्ष्यते । नयवादान्तरेण । नयाश्च नैगमादयोऽपि अग्रे वक्ष्यन्ते एव ।। ६ ।।
* सूत्रार्थ - [ जीवादि तत्त्वों-पदार्थों का ] प्रमारण और नयों से अधिगम होता है। अर्थात् ज्ञान-बोध होता है । उसमें प्रमाण वस्तु-पदार्थ के सर्वांश को ग्रहण करता है और नय वस्तु-पदार्थ के एक अंश को ग्रहण करता है ॥ ६ ॥
5 विवेचन 5
जिससे वस्तु का निर्णयात्मक बोध होता है, वह ज्ञान है । विश्व में किसी भी वस्तु का निर्णयात्मक अधिगम-ज्ञान-बोध प्रमाण और नय द्वारा ही होता है । इसलिए प्रमाण और नय ज्ञान स्वरूप ही हैं । अर्थात् जीवादि तत्त्वों के जानने का ज्ञानरूप उपाय - साधन प्रमाण और नय इस तरह दो प्रकार का है। जिससे वस्तु के नित्य - अनित्यादि अनेक धर्मों का निर्णयात्मक ज्ञान- बोध होता है, उसे 'प्रमाण' कहते हैं तथा जिससे वस्तु के नित्य श्रनित्यादि किसी भी एक धर्म का निर्णयात्मक ज्ञान-बोध होता है, उसे 'नय' कहते हैं । अर्थात् सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और प्रमाण के एकदेश- अंश को नय कहा जाता है ।
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२० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १७ प्रमाण से वस्तु का पूर्ण बोध होता है और नय से वस्तु का प्रपूर्ण या आंशिक बोध होता है। जैसे कि 'प्रात्मा नित्य है कि अनित्य है ?' इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि-'पात्मा नित्याऽनित्य है।' इस प्रमाण वाक्य से नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म की दृष्टि से प्रात्मा का पूर्ण रूप से बोध
है। 'प्रात्मा नित्य है' इस प्रकार के नय वाक्य से प्रात्मा का केवल नित्य रूप से बोध होता है, किन्तु 'प्रात्मा अनित्य भी है' ऐसा बोध नहीं होता है। इस तरह 'प्रात्मा अनित्य है' इस प्रकार के नयवाक्य से आत्मा का अनित्य रूप में बोध होता है, किन्तु 'आत्मा नित्य भी है' ऐसा बोध नहीं होता है। कारण कि नय वस्तु-पदार्थ के एक ही अंश को ग्रहण करता है अतः वस्तु पदार्थ का पूर्ण रूप से बोध नहीं होता।
प्रमाण के अनेक भेद होने पर भी सामान्य रूप से दो भेद प्रतिपादित किये गये हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष । जो पर-आत्मा से भिन्न इन्द्रिय या मन की सहायता से उत्पन्न होता है, उस ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहते हैं तथा जो पर की सहायता बिना केवल प्रात्मा से ही उत्पन्न होता है, उस ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं । प्रमाण और नय दोनों ज्ञानस्वरूप हैं तो भी दोनों में महान् अन्तर है। कारण कि एक गुण के द्वारा अशेष वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण है और दूसरा वस्तु के एक अंशविशेष को ग्रहण करने वाला नय है। दोनों में यही महान् अन्तर है। इसलिए परोक्षज्ञान और प्रत्यक्षज्ञान दोनों में सकलादेश और विकलादेश का अन्तर समझना चाहिए। इस तरह तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नय के द्वारा होता है, ऐसा सामान्य रूप से इस सूत्र में कहा है। अब विशेष रूप से तत्त्वों का प्रधिगम-ज्ञान करवाने वाले द्वारो का निर्देश प्रागे के सूत्र में करते हैं ।।६।।
__* विशिष्टतत्त्वज्ञानप्राप्त्यर्थ षवाराणां निर्देशः * निर्देश-स्वामित्व-साधना-धिकरण-स्थिति-विधानतः ॥ ७॥
ॐ सुबोधिका टीका * [१] निर्देशः पदार्थस्वरूपाभिधानम्, [२] स्वामित्वं प्राधिपत्यम्, [३] साधनं उत्पत्ति - निमित्तं कारणमित्यर्थः, [४] अधिकरणं आधारम्, [५] स्थितिः कालप्रमाणम्, तथा [६] विधानम् प्रकार, भेदसङ्ख्या एव । एभिश्च निर्देशादिभिः षड्भिरनुयोगद्वारैः सर्वेषां भावानां जीवाऽजीवादीनां तत्त्वानां विकल्पशो विस्तृतरूपेणाधिगमो ज्ञानं भवतीति । तद्यथा
[१] निर्देशः । को जीवः ? औपशमिकादिभावसहितो द्रव्यं जीवः, आत्मेत्यर्थः। अत्र सम्यग्दर्शनविषयसम्बन्धत्वात् कथयति । किं सम्यग्दर्शनम् ? गुणो द्रव्यं वा। तस्य किं स्वरूपमाह-सम्यग्दृष्टिजीवोऽरूपी एव, तस्मात् नोस्कन्धरूपो वर्तते नोग्रामरूपोऽपि वर्तते ।
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प्रथमोऽध्यायः
[ २१
[२] स्वामित्वम् - कस्य सम्यग्दर्शनम् ? एतद् सम्यग्दर्शनं श्रात्मसंयोगेन परसंयोगेन तथा द्वयोः संयोगेनापि प्राप्तो भवति । तेषु श्रात्मसंयोगेन जीवस्य सम्यग्दर्शनं वाच्यम् । परसंयोगेन जीवस्याऽजीवस्य जीवयोरजीवयोः, जीवानामजीवानां चेति विकल्पाः सम्यग्दर्शनं वाच्यम् । उभयसंयोगेन जीवस्य नोजीवस्य, जीवयोरजीवयोः, जीवानामजीवानां चेति विकल्पा न सन्ति । शेषास्तु सन्ति एव ।
१।७]
[३] साधनम् - केन भवति सम्यग्दर्शनम् ? निसर्गाद् श्रधिगमाद् वा सम्यग्दर्शनं भवति । इमे ऽपि दर्शनमोहनीय कर्मणां क्षयाद् उपशमाद् क्षयोपशमाच्च भवतः ।
[४] श्रधिकरणम् - त्रिप्रकारकं भवति । तद्यथा - आत्मसन्निधानं, परसन्निधानं, उभयसन्निधानं च । तेषु आत्मसन्निधानं अर्थात् अभ्यन्तरसन्निधानम्, परसन्निधानंअर्थात् बाह्यसन्निधानम्, उभयसन्निधानं च बाह्याभ्यन्तरसन्निधानं कथ्यते ।
कस्मिन् सम्यग्दर्शनं भवति ? आत्मसन्निधानापेक्षायां तावद् जीवे सम्यग्दर्शनं भवति । सम्यग्ज्ञानं सम्यग्चारित्रमपि । बाह्यसन्निधानापेक्षायां तावद् जीवे सम्यग्दर्शनं नोजीवे सम्यग्दर्शनमिति पूर्वकथिता विकल्पा ज्ञातव्या । उभयसन्निधानापेक्षायां चाप्यभूताः सद्भूताश्च पूर्वकथिता भङ्गविकल्पा इति ।
[५] स्थिति:- कियन्तं कालं सम्यग्दर्शनं तिष्ठति ? सम्यग्दृष्टिः सादि- सान्तस्तथा साद्यनन्तः इति द्विविधा भवति । सम्यग्दर्शनं [ क्षयोपशमसम्यक्त्वं ] सादिसान्तमेवास्ति । एतत् तु जघन्यतोऽर्थाद् न्यूनातिन्यूनमन्तर्मुहूत्तं, उत्कृष्टतोऽर्थादधिकं षट्षष्टिसागरोपमकालात् किञ्चिदधिकं तिष्ठति । क्षायिकसम कितीछद्मस्थजीवस्य सम्यग्दृष्टिः सादिसान्तः, सयोगी प्रयोगी - केवलीनां सिद्धानां च सम्यग्दृष्टिः सादि अनन्तो भवति ।
[६] विधानम् - कतिविधा भेदाः सम्यग्दर्शनस्य ? हेतुभेदस्यापेक्षायाः त्रैविध्यात् क्षयादित्रिविधं सम्यग्दर्शनम् । तस्यावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य कर्मणो क्षयादिभ्यश्चेति । तद्यथा - क्षायिकसम्यग्दर्शनं, प्रपशमिकसम्यग्दर्शनं, क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनमिति अत्र च औपशमिकं, क्षायोपशमिकं तथा क्षायिकमिति त्रिप्रकारकं सम्यक्त्वमुत्तरोत्तरं विशुद्ध ं भवति ।। ७ ।।
* सूत्रार्थ - [१] निर्देश, [२] स्वामित्व, [३] साधन, [४] अधिकरण,
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२२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १७
[५] स्थिति और [६] विधान । इन छह अनुयोग' द्वारों से जीवादि तत्त्वों का
ज्ञान होता है ।। ७ ।
5 विवेचन 5
पूर्व सूत्र में जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नय से होता है, इस तरह - सामान्य रूप से कहा है । अब विशेष रूप से तत्त्व सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के लिए छह द्वारों का निर्देश करते हैं
(१) निर्देश - यानी वस्तु पदार्थ स्वरूप का कथन ।
(२) स्वामित्व - यानी श्राधिपत्य ( स्वामी मालिक ) ।
(३) साधन - यानी कारण, अर्थात् उत्पन्न होने वाले निमित्त ।
(४) अधिकरण - यानी आधार, अर्थात् रहने का स्थान ।
(५) स्थिति - यानी काल - समय का प्रमाण ।
(६) विधान - यानी प्रकार ( भेदों की संख्या) ।
इन छह द्वारों से जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है । 'सम्यग्दर्शन' यह आत्मा का गुण है। उसकी विचाररणा इन छह द्वारों से इस प्रकार की है
(१) सम्यग्दर्शन गुण 'से जीव आत्मा विवेकी और पारमार्थिक ज्ञान वाला बनता है तथा य एवं उपादेय का विवेक कर सकता है। इस गुरण की प्राप्ति से जीव आत्मा का चौरासी लाख जीवायोनि में संसार-परिभ्रमण परिमित बन जाता है, अर्थात् मर्यादित होता है । (२) सम्यग्दर्शन गुण जीव- श्रात्मा का ही है । इसलिए उसका स्वामी (मालिक) जीव- श्रात्मा ही होता है, अजीव कभी नहीं हो सकता । ( ३ ) सम्यग्दर्शन गुरण की उत्पत्ति जीव- प्रात्मा में निसर्ग से यानी स्वाभाविक रूप से और अधिगम से यानी परोपदेशादि निमित्त से होती है । अथवा मिथ्यात्वमोहनीय कर्म और अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान- माया लोभ रूप चार कषायों के क्षयोपशम से या उपशम आदि से होती है । ( ४ ) सम्यग्दर्शन गुरण जीव-प्रात्मा में ही प्रगट होता है, इसलिए उसका अधिकरण यानी आधार जीव- आत्मा ही है । (५) जीव- प्रात्मा में प्रगटे हुए सम्यग्दर्शन गुरण का काल सादि श्रनन्त है ।
पशमिक सम्यक्त्व गुरण का काल जघन्य से या उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त्त का है तथा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व गुरण का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट से साधिक ६६ सागरोपम का है । जैसे कि मनुष्य भव में पूर्वक्रोड़ वर्ष के प्रायुष्य वाला जीव - प्रात्मा आठ वर्ष की वय में सम्यक्त्व पाकर, अनुत्तर देवलोक में विजयादि चारों विमानों में से किसी एक विमान में उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हो जाय । देवायुष्य पूर्ण होने के पश्चाद् वहाँ से व्यव कर और मनुष्यभव में प्राकर पुन: विजयादि में उत्पन्न होकर, फिर वहाँ से च्यव कर पुनः मनुष्यगति में आकर सकल कर्म का क्षय करके मोक्ष में जावे तो वहाँ पर ६६ सागरोपम से अधिक काल हो जाता है । अथवा अनुत्तर देवलोक में न जाकर तीन बार अच्युत देवलोक में उत्पन्न हो जाय तो भी ६६ सागरोपम के काल में मनुष्यभव का काल
१. जानने के उपायों को अनुयोग कहा जाता है । २. लक्षण या स्वरूप के कथन को निर्देश कहते हैं ।
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१७ ] प्रथमोऽध्यायः
[ २३ मिलाने से अधिक हो जाता है। इसलिए उत्कृष्ट से साधिक ६६ सागरोपम का काल कहा जाता है। (६) सम्यग्दर्शन के क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक ये मुख्य तीन भेद हैं।
* प्रश्न-जीव किसे कहते हैं ? उत्तर--जो द्रव्य प्रौपशमिक आदि भावों से युक्त है, उसे जीव कहते हैं । * प्रश्न-सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ? उसका स्वरूप क्या है ?
उत्तर--वह जीव-आत्मा द्रव्य स्वरूप है। कारण कि वह नोस्कन्ध और नोग्राम रूप अरूपी सम्यग्दृष्टि जीव स्वरूप ही होता है।
प्रश्न--सम्यग्दर्शन किसकी अपेक्षा से होता है ?
उत्तर--आत्मसंयोग, परसंयोग और उभयसंयोग, इन तीनों की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन होता है। जैसे-(१) सम्यग्दर्शन का स्वामी जीव है। इसलिए आत्मसंयोग की अपेक्षा सम्यग्दर्शन जीव को होता है। (२) परसंयोग की अपेक्षा सम्यग्दर्शन एक जीव को या एक अजीव को होता है । अथवा दो जीवों को या दो अजीवों को होता है। यद्वा अनेक जीवों को या अनेक अजीवों को सम्यरदर्शन हो सकता है। (३) उभयसंयोग की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के स्वामित्व में एक जीव के, नोजीवईषत् जीव के, दो जीव के या दो अजीव के, अनेक जीवों के या अनेक अजीवों के ये विकल्प नहीं होते हैं । इनके बिना अन्य विकल्प हो सकते हैं।
* प्रश्न--सम्यग्दर्शन किसके द्वारा होता है ?
उत्तर-सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम इन दो हेतु-कारणों से उत्पन्न होता है। ये दोनों दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होते हैं।
अधिकरण तीन प्रकार का कहा है-आत्मसन्निधान, परसन्निधान और उभयसन्निधान । इनमें प्रात्मसन्निधान से अभिप्राय अभ्यन्तर सन्निधान है। परसन्निधान का अभिप्राय बाह्यसन्निधान है। बाह्य और अभ्यन्तर दोनों सन्निधानों के मिश्रण को उभयसन्निधान कहते हैं।
* प्रश्न--सम्यग्दर्शन कहाँ रहता है ?
उत्तर--प्रात्मसन्निधान की अपेक्षा सम्यग्दर्शन जीव-पात्मा में रहता है। इसी तरह सम्यगज्ञान और सम्यक्चारित्र भी जीव-आत्मा में रहते हैं। बाह्यसन्निधान की अपेक्षा सम्यग्दर्शन जीवआत्मा में, नोजीव में रहता है, इन विकल्पों को प्रागमशास्त्र में कहे अनुसार जानना चाहिए । उभयसन्निधान की अपेक्षा भी सम्यग्दर्शन के अभूत और सद्भूत रूप भंगों के विकल्प प्रागमशास्त्र के अनुसार समझने चाहिए। ....
* प्रश्न-सम्यग्दर्शन कितने काल (समय) तक रहता है ?
उत्तर-सम्यग्दृष्टि के दो प्रकार हैं। एक सादि सान्त और दूसरा सादि अनन्त । सम्यग्दर्शन (क्षायोपशमिक सम्यक्त्व) सादि सान्त ही है। उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक छयासठ सागरोपम प्रमाण का है। सम्यग्दृष्टि जीव-प्रात्मा सादि होकर अनन्त होते हैं। अतः कहा है कि तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगीकेवली अरिहन्त भगवान् चौदहवें
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२४ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १15
गुणस्थानवर्ती प्रयोगी केवली भगवान् और संसारातीत सिद्ध भगवान् ये तीनों सादि अनन्त सम्यम्दृष्टि हैं ।
* प्रश्न -- सम्यग्दर्शन कितने प्रकार का है ?
उत्तर -- सम्यग्दर्शन हेतुभेद की अपेक्षा तीन प्रकार का कहा जा सकता है कारण, वह सम्यग्दर्शन को श्राच्छादित करने वाले दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से या उपशम से यद्वा क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । इसलिए सम्यग्दर्शन भी तीन प्रकार का प्रतिपादित किया गया है । (१) क्षायिक सम्यग्दर्शन, (२) श्रौपशमिक सम्यग्दर्शन और (३) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ।
(१) दर्शनमोहनीय कर्म और क्रोधादि अनन्तानुबन्धी चार कषाय के क्षय होने से जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसे 'क्षायिकसम्यग्दर्शन' कहते हैं ।
(२) दर्शनमोहनीय कर्म और क्रोधादि श्रनन्तानुबन्धी चार कषाय के उपशम होने से जो सम्यग्दर्शन प्रकट होता है, उसे 'श्रौपशमिकसम्यग्दर्शन' कहते हैं ।
(३) दर्शनमोहनीय कर्म और क्रोधादि श्रनन्तानुबन्धी चार कषाय के क्षय और उपशम दोनों के मर्यादित होने पर जो सम्यग्दर्शन उद्भूत होता है, उसे 'क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन' कहा गया है ।
इन तीनों में विशेषता यही है कि - प्रोपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इनकी विशुद्धि क्रम से उत्तरोत्तर अधिक से अधिकतर होती है । अर्थात् श्रपशमिक सम्यग्दर्शन से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की विशुद्धि - निर्मलता अधिक है तथा क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन से क्षायिकसम्यग्दर्शन की विशुद्धि - निर्मलता अधिक है ।। ७ ।।
* सत्प्रमुखाष्टद्वारेभ्योऽपि तत्त्वानां विशिष्टरूपेण निर्देश:
सत् - संख्या -क्षेत्र - स्पर्शन - कालान्तर - भावाऽल्प - बहुत्वंश्च ॥ ८ ॥
* सुबोधिका टीका
सत्, सङ्ख्या, क्षेत्रं, स्पर्शनं, कालः, अन्तरं भावः, अल्पबहुत्वं चेति । एतैः सद्भूतपदप्ररूपणादिभिः प्रष्टभिः अनुयोगद्वारैरपि सर्वजीवादितत्त्वानां सम्यग्दर्शनादिकानां च ज्ञानं भवति । कथमितिचेदुच्यते - ( १ ) सत्ता विद्यमानता एव । सम्यग्दर्शनं किमस्ति नास्तीति ? अस्तीत्युच्यते । क्वास्ति ? प्रजीवेषु जीवेषु वा ।
जीवेषु तावन्नास्ति । जीवेष्वपि भाज्यमेव । तद्यथा - ' गतीन्द्रिय-काय - योग- कषायवेद-लेश्या-सम्यक्त्व-ज्ञान- दर्शन - चारित्राहारोपयोगेषु' इति त्रयोदशस्वनुयोगद्वारेषु यथासम्भवं सद्भूतप्ररूपणाऽवश्यमेव कर्त्तव्या । एतेन द्वारेण विवक्षितपदार्थस्य विचारणा भवति ।
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प्रथमोऽध्यायः
[ २५
(२) सङ्ख्या - विवक्षितपदार्थस्य अथवा तस्य स्वामिनः कतिपय सङ्ख्याऽस्ति । तस्य विचारणा अस्य सङ्ख्याप्ररूपणाद्वारस्य प्रयोजनमस्ति । अत्राह-कियत् सम्यग्दर्शनम् ? किं सङ्ख्यं यं असङ्ख्ये यं, अनन्तमिति ? तदुच्यते-असङ्ख्य यानि सम्यग्दर्शनानि सन्ति, किन्तु सम्यग्दृष्टयस्तु अनन्ताः सन्ति एव ।
१८]
(३) क्षेत्रम् - विवक्षिततत्त्वं अथवा तस्य स्वामी कतिपयक्षेत्रे भवति ? एतद् क्षेत्रप्ररूपणाद्वारात् ज्ञायते । अत्राह - सम्यग्दर्शनं कियतिक्षेत्रे वर्त्तते ? तदुच्यते । लोकस्यासङ्ख्ययभागे वर्त्तते ? अर्थात् सम्यग्दर्शनवान् एकजीवस्य अनेकजीवस्य वा क्षेत्रलोकस्याऽसङ्ख्यातमो भागो हि अस्ति ।
(४) स्पर्शनम् - विवक्षिततत्त्वं अथवा तस्य स्वामी कतिपयक्षेत्रं स्पर्शनम् ? तस्य ज्ञानं एतद् स्पर्शनप्ररूपणाद्वारात् भवति । अत्राह - 'सम्यग्दर्शनं किं स्पृष्टस्पर्शनम् ?' सम्यग्दर्शनं लोकस्याऽसङ्ख्येयभागः स्पर्शनं करोति । अत्र सम्यग्दृष्टिसम्यग्दर्शनयोः कः प्रतिविशेषः ? द्वयोः अपाय - सद्द्रव्यापेक्षायाः अन्तरमस्ति । सम्यग्दर्शनमपाय आभिनिबोधिकरूपमस्ति । तद् योगात् सम्यग्दर्शनं केवलिनो नास्ति । तस्माद् सम्यग्दर्शनी केवली नास्ति । सम्यग्दृष्टिस्तु सद्द्रव्यरूपमस्ति । तद् योगात् सम्यग्दृष्टिः केवली कथितमस्ति ।
(५) कालः - विवक्षिततत्त्वं कियन्तं कालम् ? तस्य विचारणा एतद् कालप्ररूपणाद्वाराद् भवति । अत्राह - सम्यग्दर्शनं कियन्तं कालम् ? तदुच्यते । कालस्य परीक्षा प्ररूपणा वा द्विधा भवति । तद् एकजीवस्यापेक्षया नानाजीवानामपेक्षयाश्च परीक्ष्यम् । तद्यथा - एकं जीवं प्रति जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कृष्टन षट्षष्ठिः सागरोमारि साधनानि तथा अनेक जीवान् प्रति सर्वाद्धाकालमर्यादा सम्यग्दर्शनस्य सन्ति । अर्थात् सम्यग्दर्शनं नित्यमेव विद्यते ।
(६) अन्तरम् - विवक्षिततत्त्वस्य प्राप्त्यनन्तरं तस्य वियोग कियन्तं कालपर्यन्तं भवेत् ? तस्य ज्ञानं एतद् अन्तरप्ररूपणा द्वारात् भवति । अत्राह - सम्यग्दर्शनस्य को विरहकालः ? तदुच्यते । एकं जीवं प्रति जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, तथा उत्कृष्टेन देशोनार्धपुद्गलपरावर्त्तपर्यन्तं विरहकालः सम्यग्दर्शनस्येति ।
( ७ ) भावः - प्रपशमिकादिपञ्चभावेभ्यः कतमो भावो विवक्षिततत्त्वं भवेत् ? तस्य विचारणा, एतद् भावप्ररूपणाद्वाराद् भवति । अत्राह - सम्यग्दर्शनं श्रपशमि
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२६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १८ कादि भावानां कतमो भावो भवति ? तदुच्यते । प्रौदयिक-पारिणामिकभावौ द्वयं वयं प्रौपशमिकादित्रिषु भावेषु सम्यग्दर्शनं भवति ।
(८) अल्पबहुत्वम्-सम्यग्दर्शनादितत्त्वानां स्वामिनमाश्रित्य न्यूनाधिकस्य विचारणा, एतद् अल्पबहुत्वप्ररूपणाद्वाराद् भवति । अत्राह-सम्यग्दर्शनानां औपशमिकादित्रिषु भावेषु वर्तमानानां किं समानसङ्ख्यत्वमाहोस्विदल्पबहुत्वमस्तीति ? । तदुच्यते । औपशमिकादित्रिषु भावेषु औपशमिकसम्यग्दर्शनस्य सङ्ख्या सर्वस्तोकमस्ति । ततः क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य सङ्ख्या असङ्ख्यातगुणी ज्ञेया। ततोऽपि क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनस्य सङ्ख्या असङ्ख्यातगुणी ज्ञातव्या। केवलिनः सिद्धाश्च जीवाः संमिल्य अनन्ताः एव । तस्माद् सम्यग्दृष्टयस्तु सङ्ख्या अनन्तगुणी ज्ञेयेति । एवं निखिलभावानां नामादिभिः न्यासं कृत्वा, प्रमाणादिभिरधिगमस्य कार्य सम्पन्नम् । अत्रोक्तं सम्यग्दर्शनम् । ज्ञानं चाऽपि वक्ष्यामः ।। ८ ।।
* सूत्रार्थ-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व; इन पाठ द्वारों से भी तत्त्वों का ज्ञान अर्थात् सर्व भावों का ज्ञान हो सकता है ।। ८ ।।
9 विवेचन जिस तरह पूर्वोक्त निर्देश आदि अनुयोग के छह द्वारों से जीवादितत्त्वों का ज्ञान होता है, उसी तरह इधर सत् आदि अनुयोग के पाठ द्वारों से भी जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है। वे क्रमश: सत् आदि पाठों द्वार इस प्रकार हैं
(१) सत्- यानी सत्ता-विद्यमानता। विश्व में विवक्षित वस्तु-पदार्थ विद्यमान है कि नहीं ? उसकी विचारणा इस सत्प्ररूपणा द्वार से होती है ।
(२) संख्या-यानी गणना । विवक्षित वस्तु-पदार्थ की या उसके स्वामी के अनुसार की संख्या-गिनती कितनी है ? उसकी विचारणा इस संख्याप्ररूपणा द्वार से होती है।
(३) क्षेत्र—विवक्षित तत्त्व या उसके स्वामी कितने क्षेत्र में हो सकते हैं ? उसको इस क्षेत्रप्ररूपणा द्वार से जान सकते हैं।
(४) स्पर्शन-यानी स्पर्शना । विवक्षित तत्त्व या उसके स्वामी कितने क्षेत्र को स्पर्श करते हैं ? उसका ज्ञान इस स्पर्शन प्ररूपणा द्वार से होता है ।
(५) काल-यानी समय । विवक्षित तत्त्व कितने काल-समय तक रहता है ? इसकी विचारणा इस कालप्ररूपणा द्वार से होती है।
(६) अन्तर-यानी विरहकाल । विवक्षित तत्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात्, उसका वियोग हो जाय तो कितने काल तक वियोग रहता है ? उसका ज्ञान इस अन्तरप्ररूपणा द्वार से होता है ।
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१८ ] प्रथमोऽध्यायः
[ २७ ७) भाव-अवस्था विशेष । विवक्षित तत्त्व प्रौपशमिक आदि पाँच भावों में से कौन से भाव में है ? उसकी विचारणा इस भावप्ररूपणा द्वार से होती है।
(८) अल्पबहुत्व-यानी न्यूनाधिकता। सम्यग्दर्शन आदि तत्त्वों के स्वामी का आश्रयण करके न्यूनाधिक का विचार इस अल्पबहुत्वप्ररूपणा द्वार से होता है।
अब इस विषय में सम्यग्दर्शन की विचारणा उपर्युक्त द्वारों से इस प्रकार है(१) सत्
* प्रश्न-सम्यग्दर्शन गुण है या नहीं ?
उत्तर–'सम्यग्दर्शन' गुण है । * प्रश्न–सम्यग्दर्शन गुण कहाँ-कहाँ पर है ?
उत्तर–सम्यग्दर्शन गुण सत्ता रूप से सभी जीवों में विद्यमान है, किन्तु उसका आविर्भाव सिर्फ भव्य जीवों में होता है, अभव्य जीवों में नहीं। यह गुण चेतन-प्रात्मा का ही है। इसलिए चेतन-पात्मा में ही रहेगा, अचेतन-जड़ में नहीं । जीवों के विषय में भी इसकी भजना प्रतिपादित की गई है। किसी में होता है और किसी में नहीं होता। किस-किस में होता है, यह जानने के लिए गति, इन्द्रिय, काय, योग, कषाय, वेद, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आहार और उपयोग, इन तेरह अनुयोग-द्वारों में आगम के अनुसार यथासम्भव इस सत्प्ररूपणा द्वारा समझ लेना चाहिए। (२) संख्या
* प्रश्न-सम्यग्दर्शन कितने हैं, संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ?
उत्तर-सम्यग्दर्शन असंख्य हैं, किन्तु सम्यग्दृष्टि अनन्त हैं। अर्थात्-सम्यग्दर्शन जिसमें हो ऐसे जीव असंख्य हैं तथा सिद्ध जीवों की अपेक्षा ऐसे जीव अनन्त हैं।
(३) क्षेत्र
* प्रश्न-सम्यग्दर्शन कितने क्षेत्र में रहता है ?
उत्तर–सम्यग्दर्शन लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। अर्थात्-असंख्य प्रदेशरूप तीन सौ तेंतालीस (३४३) राजप्रमाण लोक में असंख्यात का भाग देने से जितने प्रदेश प्राप्त हो जाते हैं, उतने ही लोक के प्रदेशों में सम्यग्दर्शन पाया जा सकता है। चाहे सम्यग्दर्शन वाले एक जीव को लेकर या सर्व जीवों को लेकर विचार किया जाय तो भी सामान्य रूप से सम्यग्दर्शन का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग ही जानना । इसमें इतना अन्तर अवश्य ही होगा कि एक सम्यग्दर्शनी-सम्यक्त्वी जीव के क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त जीवों का क्षेत्र, परिमाण में अधिक होगा। कारण कि लोक का असंख्यातवाँ भाग भी तरतम भाव से असंख्यात प्रकार का होता है।
* प्रश्न-सम्यग्दृष्टि तथा सम्यग्दर्शन में क्या अन्तर है ? इसके उत्तर में आगमशास्त्रों में लिखा गया है-दोनों में अपाय तथा सदद्रव्य की अपेक्षा अन्तर है। सम्यग्दर्शन अपाय मतिज्ञान
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२८ ]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११८
रूप है एवं सम्यग्दृष्टि सद्द्रव्य स्वरूप है । केवली सद्द्रव्य रूप होने से उन्हें सम्यग्दृष्टि कह सकते हैं किन्तु उन्हें सम्यग्दर्शनी नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें अपाय का योग नहीं पाया जाता ।
(४) स्पर्शन
* प्रश्न - सम्यग्दर्शन कितने स्थान का स्पर्श करता है ?
उत्तर - सम्यग्दर्शन लोक के प्रसंख्यातवें भाग का ही स्पर्श करता है, किन्तु सम्यग्दृष्टि सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करता है । इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि- सम्यग्दर्शनवन्त जीव-प्रात्मा जघन्य से लोक के असंख्यातवें भाग को ही स्पर्श करता है तथा उत्कृष्ट से एक जीव- श्राश्रयी या अनेक जीवों से प्राश्रयी चौदह रज्जुप्रमाण लोक के कुछ न्यून आठ भाग को स्पर्श करता है । यह माप घनक्षेत्र की अपेक्षा है । सूचिक्षेत्र की अपेक्षा से तो एक जीव-प्राश्रयी के प्राठ राजलोक और अनेक जीव श्राश्रयी के बारह राजलोक की स्पर्शना होती है । केवली समुद्घात की अपेक्षा से तो सम्पूर्ण चौदह राजलोक की स्पर्शना प्रतिपादित की है। क्षेत्र और स्पर्शना में भेद के सम्बन्ध में भी कहा है कि केवल वर्त्तमानकाल आश्रयी क्षेत्र की विचारणा करने में आती है और स्पर्शना की विचारणा तीन काल श्राश्रयी करने में प्राती है । क्षेत्र और स्पर्शना में यह भेद काल की अपेक्षा माना गया है ।
(५) काल
* प्रश्न - - सम्यग्दर्शन कितने काल तक रहता है ?
उत्तर-- एक जीव की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त्त मात्र है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक छयासठ सागरोपम का है तथा अनेक जीवों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का सर्व काल है । अर्थात् सम्यग्दर्शन सर्वदा विद्यमान है – विश्व में कोई भी समय ऐसा भूतकाल में नहीं था, वर्तमानकाल में नहीं है और भविष्यकाल में नहीं होगा कि जब किसी भी जीव- श्रात्मा में सम्यग्दर्शन न रहा हो
या न पाया जाय ।
(६) अन्तर
* प्रश्न -- सम्यग्दर्शन का विरहकाल कितना है ?
उत्तर -- सम्यग्दर्शन का एक जीव आत्मा की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त तक विरह होता है तथा उत्कृष्ट से देशोन अर्धपुद्गल परावर्त्तं पर्यन्त सम्यग्दर्शन का विरह होता है । अनेक जीवों की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन का अन्तर काल होता ही नहीं है अर्थात् - सम्यग्दर्शन का विरहका कभी होता ही नहीं ।
(७) भाव
* प्रश्न - प्रपशमिकादिक पाँच भावों में से सम्यग्दर्शन को कौन-सा भाव समझना ?
उत्तर - प्रौदयिक भाव और पारिणामिक भाव इन दोनों को छोड़कर शेष तीनों (श्रौपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक) ही भावों में सम्यग्दर्शन रहता है । अर्थात् - प्रपशमिक सम्यग्दर्शन श्रपशमिक भाव में, क्षायिक सम्यग्दर्शन क्षायिक भाव में और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन क्षायोप
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१९ ] प्रथमोऽध्यायः
[ २६ शमिक भाव में होता है। सारांश यह है कि सम्यग्दर्शन कहीं औपशमिक, कहीं क्षायिक और कहीं क्षायोपशमिक इस तरह तीनों ही भावरूपों में पाया जा सकता है, प्रौदयिक और पारिणामिक भाव में नहीं।
(८) अल्पबहुत्व
* प्रश्न--प्रौपशमिकादि तीनों भावों में रहने वाले तीनों ही सम्यग्दर्शनों का अल्पबहुत्व समान है या उसमें कुछ न्यूनाधिकता है ?
उत्तर-प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन वाले जीवों का अल्पबहुत्व समान नहीं है, किन्तु सबसे अल्प है। अर्थात्-औपशमिक सम्यग्दर्शन वाले जीवों की संख्या सबसे न्यून-अल्प है। उससे असंख्येय गुणे क्षायिक भाव वाले सम्यग्दर्शनी हैं। अर्थात-क्षायिक सम्यग्दर्शन वाले जीवों की संख्या असंख्यात गुणी है। उससे भी असंख्य गुणे क्षायोपशमिक भाव वाले सम्यग्दर्शनी हैं। अर्थात्-क्षायोपशमिक भाव वाले जीवों की संख्या असंख्यात गुणी है। इस तरह होने पर भी सम्यग्दष्टियों की संख्या सबसे अधिक अनन्त गुणी है। कारण यही है कि केवली और सिद्ध भगवन्त दोनों मिलकर अनन्त हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव अनन्त गुण युक्त अनन्ता कहलाते हैं। [जीव
द तत्त्वों का विस्तारपूर्वक स्वरूप जानने के लिए सातवें निर्देश ०' सूत्र में उल्लिखित निर्देश आदि छह अनुयोग तथा आठवें ‘सत्संख्या ०' सूत्र में निर्दिष्ट सत् आदि पाठ अनुयोग, सब (६+ ८) मिलकर चौदह (१४) अनुयोग बताये हैं। प्रमाण-नय आदि उपर्युक्त इन चौदह अनुयोगों के द्वारा सर्व भावों का जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। कारण कि-इनके द्वारा निश्चित तत्त्वार्थों का तथाभूत श्रद्धान करना यही 'सम्यग्दर्शन' है।] इस तरह सम्यग्दर्शन का संक्षिप्त वर्णन किया। अब मति आदि पाँच ज्ञान का वर्णन आगे बताये हुए सूत्रों से करते हैं ।।८।।
अजीवादि तत्त्वों का
* सम्यग्ज्ञानस्य भेदाः * मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यय-केवलानि ज्ञानम् ॥६॥
* सुबोधिका टीका * ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् । एतद् मूलविधानतः पञ्चविधं ज्ञानमस्ति । तद्यथा-मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं, अवधिज्ञानं, मनःपर्ययज्ञानं, केवलज्ञानं चेति । तस्योत्तरभेदानां वर्णनं पुरस्ताद् कथ्यते । --
* सूत्रार्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं ॥ ६ ॥
卐 विवेचन ॥ मूल भेद की अपेक्षा ज्ञान पाँच प्रकार का है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इनके उत्तरभेदों का वर्णन प्रागे आने वाला है, इसलिए उनका वर्णन किया है। संक्षेप में ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा है कि-'ज्ञायते अनेनेति ज्ञानम' जिसके द्वारा
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३० ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११०
जाना जा सके, उसे 'ज्ञान' कहा जाता है। अर्थात पदार्थों को समझाने की शक्ति जिसमें हो उसको ज्ञान कहते हैं । ज्ञान पदार्थ का बोधक है। जो ज्ञान प्रात्मा को मोक्षमार्ग की साधना के लिये उत्साही करता है, वही सम्यग्ज्ञान है। जो ज्ञान विश्व की वस्तुओं का सच्चा स्वरूप नहीं बताता है, वह ज्ञान मिथ्या-असत्यज्ञान अज्ञानरूप है ।
जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान के मुख्य पाँच भेद प्रतिपादित किये हैं-(१) मतिज्ञान-जीव-प्रात्मा को योग्य देश में रही हई नित्य वस्तु का पाँचों इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है वह 'मतिज्ञान' कहा जाता है, इसमें मन और इन्द्रियों की सहायता से जीव-आत्मा में बोध होता है। इसका दूसरा नाम 'प्राभिनिबोधक' भी है। "अभिनिबुध्यते इति प्राभिनिबोधकम्"-जो सन्मुख रहे हुए नियत वस्तु-पदार्थ को जनाता है, उसको 'प्राभिनिबोधक ज्ञान' कहते हैं।
(२) श्रुतज्ञान-जीव-आत्मा को इन्द्रिय और मन के सहकार से शब्दार्थ की पर्यालोचना वाला (इस शब्द का यह अर्थ है, ऐसा) जो ज्ञान है, वह 'श्रतज्ञान' कहा जाता है। जिसमें मन और इन्द्रियों के सहयोग से शब्द और अर्थ का पर्यालोचन पूर्वक जीव-आत्मा में बोध होता है। शब्द और पुस्तकें भी बोध रूप भावश्रुत का कारण होने से 'द्रव्यश्रुत' हैं।
(३) अवधिज्ञान-जीव-प्रात्मा को इन्द्रिय और मन की अपेक्षा बिना रूपी द्रव्य का मर्यादापूर्वक जो ज्ञान होता है, वह 'अवधिज्ञान' कहा जाता है। इसमें इन्द्रिय और मन की अपेक्षा बिना अपनी आत्मशक्ति से मर्यादापूर्वक रूपी द्रव्य का बोध होता है, अरूपी द्रव्य का नहीं।
(४) मनःपर्ययज्ञान-इन्द्रिय और मन की अपेक्षा बिना ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञिपञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जो जानता है, वह 'मनःपर्यय (मनःपर्यव) ज्ञान' कहा जाता है। इसमें ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों के मन के विचारों का-पर्यायों का बोध होता है ।
__ (५) केवलज्ञान-तीनों कालों के लोक और अलोक का निखिल स्वरूप हस्त में रहे हुए आँवले की भाँति प्रत्यक्ष रूप में जो जोहता-देखता है, वह ज्ञान 'केवलज्ञान' कहा जाता है। तीनों कालों के सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायों का बोध होता है। केवलज्ञान यानी सम्पूर्ण ज्ञान, मतिज्ञानादिक से रहित असाधारण ज्ञान, समस्त प्रावरण से रहित शुद्ध-ज्ञान, भेद-प्रभेद रहित एक ज्ञान, एवं अनन्तज्ञान=सर्व द्रव्य-पर्यायों का बोध करने वाला अद्वितीयज्ञान; इत्यादि अनेक अर्थ केवलज्ञान के प्रतिपादित किये गये हैं ॥६॥
* मत्यादिपञ्चविधज्ञानानां प्रमाणाऽऽश्रित्य विचारणा *
तत् प्रमाणे ॥१०॥
* सुबोधिका टीका * तत् पूर्वोक्तं मत्यादिपञ्चविधमपि ज्ञानं द्वे प्रमाणे भवतः । तद्यथा-परोक्ष प्रत्यक्षं चैव । तत् पञ्चविधमपि ज्ञानं द्वयोः प्रमाणयोः विभक्तमस्ति । येन वस्तुस्वरूपस्य परिच्छेदनं भवेत्, तं 'प्रमाणं' कथ्यते । एतद् विषये शास्त्रज्ञेषु भिन्नभिन्नरूपेण
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१।१० ]
प्रथमोऽध्यायः
[ ३१
विचारधारा प्रचलति । केचिद् सन्निकर्षकं प्रमाणं, क्वचिद् निर्विकल्पदर्शनं प्रमाणं, केचित् कारकसाकल्यं प्रमाणं, केचिद् वेदं प्रमाणमित्यादिविविधरूपः मन्यन्ते । तन्न युक्तियुक्तम् ।
तस्य निर्दोषलक्षणमाह-'सम्यग्ज्ञानमेव प्रमाणम्' अस्ति । प्रमाणस्य भेदोऽपि भिन्नभिन्नमतापेक्षया भिन्नभिन्नप्रकारैः मन्यते । केचित् प्रमाणस्य भेदः एक एव प्रत्यक्षः, केचिद् द्वौ भेदौ प्रत्यक्षानुमानौ, केचित् त्रयो भेदाः प्रत्यक्षानुमानोपमानाः, केचित् चत्त्वारो भेदाः प्रत्यक्षानुमानोपमानागमाः, केचित् पञ्चभेदाः प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्तयः, केचित् षड्भेदाः प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्त्याऽभावाश्चेति मन्यन्ते । एते सर्वेऽपि अव्याप्तिप्रमुखदूषणत्वाद् अवास्तविकाः । अत्र परोक्ष-प्रत्यक्षौ द्वावपि भेदौ सर्वथा निर्दोषौ, इष्टार्थसाधको चेति । एतदस्मिन् प्रमाणे प्रमाणस्य सर्वेषां भेदानामन्तर्भाव अभूवन् ।। १० ।।
* सूत्रार्थ-पूर्व कथित यह मत्यादि पाँच प्रकार का ज्ञान प्रमाणरूप है तथा उसके दो भेद हैं-एक परोक्षप्रमाण और दूसरा प्रत्यक्षप्रमाण ॥ १० ।।
ॐ विवेचन प्रथम अध्याय के छठे सूत्र में प्रमाण का वर्णन किया है, तो भी इधर विशेष रूप में कर रहे हैं । जिसके द्वारा वस्तु-पदार्थ स्वरूप का परिच्छेदन होता है, वह 'प्रमारण' कहा जाता है। इस विषय में अनेक शास्त्रज्ञों ने अपनी-अपनी मान्यतानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रमाण माना है। किसी ने सन्निकर्ष को, किसी ने निर्विकल्पदर्शन को, किसी ने कारकसाकल्य को और किसी ने अपने वेद को ही प्रमाण माना है। ये सभी प्रमाण के प्रयोजन को सिद्ध करने में युक्तियुक्त नहीं हैं, अर्थात् असमर्थ हैं । इसलिए यहाँ पर प्रमाण का यह लक्षण निर्दोष बताया है कि-'सम्यग्ज्ञानमेव प्रमारणलक्षणम' सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण का लक्षण है। इस प्रमाण के प्रकार-भेद भी भिन्न-भिन्न मतों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न माने गये हैं। किसी ने एक प्रत्यक्ष को, किसी ने प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों को, किसी ने प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान तीनों को, किसी ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान
और पागम चारों को, किसी ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम और अर्थापत्ति पाँचों को तथा किसी ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति एवं प्रभाव इन छह को प्रमाण के भेद माना है । ये सभी अव्याप्ति आदि दोषों से युक्त होने के कारण अवास्तविक हैं। इसलिए यहाँ पर प्रमाण के मात्र दो प्रकार-भेद प्रतिपादित किये हैं । एक परोक्ष और दूसरा प्रत्यक्ष । दोनों ही सर्वथा निर्दोष हैं और इष्ट अर्थ के साधक हैं । इनमें प्रमाण के समस्त भेदों का अन्तर्भाव हो जाता है ॥१०॥
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
* परोक्षस्वरूपम् आद्ये परोक्षम् ॥ ११ ॥ * सुबोधिका टोका
आदौ भवमाद्यम् । तस्मिन् श्राद्ये मत्यादिपञ्चज्ञानापेक्षया श्राद्यद्वये मति श्रुतज्ञाने परोक्षं प्रमाणं भवतः । प्रक्षैः परं = इन्द्रियैः परं परोक्षं, प्रमायाः विषयं प्रमाणम् । निमित्तापेक्षयाऽऽद्ये परोक्षे, यतः मतिज्ञानमिन्द्रियनिमित्तकं, अनिन्द्रियं मनो निमित्तकञ्च । तथा श्रुतज्ञानं मतिपूर्वकं परस्योपदेशाच्च भवति ।। ११ ।।
३२ ]
[ १।११-१२
* सूत्रार्थ -मत्यादि पाँच प्रकार के ज्ञानों में से प्रथम के दो ज्ञान [ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ] परोक्ष हैं अर्थात्-परोक्षप्रमारणरूप हैं ।। ११ ।।
5 विवेचन 5
जो आदि में है, उसको ही प्राद्य कहा जाता है । इसलिए पूर्व कथित “मति श्रुतावधिमन:पर्यय-केवलानि ज्ञानम् ॥६॥ " इस सूत्र के अनुसार आदि के दो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण रूप हैं । जिस ज्ञान के उत्पन्न होने में जीव श्रात्मा से भिन्न परवस्तु पदार्थ की अपेक्षा होती है, उसको परोक्ष कहा गया है। जैसे यहाँ मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान को परोक्षप्रमाण कहा है। कारण कि ये दोनों ही ज्ञान निमित्त की अपेक्षा रखते हैं । अपायसद्द्रव्यतया मतिज्ञान परोक्ष है ।
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।। १-१४ ।। यह आगे आने वाले सूत्र में कहा है कि आत्मा से भिन्न स्पर्शेन्द्रियादि पाँचों इन्द्रियों तथा अनिन्द्रिय-मन इन छह निमित्तों से श्रात्मा में मतिज्ञान उत्पन्न होता है । इसलिए यह मतिज्ञान श्रपायसद्द्रव्यरूप है, इतना ही नहीं निमित्त नित्य नहीं होने के कारण परोक्ष भी है । आत्मा में मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है और अन्य के उपदेश से भी श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । इसलिए श्रुतज्ञान भी परोक्ष है । यहाँ विशेषता यह है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में इन्द्रिय तथा मन आत्मा से भिन्न पुद्गल रूप हैं, तो भी मतिज्ञान में इन्द्रिय और मन दोनों ही निमित्त पड़ते हैं तथा श्रुतज्ञान में तो मात्र मन ही निमित्त पड़ता है। ऐसा होने पर भी श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही होता है । इसलिए श्रुतज्ञान में उपचार से इन्द्रियाँ भी निमित्त पड़ती हैं । जैसे कि - पर का उपदेशादि सुनने में श्रोत्र न्द्रिय निमित्त है । यही मतिज्ञान है तथा सुने हुए शब्द के विषय में उसका श्रालम्बन लेकर प्रर्थान्तर के विषय में जो विचार करते हैं, वही श्रुतज्ञान है । उसमें भले ही मुख्य रूप से बाह्य निमित्त मन होने पर भी उपचार से श्रोत्रेन्द्रिय भी निमित्त कही जाती । कारण कि श्रवण किये बिना विचार नहीं हो सकता ।।११।।
* प्रत्यक्षस्वरूपम्
प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥
* सुबोधिका टीका *
पूर्वोक्तं मतिज्ञानात् श्रुतज्ञानाच्च यदन्यत् त्रिविधं ज्ञानं [ अवधि - मन:पर्यय
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१।१२ ]
प्रथमोऽध्यायः केवलरूपं] तत्प्रत्यक्षं प्रमाणरूपं भवति । यतः इन्द्रियनिमित्तं विनैव प्रात्मनः प्रत्यक्षत्वेन एतानि त्रीणि ज्ञानानि प्रत्यक्षप्रमाणे समायान्ति । यद् द्वारा पदार्थः ज्ञातो भवति तद् प्रमाणं उच्यते । अनुमानोपमानागमार्थापत्तिसम्भवाभावानामपि पृथक्त्वेन प्रमाणत्वं केचिद् मन्यन्ते, किन्तु तेषां अनुमानादीनां पदार्थानां निमित्तभूतत्वेन मतिश्रुतज्ञानरूपे परोक्षप्रमाणे एव अन्तर्भाव स्वीकृत्य द्विविधं परोक्ष-प्रत्यक्षरूपमेव प्रमाणं मन्यते नत्वधिकम् ।। १२ ।।
___ सूत्रार्थ-शेष रहे हुए अवधि आदि तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। अर्थात्-पूर्वोक्त मति-श्रुत इन दोनों ज्ञान से अन्य तीन ज्ञान (अवधि, मनःपर्यय और केवल) ये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। कारण कि ये इन्द्रिय और मन की मदद बिना केवल आत्मा के सापेक्ष हैं ।। १२ ।।
विवेचन पूर्व कहे हुए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को छोड़कर यानी बाकी के अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण रूप हैं। क्योंकि ये अतोन्द्रिय हैं। जिसके द्वारा वस्तु-पदार्थों को जाना जाय उसको प्रमारण कहते हैं । यहाँ पर प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही प्रमाण बताये हैं । अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव इन प्रमाणों को भी कोई-कोई मानते हैं, किन्तु यहाँ इन्हें ग्रहण नहीं करते हैं। कारण यह है कि ये सभी इन्द्रियों पोर पदार्थों के निमित्तभूत होने से मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान रूप परोक्षप्रमाण में अन्तर्भूत हो जाते हैं।
* प्रश्न-न्याय प्रादि दर्शनग्रन्थों में और लोक में भी चक्षु प्रादि इन्द्रियों द्वारा होने वाला मतिज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण कहा गया है। आप उसी मतिज्ञान को परोक्षप्रमाण कहते हो, इसका क्या कारण है ?
उत्तर-आध्यात्मिक दृष्टि से मतिज्ञान परोक्षज्ञान है। वह इन्द्रियों की सहायता से होता है, इसलिए मतिज्ञान परोक्षप्रमाण रूप ज्ञान कहा गया है। अक्ष शब्द का अर्थ जैसे इन्द्रिय होता है, वैसे आत्मा भी होता है। न्याय आदि दर्शनग्रन्थों में तथा लोक में अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय स्वीकार कर मतिज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है। इस दृष्टि से जैनदर्शन भी मतिज्ञान को न्यायदर्शन के ग्रन्थों में प्रत्यक्ष ज्ञान स्वरूप में स्वीकार करता है। जैन न्यायग्रन्थों में 'प्रमाणमीमांसा' में मतिज्ञान का सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप में कथन किया गया है। श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में तो चाहे आध्यात्मिक दृष्टि हो कि व्यावहारिक दृष्टि हो, दोनों ही दृष्टि से श्रुतज्ञान को परोक्ष ही कहा है। क्योंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक और पर के उपदेश से होता है। शेष यानी बाकी के अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना ही सिर्फ आत्मिक योग्यता के बल से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष समझने चाहिए।
सामान्य रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान के दो प्रकार-भेद हैं-एक देशप्रत्यक्ष और दूसरा सकलप्रत्यक्ष अवधिज्ञान को और मनःपर्ययज्ञान को देशप्रत्यक्ष कहते हैं, कारण कि-दोनों का विषय नियत और
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३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १११३ अपरिपूर्ण है । पंचम केवलज्ञान तो सकलप्रत्यक्ष है; क्योंकि वह सम्पूर्ण कालिक वस्तु-पदार्थों को तथा उनकी अनन्तानन्त अवस्थाओं को विषय करने वाला और नित्य है । इसलिए केवलज्ञान को सकलप्रत्यक्ष कहा जाता है । इसके अलावा मतिज्ञान को भी उपचार से या व्यवहार से प्रत्यक्ष कहते हैं। कारण कि उसमें श्रुतज्ञान की अपेक्षा अधिक स्पष्टता रहा करती है । मुख्य रूप से तो वह परोक्ष रूप में ही है। अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों प्रत्यक्ष ज्ञान के समीचीन प्रकारभेद भी प्रमाण ही हैं ।।१२।।
* मतिज्ञानस्य पर्यायवाचकशब्दाः * मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥ १३ ॥
* सुबोधिका टोका * मतिज्ञानस्य पर्यायवाचकशब्दाः एतस्मिन् सूत्रे कथिताः सन्ति । तद्यथामतिज्ञानं, स्मृतिज्ञानं, संज्ञाज्ञानं, चिन्ताज्ञानं, आभिनिबोधिकज्ञानमित्यनर्थान्तरम् । मतिः अनुभवः, स्मृतिःस्मरणं, संज्ञा प्रत्यभिज्ञानं, चिन्ता तर्कः, अभिनिबोधः= आभिनिबोधिकः अनुमानम् । एतद् पञ्चकमेव अनर्थान्तरमेकार्थवाचकमिति । एतानि सर्वाणि एकार्थवाचकानि सन्ति ।। १३ ।।
* सूत्रार्थ-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये पाँचों शब्द अनर्थान्तर=एकार्थवाचक यानी पर्यायवाची हैं ।। १३ ।।
विवेचन मति यानी अनुभव (विद्यमान का ज्ञान), स्मृति यानी स्मरण, संज्ञा यानी पहचान, चिन्ता यानी तर्कचिन्तन (भावी का विचार), तथा अभिनिबोध यानी अनुमान (सर्व प्रकार से निर्णय) ये सभी मतिज्ञान से भिन्न नहीं हैं । अर्थात्-ये पाँच पर्यायवाची शब्द हैं। एक अर्थ के वाचक शब्द हैं । ये मतिज्ञान के ही भेद हैं, क्योंकि मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने से ही होते हैं। सामान्य रूप से यहाँ मति आदि शब्द एकार्थवाचक होने पर भी विशेष रूप से इनमें प्रत्येक शब्द में अर्थभेद होता है। वह इस प्रकार है
(१) मतिज्ञान-इन्द्रियों तथा मन के द्वारा वर्तमानकाल में विद्यमान किसी भी वस्तुपदार्थ का जो आद्यज्ञान-बोध होता है, उसको अनुभव या मतिज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान वर्तमानकाल के विषय को ग्रहण करने वाला है।
(२) स्मृतिज्ञान-कालान्तर में उस जाने हुए वस्तु-पदार्थ का 'तत्-वह' इस तरह से जो याद-स्मरण आना, इसको स्मृतिज्ञान कहते हैं । यह भूतकाल के विषय को ग्रहण करने वाला है। अर्थात् पूर्वकाल में अनुभूत वस्तु-पदार्थ की स्मृति यानी स्मरण कराने वाला है।
(३) संज्ञाज्ञान–अनुभव और स्मृति इन दोनों के संयोगरूप ज्ञान को संज्ञाज्ञान या
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१११४ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ३५ प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । अर्थात्-भूतकाल में अनुभूत वस्तु-पदार्थ को वर्तमानकाल में देखते हुए 'वही यह वस्तु-पदार्थ है जो मैंने पूर्व में देखी थी' इस प्रकार का ज्ञान, वह संज्ञाज्ञान है। अन्य ग्रन्थों में इस ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान (प्रत्यभिज्ञा) कहते हैं। यह भूतकाल के विषय को वर्तमानकाल का विषय बनाने वाला है।
(४) चिन्ताज्ञान-साध्य' और साधन दोनों के अविनाभावसम्बन्धरूप व्याप्तिज्ञान को चिन्ताज्ञान या तर्कज्ञान कहते हैं। अर्थात्-भविष्यत्काल की विचारणा यानी तर्क का चिन्तन करना, वह चिन्ता या तर्क है । यह ज्ञान भविष्यत्काल के विषय को ग्रहण करने वाला है।
(५) अभिनिबोध (प्राभिनिबोधिक) ज्ञान-साधन के द्वारा जो साध्य का ज्ञान होता है, उसे अनुमान या प्राभिनिबोधज्ञान कहते हैं। यहाँ अभिनिबोध शब्द मति आदि सभी ज्ञान के लिए सर्व सामान्य है तथा विशेष प्रकार के उस-उस मतिज्ञान के लिए मति आदि शब्द हैं। इनमें से मतिज्ञान में प्रत्यक्ष का अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञान में उपमान का अन्तर्भाव और अनुमान में अापत्ति का अन्तर्भाव जानना चाहिए । इसी तरह से आगम तथा प्रभावप्रमारण का भी अन्तर्भाव यथायोग्य जानना चाहिए ॥१३॥
* मतिज्ञानस्योत्पत्ती निमित्तानि * तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४॥
* सुबोधिका टीका * तद्=पूर्वकथितमेतद्मतिज्ञानं द्विप्रकारं भवति। तद्यथा-इन्द्रियनिमित्तं अनिन्द्रियनिमित्तं चेति । तत्र स्पर्शेन्द्रियादीनां पञ्चानां स्पर्शादिषु पञ्चषु एव स्वविषयेषु यद्ज्ञानं भवति तद् 'इन्द्रियनिमित्तम् ।' अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्तिः अोघज्ञानं चेति । अत्र मनोवृत्तिजन्यज्ञानस्य तथा सर्वेन्द्रियजन्य ज्ञानस्य च अोघज्ञानं-सामान्यज्ञानमिति यावत् ॥ १४ ॥
* सूत्रार्थ-वह मतिज्ञान इन्द्रियों और अनिन्द्रिय (मन) के निमित्त से उत्पन्न होता है। अर्थात्-वह मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों और छठे मन की सहायता से उत्पन्न होता है ।। १४ ॥
१. साध्य-वस्तु-पदार्थ जो सिद्ध किया जाय, उसे 'साध्य' कहते हैं। या अनुमान का जो विषय हो, उसे भी
'साध्य' कहते हैं । जैसे पर्वत में वह्नि-अग्नि। २. साधन-साध्य वस्तु-पदार्थ के अविनाभावी चिह्न को 'साधन' कहते हैं। जैसे वह्नि-अग्नि का साधन धूम
धूमाड़ा है।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[
११५
ॐ विवेचन पूर्व कथित यह पाँच प्रकार का मतिज्ञान दो तरह का होता है। एक इन्द्रियनिमित्तक मतिज्ञान और दूसरा अनिन्द्रियनिमित्तक मतिज्ञान । इन्द्रियाँ पाँच हैं-(१) स्पर्शेन्द्रिय-स्पर्शन (चर्म, त्वक्, त्वचा, चमड़ी) (२) रसनेन्द्रिय-रसन (रसना, जीभ) (३) घ्राणेन्द्रिय-घ्राण (नासिका, नाक) (४) चक्षुरिन्द्रिय-नेत्र (नयन, अाँख) (५) श्रोत्रे न्द्रिय-कर्ण (कान)। इन पाँचों इन्द्रियों के विषय भी पाँच हैं, जिनके क्रमशः नाम इस प्रकार हैं-१-स्पर्शेन्द्रिय का विषय 'स्पर्श' है । २-रसनेन्द्रिय का विषय 'रस' है। ३-घ्राणेन्द्रिय का विषय 'गन्ध' है। ४-चक्षुरिन्द्रिय का विषय 'रूप' (वर्ण) है। ५-श्रोत्रेन्द्रिय का विषय 'शब्द' है। इन पाँचों ही इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों का जो ज्ञान होता है, उसे 'इन्द्रियनिमित्तक मतिज्ञान' कहते हैं।
मन की प्रवृत्तियों को या मन के विचारों को अथवा समूह रूप ज्ञान को 'प्रनिन्द्रियनिमित्तक मतिज्ञान' कहा है।
चक्ष आदि बाह्य साधन हैं तथा मन अन्तरंग साधन है, यही भेद इन्द्रिय और अनिन्द्रिय संज्ञाभेद में कारण है। सारांश यह है कि-जब जीव-आत्मा को स्पर्श आदि विषयों का मतिज्ञान होता है, तब सबसे पहले वस्तु-पदार्थों के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध होता है। पश्चात् तत्काल इन्द्रियों के साथ जुड़े हुए ज्ञानतन्तु मन को और मन जीव-आत्मा को खबर देता है। इससे जीवप्रात्मा में तद् विषय का मतिज्ञान उत्पन्न होता है। अर्थात् इन्द्रियों और मन के सहयोग से ही मतिज्ञान जीवात्मा में उत्पन्न होता है ।। १४ ।।
* मतिज्ञानस्य भेदाः * अवग्रहेहापाय-धारणाः ॥१५॥
* सुबोधिका टीका * तदेतन्मतिज्ञानं चतुर्विधं भवति । तद्यथा-अवग्रह, ईहापायो धारणा चेति । तत्र-(१) अवग्रहः-अव्यक्तं यथास्वं इन्द्रियद्वारास्वविषयीपदार्थानामालोचनावधारणमिति । अवग्रहोऽवधारणमालोचनं ग्रहणमित्यनर्थान्तरम् । बाह्यवस्तूनां सामान्याकृतेः परिचयः वाऽवधारणं अवग्रहः । (२) ईहा-अवगृहीते विषयाथौंकदेशाच्छेषानुगमनं निश्चयचेष्टाविशेषजिज्ञासा इति । ईहा ऊहा तर्कः जिज्ञासा परीक्षा विचारणा चेत्यनर्थान्तरम् । (३) अपायः-अवगृहीते विषये गुण-दोषविचारणाऽध्यवसायाऽपनोदः सम्यगसम्यगिति । अपायोऽपगमः अपनोदः अपव्याधः अपेतमपगतमपविद्धमपनुत्तमित्यनर्थान्तरम् । (४) धारणा-प्रतिपत्तिर्यथास्वं मत्यवधारणमवस्थानं चेति । धारणा प्रतिपत्तिरवधारणमवस्थानं निश्चयोऽवगमोऽवबोधश्चेत्यनर्थान्तरम् ॥ १५ ॥
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१११५ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ३७ * सूत्रार्थ-अवग्रह (सामान्य), ईहा (बोध), अपाय (विचारणा) और धारणा (निर्णय) ये चार मतिज्ञान के भेद हैं ।। १५ ।।
विवेचन पूर्वोक्त सूत्र में इन्द्रियनिमित्तक और अनिन्द्रियनिमित्तक यह दो प्रकार का जो मतिज्ञान कहा है, अब उसमें प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। उक्त अवग्रहादि प्रत्येक को पाँच इन्द्रियों और छठे मन के साथ गिनने से मतिज्ञान के चौबीस भेद हो जाते हैं । यथा--
(१) स्पर्शेन्द्रिय
| अवग्रह ।
ईहा
| अपाय ।
अपाय
धारणा
(२) रसनेन्द्रिय
(३) घ्राणेन्द्रिय (४) चक्षुरिन्द्रिय | (५) श्रोत्रेन्द्रिय
"
|
"
|
"
(६)
मन
अवग्रहादि के लक्षण
(१) अवग्रह-इन्द्रियों के द्वारा यथायोग्य विषयों का अव्यक्त रूप से पालोचनात्मक अवधारण-ग्रहण होता है, उसे 'अवग्रह' कहते हैं । अर्थात्-इन्द्रिय के साथ विषय का सम्बन्ध होते हुए 'कुछ है' ऐसा अव्यक्त बोध होता है। उस अव्यक्त बोध को ही प्रवग्रह कहा जाता है । अवग्रह, अवधारण, पालोचन और ग्रहण, ये सर्व एक ही अर्थ के वाचक शब्द हैं। विशेष कल्पना रहित सिर्फ सामान्य ज्ञान को अवग्रह कहते हैं । इस ज्ञान से यह मालूम नहीं होता है कि यह स्पर्शादि किस चीजवस्तु का है । इसलिए यह अवग्रह ज्ञान अव्यक्त ज्ञान है।
(२) ईहा-अवग्रह से ग्रहण किये हुए एकदेशविषयक ज्ञान को विशेष रूप से जानने के लिए अनुगम अर्थात् निश्चय करने की चेष्टा विशेष को ईहा कहते हैं । वास्तव में अवगृहीत विषय पर 'ईहा' की क्रिया होती है। अवगृहीत विषय के सम्बन्ध में अधिक विशेष जानने की स्पृहा का नाम ही ईहा है । अर्थात् अवगृहीत-विषय-प्रणिधान या विचारणा को ईहा कहते हैं। अर्थात् अवग्रह के द्वारा 'कुछ है' ऐसा बोध होने के बाद 'वह क्या है ?' उसका निर्णय करने के लिए होने वाली विचारणा को 'ईहा' कहा जाता है। ईहा, ऊहा, तर्क, जिज्ञासा, परीक्षा और विचारणा ये सर्व शब्द एक ही अर्थ के वाचक होने से समानार्थक हैं। इस ज्ञान से प्रात्मा में विचारशक्ति उत्पन्न होती है, जैसे कि 'रज्जुः सर्पो वा ?' क्या यह स्पर्श रज्जु यानी डोरी का है या सर्प का है ? जो सर्प होता तो इतनी जोर की ठोकर लगने पर वह फूकार किये बिना नहीं रहता; इस विचारणा को ईहा कहते हैं।
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३८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११५ (३) अपाय-अवग्रह और ईहा द्वारा गृहीत विषय का अधिक एकाग्रता से निर्णय-निश्चय करना, उसको 'अपाय' कहते हैं अर्थात् विचारणा के बाद यह अमुक वस्तु है, ऐसा निर्णय होना अपाय है । जैसे—वस्तु-पदार्थ के गुण, दोष या योग्यायोग्य की विचारणा से निर्णय-निश्चय हो कि यह सर्प का स्पर्श नहीं है, किन्तु रज्जु-डोरी का स्पर्श है; उसको ही अपाय कहते हैं । अपाय, अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध और अपनुत ये सभी शब्द एक अर्थ के वाचकसमानार्थक हैं।
(४) धारणा-अपने वस्तु-पदार्थ का जो ज्ञान-बोध, तद् विषयक चिरस्थिति या अवधारण को धारणा कहते हैं । अर्थात्-अपने योग्य पदार्थ का जो बोध हुआ है, उस बोध का अधिक काल तक स्थिर रहना, इसे धारणा कहा जाता है। अवधारणा गृहीत ज्ञान कालान्तर में नष्ट हो जाता है, किन्तु ऐसा है कि पुनः योग्य निमित्त मिलने पर निश्चित विषय का स्मरण हो जाय, ऐसी निश्चय की सततधारा एवं तद्जन्यसंस्कार और संस्कारजन्य स्मृति-स्मरण वही धारणा है।
उपर्युक्त चारों भेदों का जो क्रम है, वह सहेतुक है । कारण कि सूत्रक्रम से उसकी उत्पत्ति है और उसी का वह सूचक भी है । अर्थात्-अवग्रहादि क्रमश: प्रवर्तित होते हैं। फिर भी कमलदलशतपत्रभेद के समान अति शीघ्रता से प्रवर्तता होने से हमें उसकी अनुभूति नहीं होती। हमें तो ऐसा ज्ञात होता है जैसे सीधा ही अपाय हो रहा हो। अपाय के पश्चात् धारणा होती है । धारणा के भी तीन भेद हैं। १. अविच्यति २. वासना ३. स्मति । (१) अविच्यति-उपयोग से च्यूत न होना, अर्थात प्रवाहित हो उपयुक्त होना ही अविच्युति है। अर्थात्-निर्णय के पश्चात् वस्तु का उपयोग उपयुक्त हो यही अविच्युति है । (२) वासना--अविच्युति से आत्मा में पड़े हुए संस्कार वासना हैं । यही संस्कार वासना धारणा के नाम से ख्यात हैं, जो संख्यात, असंख्यात काल पर्यन्त भवान्तर में भी रह सकते हैं एवं अनुभव किये जा सकते हैं। (३) स्मृति--मतिज्ञान के दूसरे प्रकार का नाम स्मृति है । इससे इन्द्रियज्ञान का विषय स्मृति में आता है। मनोवैज्ञानिक पाश्चात्य दार्शनिक इसे Recollection अथवा Recognition भी कहते हैं। पाश्चात्य दार्शनिक Hobbe के अनुसार तो स्मरण का विषय अथवा Idea मात्र मरणोन्मुख इन्द्रियज्ञान Nothing But Decaying Sense ज्ञात होता है। ये तथ्य जैनदर्शन में हजारों वर्ष पूर्व स्मति ज्ञान विषय में पूर्ण वैज्ञानिकता से परिभाषित एवं विश्लेषित गये हैं, जैसे इन वैज्ञानिकों ने उसी की हूबहू नकल की हो ऐसा लगता है। इससे ज्ञात होता है कि हमारा दर्शन कितना समृद्ध एवं कितना श्रेष्ठ है। अब देखिये-जैन तत्त्वार्थ में स्मृति का कितना स्पष्ट एवं वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। प्रात्मा में यह संस्कार दृढ़ होने के पश्चात् कालान्तर में ऐसे किसी भी पदार्थ के दर्शनादिक से पूर्व के संस्कार जागृत होने पर यथा 'यह वही है जो मैंने पूर्व में प्राप्त किया था या देखा था या मेरी अनुभूति में आया था' इस प्रकार के रूप का जो ज्ञान होता है उसे स्मृति ज्ञान कहते हैं। जातिस्मरण ज्ञान का समावेश इसी स्मृति में हुआ करता है तथा इसी स्मृतिज्ञान के कारण वासना (संस्कार) स्मृति में होती है। जो संस्कार आत्मा में नहीं पड़े होंगे, उनका कभी स्मरण भी नहीं होगा। वासना (संस्कार) उपयोगात्मक अविच्युति धारणा से उत्पन्न होती है ।। १५ ।।
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१।१६ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ३६ * अवग्रहादीनाम् भेदाः बहु-बहुविध-क्षिप्र-निश्रिताऽसंदिग्ध-ध्र वाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥
* सुबोधिका टीका * पूर्वसूत्रे कथिता अवग्रहादयश्चत्वारो मतिज्ञानविभागाः सन्ति । एषां बह्वादीनामर्थानाम् सम्प्रतिपक्षाणां भवन्त्येकशः । बहु, बहुविधं (अनेकप्रकारक), क्षिप्रं (शीघ्रतया), निश्रितं (चिह्नसहितं), असंदिग्धं (सन्देहरहितं), ध्र वं (निश्चितं), इति षट्; तथा तेषां प्रतिपक्षरूपं अर्थात् अबहु (किञ्चित्), अबहुविधं (अल्पप्रकारक), अक्षिप्रं (दीर्घकालिक), अनिश्रितं (चिह्नरहितं), सन्दिग्धं (सन्देहसहितं), अध्र वं (अनिश्चितं), इति षट् च मिलित्वा द्वादशविधं अवग्रहादिकं भवति। अर्थात्(१) बह्वगृह्णाति, (२) अल्पमवगृह्णाति, (३) बहुविधमवगृह्णाति (४) अबहुविधमवगृह्णाति, (५) क्षिप्रमवगृह्णाति, (६) अक्षिप्रमवगृह्णाति, (७) निश्रितमवगृह्णाति, (८) अनिश्रितमवगृह्णाति, (६) असंदिग्धमवगृह्णाति (१०) संदिग्धमवगृह्णाति, (११) ध्र वमवगृह्णाति, (१२) अध्र वमवगृह्णाति चेति । एवमीहाऽपाय-धारणानामपि ज्ञेयम् ॥ १६ ॥
___* सूत्रार्थ-बहु, बहुविध, क्षिप्र, निश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव ये छह तथा सेतर अर्थात् इनसे विपरीत क्रमशः अबहु (अल्प), अबहुविध (एकविध), अक्षिप्र (चिरेण), अनिश्रित, संदिग्ध और अध्र व; ये छह मिलकर कुल बारह प्रकार के अवग्रहादि रूप मतिज्ञान के प्रभेद हैं ।। १६ ।।
विवेचन स्पर्शनेन्द्रियादि पाँच इन्द्रिय और मन इन छह साधनों द्वारा उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान के हादि बारह भेद होते हैं। जीव-मात्मा के क्षयोपशम और विषय की विविधता से अवग्रहादिक के बारह-बारह भेद होते हैं । अर्थात् अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा इनमें से प्रत्येक के बारहबारह भेद होते हैं।
(१-२) बहुग्राही-अबहुग्राही:-बहु का अर्थ है अनेक और अबहु का अर्थ है अल्प-एक, इनको जानना । जैसे-दो या इससे भी अधिक-विशेष शब्दों को या पुस्तकों को जानते हुए अवग्रहादि चारों क्रमभावी मतिज्ञान अनुक्रम से बहुग्राही अवग्रह, बहुग्राही ईहा, बहुग्राही अपाय, बहुग्राही धारणा कहलाते हैं तथा अल्प-एक शब्द को या एक पुस्तक को जानते हुए पूर्वोक्त अवग्रहादि चारों भेद अल्पग्राही कहलाते हैं । अर्थात्-कोई व्यक्ति तत, वितत, सुषिर, घन इत्यादि अनेक शब्दों को एक ही साथ जान सके, उसका अवग्रहादि अनेक शब्दों का होता है तथा जो व्यक्ति एकाध-दो शब्दों
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४०
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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१११६
को जान सके, उसका अवग्रहादि एकाध दो शब्द का ही होता है। इस तरह आगे भी क्षिप्रादि भेदों में जानना चाहिए।
(३-४) बहुविधग्राही-अबहुविधग्राही:-बहुविधग्राही का अर्थ अनेक प्रकार से और अबहुविध ग्राही का अर्थ एक प्रकार से जानना। जैसे-रूप, रंग, प्राकृति-पाकार इत्यादि विविधता वाले पुस्तकादि को जानते हुए उक्त चारों अवग्रहादि ज्ञान अनुक्रम से बहुविधग्राही कहलाते हैं। इसी तरह ईहा, अपाय और धारणा भी बहुविधग्राही कहे जाते हैं एवं एक प्रकार से पुस्तकादि को जानने वाले का ज्ञान उक्त बहुविधग्राही चारों भेद के समान प्रबहुविधग्राही अर्थात्-एकविधग्राही कहा जायेगा। अर्थात-कोई तत शब्द के अनेक भेदों को जान सके एवं वितत शब्द के भी अनेक भेदों को जान सके । ऐसे अनेक प्रकारों को जान सकता है। कोई एकाध दो प्रकार को ही जान सकते हैं। यहाँ पर व्यक्तिगत बहु तथा अल्प का अर्थ संख्यावाची है और बहुविध या एकविध का अर्थ उसकी विविधता का अवबोधक है।
(५-६) क्षिप्रग्राही-अक्षिप्रग्राही:-क्षिप्र का अर्थ है शीघ्र यानी जल्दी और अक्षिप्र का अर्थ है धीरे यानी विलम्ब से । पूर्वोक्त अवग्रहादि चारों भेद जब जल्दी-शीघ्रग्राही होते हैं तब उनको शीघ्रग्राही कहते हैं तथा जो धीरे-विलम्ब से होता है तब उनको प्रक्षिप्रग्राही कहते हैं ।
(७-८) निश्रितग्राही-अनिश्रितग्राही–निश्रित का अर्थ है चिह्न यानी निशानी युक्त तथा अनिश्रित का अर्थ है चिह्न यानी निशानी रहित । जैसे-पूर्व में अनुभव द्वारा शीतल, कोमल और सुकुमारादि स्पर्श रूप लिङ्गादिक से वर्तमान में जुही के पुष्प-फूल को जानने वाले को पूर्वोक्त चारों ज्ञान क्रमशः निश्रितग्राही अवग्रहादि रूप हैं तथा लिङ्ग के बिना पुष्प-फूलों को जानने वाले का ज्ञान क्रमशः अनिश्रितग्राही-अलिङ्गग्राही अवग्रहादि है । अर्थात्-कोई व्यक्ति अमुक प्रकार के चिह्नों से यह अमुक प्रकार की वस्तु-पदार्थ है इस तरह जान लेता है तथा कोई व्यक्ति चिह्नों के बिना भी जान लेता है । जैसे—कोई व्यक्ति जिनमूर्ति के वृषभलाञ्छन को देखकर कहता है कि यह मूर्ति श्री ऋषभदेव भगवान की है तथा कोई व्यक्ति वृषभलाञ्छन देखे बिना भी कहता है कि यह मूत्ति श्री आदिनाथ-ऋषभदेव भगवान की है।
(९-१०) असन्दिग्धग्राही-सन्दिग्धग्राही:-असन्दिग्ध का अर्थ है सन्देहरहित-निश्चय और सन्दिग्ध का अर्थ है सन्देहसहित-अनिश्चय जैसे-यह स्पर्श चन्दन का है, पुष्प-फूल का नहीं। इस तरह स्पर्श को निश्चित रूप से जानने वाले के उपर्युक्त चारों ज्ञान असन्दिग्ध-निश्चयग्राही अवग्रहादि हैं तथा चन्दन और पुष्प-फूल दोनों का स्पर्श शीतल होता है, इसलिए यह चन्दन का स्पर्श है या पुष्प-फूल का है ? इस तरह अनुपलब्धज्ञान सन्देहयुक्त होता है। इसलिये उसको सन्दिग्धअनिश्चयग्राही अवग्रहादि ज्ञान कहते हैं ।
* "बहु-बहुविध-क्षिप्र-निश्रिताऽ संदिग्ध-ध्र वाणां सेतराणाम् ॥१-१६॥” इस सूत्र में 'असंदिग्ध' के स्थान में 'अनुक्त' ऐसा पाठ भी देखने में आता है। 'बिना कही हुई' को 'अनुक्त' कहते हैं और कही हुई को 'उक्त' कहते हैं । जैसे—किसी भी वक्ता के प्रारम्भ के एकाध शब्द को सुनकर या अस्पष्ट अपूर्ण-अधूरे शब्द को सुनकर, उसके कहने के सम्पूर्ण अभिप्राय को जान सके, उसको अनुक्तग्राही कहते हैं तथा उससे विपरीत अर्थात्वक्ता के सम्पूर्ण बोलने पर ही उसका अभिप्राय समझ सके ऐसे ज्ञान को उक्तग्राही कहते हैं।
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१।१७ ]
प्रथमोऽध्यायः (११-१२) ध्र व-अध्र व-ध्रुव का अर्थ है निश्चय और अध्रुव का अर्थ है अनिश्चय । जैसे-इन्द्रियों और मन आदि की साधन-सामग्री समान होते हुए भी एक व्यक्ति विषय को अवश्य जानता है और दूसरा व्यक्ति कदाचिद् जानता है तथा कदाचिद् नहीं भी जानता है। अवश्य जानने वाले व्यक्ति के पूर्वोक्त अवग्रहादि चारों ज्ञान ध्र वग्राही हैं तथा इन्द्रिय और मन आदि की साधनसामग्री होते हए भी क्षयोपशम की मन्दता से किसी समय पर ग्रहण करता है तथा किसी समय ग्रहरण नहीं भी करता है। इसलिये ऐसे पूर्वोक्त चारों ज्ञान प्रध्र वग्राही कहलाते हैं। इन बारह भेदों में से बद. अल्प. बहविध और एकविध ये चारों भेद विषय की विविधता से होते हैं। शेष अठारह भेद क्षयोपशम की तारतम्यता से होते हैं। मतिज्ञान के २८८ भेद होते हैं। जैसे-पाँच इन्द्रिय और मन इन छह को अवग्रहादि चार भेदों युक्त गिनने से चौबीस भेद होते हैं। उन चौबीस को बहु आदि बारह भेदों सहित गिनने से २८८ भेद होते है ॥१६॥
* अवग्रहादीनां विषयः *
अर्थस्य ॥१७॥
* सुबोधिका टीका * अर्थस्य अर्थाद्-स्पर्शनादिविषयस्य अवग्रहादयो मतिज्ञानस्य भेदाः भवन्ति । अवग्रहादयश्चत्त्वारो भेदाः अर्थग्राहीरूपाः भवन्ति एव ॥ १७ ॥
- सूत्रार्थ-अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा ये चारों भेद अर्थग्राही होते हैं। अर्थात्-अवग्रहादि मतिज्ञान अर्थ अर्थात् वस्तु-पदार्थ को ग्रहण करते हैं। वस्तु-पदार्थ का ज्ञान अवग्रहादि चार प्रकार से होता है ।। १७ ।।
+ विवेचन शास्त्र में द्रव्य और पर्याय को वस्तु कहते हैं । इसका अन्य नाम अर्थ भी है। स्पर्शादि गुणरूप अर्थ के और स्पर्शादि गुण सहित द्रव्य रूप अर्थ के अवग्रहादि होते हैं। प्रश्न--इन्द्रिय और मनोजन्य अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा का ज्ञान क्या द्रव्यरूप वस्तु-पदार्थग्राही है या पर्यायरूप वस्तुपदार्थग्राही है ?
उत्तर-मुख्यतया अवग्रहादि ज्ञान पर्यायग्राही हैं, सम्पूर्ण द्रव्यग्राही नहीं हैं। जीव-आत्मा द्रव्य को पर्याय द्वारा जानते हैं। कारग-कि-पाँचों इन्द्रियों और मन का मुख्य विषय पर्यायग्राही है तथा पर्याय द्रव्य का एक अंश ही है। जब जीव-प्रात्मा अवग्रहादि ज्ञान द्वारा पाँचों इन्द्रियों और मन की सहायता से अपने-अपने विषय रूप पर्याय को जानता है, तब वह तद्-तद् पर्याय रूप से द्रव्य को भी अंशतः जानता है। कारण यह है कि द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं रह सकती और द्रव्य पर्याय से रहित नहीं होता है। यद्यपि इन्द्रियों और मन का विषय पर्याय रूप है, तो भी पर्याय द्रव्य से अभिन्न होने के कारण पर्याय के ज्ञान के साथ द्रव्य का भी ज्ञान अवश्य हो ही जाता है। जैसे-नेत्र से रूप का ज्ञान होने के साथ ही 'यह अमुक द्रव्य है' ऐसे द्रव्य का भी बोध अवश्य हो जाता है। नेत्र का विषय रूप, स्थान, प्राकृति-प्राकारादि है। यह पुदगल द्रव्य की एक पर्याय है। जीव-पात्मा द्वारा
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११८
नेत्र आम्रफल को ग्रहण करता है । उसके रूप, प्राकृति प्रकार विषयों को जानता है और वे श्राम्रफल से भिन्न नहीं हैं । इसलिए स्थूल दृष्टि से यह कह सकते हैं कि सम्पूर्ण रूप से प्राम्रफल देखा, किन्तु उस फल का जैसे - केरी की अवस्था में रूप और प्राकृति के बिना उसकी स्पर्श, रस और गन्ध इत्यादि अनेक पर्यायों का ज्ञान नेत्रों से नहीं हो सकता है; इसी तरह स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय वस्तु-पदार्थ की भिन्न-भिन्न पर्यायों को जानती हैं। जैसे- स्पर्शनेन्द्रिय खाद्य और पेय पदार्थ
उष्णशीतादि स्पर्श को, रसनेन्द्रिय कटु-मधुरादि रस को तथा घ्राणेन्द्रिय सुगन्ध और दुर्गन्ध प्रादि गन्ध को ही जानती हैं। किसी भी एक इन्द्रिय द्वारा वस्तु-पदार्थ की सम्पूर्ण पर्यायों का ज्ञान नहीं होता । इस प्रकार श्रोत्र न्द्रिय भी भाषात्मक पुद्गलों की ध्वनि रूप पर्याय को ग्रहण करती है, किन्तु सम्पूर्ण अंशों की विचारणा एक साथ नहीं होती है तथा मन भी वस्तु पदार्थ के किसी एक अंश का विचारक है किन्तु सम्पूर्ण अंशों की विचारणा एक साथ नहीं होती है । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि पाँचों इन्द्रियों और मनोजन्य प्रवग्रहादि चारों भेद मुख्य रूप से पर्याय विषयग्राही हैं । इसलिए इसी पर्याय द्वारा द्रव्य को जानते हैं । अवग्रहादि द्रव्य रूप अर्थ के भी होते हैं, ऐसा सामान्य से स्थूलदृष्टि से कह सकते हैं, किन्तु तात्त्विकदृष्टि से तो गुरण-पर्याय के ही अवग्रहादि होते हैं । इस प्रकार समझना चाहिए । पूर्व सूत्र में वस्तु पदार्थ की विशेषता विशेष रूप में बतायी है और इधर प्रस्तुत सूत्र सामान्य रूप से वर्णन किया है ।।१७।।
में
* श्रवग्रहानामवान्तरभेदः
व्यञ्जनस्याऽवग्रहः ॥ १८ ॥
* सुबोधिका टीका
व्यञ्जनस्य अर्थाद् अव्यक्तस्य तु अवग्रह एव भवति । तदित्थं व्यञ्जनस्य र्थस्य चद्विविधोऽवग्रहा बोधव्या । ते च ईहादयः अर्थेषु एव भवन्ति ॥ १८ ॥
* सूत्रार्थ - व्यञ्जन ( अव्यक्त शब्दादि का ) अवग्राही है । अर्थात् व्यञ्जन पदार्थ का अवग्रह ही होता है । ईहा आदि शेष तीन अर्थ ( व्यक्त वस्तु-पदार्थ) के ही होते हैं ।। १८ ॥
5 विवेचन 5
व्यञ्जन अवग्रह का (अर्थावग्रह का ) ही विषय बनता है, ईहा इत्यादि का नहीं । उसका कारण यह है कि- ईहा इत्यादि के ज्ञानव्यापार में इन्द्रिय विषय का संयोग अपेक्षित नहीं है । उसमें तो मुख्यपने मानसिक एकाग्रता अपेक्षित है । अव्यक्त ज्ञान में ही यह संयोग अपेक्षित है । जैसे-लंगड़े मनुष्य को चलने के लिए लकड़ी के सहारे की आवश्यकता रहती है, वैसे जीव- प्रात्मा की आच्छादित रही हुई चेतना शक्ति के लिए सहारे की अपेक्षा रहती है । इसी कारण से बाह्य साधन रूप इन्द्रिय और मन की श्रावश्यकता रहती है । उपकरणेन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध-संयोग के बिना अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है । इसलिए परस्पर सम्बन्ध-संयोग हो जाय तो ही अर्थ का ज्ञान होता है । उपकरणेन्द्रिय और विषय के परस्पर सम्बन्ध-संयोग को ही व्यञ्जन कहने में आता है । अर्थात्
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१।१८
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प्रथमोऽध्यायः
[
४३
जिनसे अर्थ का ज्ञान हो जाय, वही व्यंजन है। अवग्रह तो दोनों ही प्रकार के पदार्थ का हुआ करता है, व्यंजन का भी और अर्थ का भी; जिनको क्रम से व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह कहते हैं । उपकरणेन्द्रिय और विषय के परस्पर सम्बन्ध-संयोग होते ही जो अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान होता है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं तथा व्यंजनावग्रह के पश्चात् 'कुछ है' ऐसा सामान्य ज्ञान रूप अर्थावग्रह होता है।
सारांश यह है कि इन्द्रियों के साथ ग्राह्य विषय का सम्बन्ध-संयोग हुए बिना ज्ञानधारा का आविर्भाव होना पटुक्रम है। इसका प्रथम अंश अर्थावग्रह और अन्तिम अंश स्मति रूप धारणा है। जीव-आत्मा के मन्दक्रम से ग्राह्य विषय का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध-संयोग होने के बाद, ज्ञानधारा का आविर्भाव होता है; जिसका पहला अंश अव्यक्ततम, अव्यक्ततर और व्यंजनावग्रह ज्ञान है और दसरा अंश अर्थावग्रह तथा अन्तिम अंश स्मतिरूप धारणा है ।
इन्द्रिय और विषय सम्बन्ध-संयोग की सापेक्षता से मन्दक्रम की ज्ञानधारा का प्राविर्भाव होता है। इस बात को स्पष्टता से समझाने के लिए सकोरे का उदाहरण-दष्टान्त इस प्रकार है। जैसे-- भट्री में से तत्काल बाहर निकले हए अतिरुक्ष सकोरे में जल की एक बूद डालने के साथ तत्काल वह सकोरा बूद सोख लेता है-चस लेता है, जिससे उसमें जल की बूद देखने में भी नहीं पाती है। इस तरह उसमें कितना ही जल (पानी की बूदें) डालते रहो, वह सकोरा सोखता ही जायगा; किन्तु अन्त में वह भीग कर उन जल की बूंदों को सोखने में जब असमर्थ होगा तब वे जलबिन्दू समूह के रूप में एकत्र होकर दिखाई देने लगेंगे। यहां यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि--प्रारम्भ में जो सबसे पहली पानी की बूद सकोरे में डाली गई थी, वह भी उसमें मौजूद थी, तो भी उस जलबूद का इस प्रकार से शोषण हा कि वह नेत्रों से दिखाई भी नहीं देती। जब क्रमश: जल-पानी का प्रमाण वृद्धि को प्राप्त हुआ तथा सकोरे की सोखने की शक्ति कम हुई तब उसमें प्रार्द्रता यानी गीलापन दिखाई देने लगा। ततपश्चात जल का शोषण नहीं हमा, किन्तु पानी एकत्र होकर दिखाई देने लगा। जब तक सकोरा पानी चूसता है तब तक उसमें पानी दिखने में नही आता, तो भी उसमें पानी नहीं है, ऐसा नहीं कहा जाता । कारण कि उसमें पानी है, किन्तु वह अव्यक्त है । सकोरा भीग जाने के बाद पानी व्यक्त होता है। उसी तरह प्रस्तुत व्यंजनावग्रह में ज्ञान अव्यक्त होता है और अर्थावग्रह में सामान्य रूप से व्यक्त होता है । जिस तरह मिट्टी के बनाये हुए किसी सकोरे आदि बर्तन के ऊपर पानी की बूद पड़ने से पहले तो वह व्यक्त नहीं होती है, किन्तु पीछे से वह धीरे-धीरे क्रमशः पड़तेपडते व्यक्त हो जाती है; उसी तरह कहीं-कहीं कानों पर पड़ा हया शब्द आदि भी पहले तो अव्यक्त होता है, बाद में व्यक्त हो जाता है । इसी प्रकार अव्यक्त वस्तु-पदार्थ को व्यंजन कहते हैं और व्यक्त को अर्थ कहते हैं । व्यक्त के अवग्रहादि चारों होते हैं तथा अव्यक्त का तो अवग्रह ही होता है । इस विषय के सम्बन्ध में पटुक्रम शीघ्रगामी धारा के लिए दर्पण का भी दृष्टान्त पाता है। जैसे-पाईने-दर्पण के सामने आई हुई वस्तु-पदार्थ का प्रतिबिम्ब तत्काल दिखाई देता है। इसके लिए दर्पण के साथ बिम्बत वस्तु-पदार्थ के स्पर्श रूप साक्षात् संयोग की आवश्यकता नहीं रहती है, परन्तु प्रतिबिम्बग्राही दर्पण और प्रतिबिम्बित वस्तू-पदार्थ का संयोग स्थान संनिधान-सामीप्य अवश्य है इसलिए उसके सामने होते ही प्रतिबिम्ब पड़ता है। वैसे ही नेत्र के सामने आई हुई वस्तु-पदार्थ सामान्य रूप से तत्काल दिखाई देती है । इसके लिए वस्तु-पदार्थ का और नेत्र का संयोग सापेक्ष नहीं है। जैसे कान और शब्द के संयोग की सापेक्षता है वैसा नहीं है, तो भी दर्पण के समान नेत्र और वस्त-पदार्थ की
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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सिर्फ योग्य निकटता होनी चाहिए । इसीलिए पटुक्रम की धारा में सबसे पूर्व अर्थावग्रह मान्य है तथा मन्दक्रम धारा में व्यंजनावग्रह का स्थान है, किन्तु पटक्रम धारा में व्यंजनावग्रह नहीं है। यद्यपि अपाय की दृष्टि से अर्थावग्रह भो अव्यक्त ज्ञान है, किन्तु व्यंजनावग्रह की दृष्टि से अर्थावग्रह व्यक्त ज्ञान है। व्यंजनावग्रह में तो ज्ञान की अंश मात्र भी अभिव्यक्ति नहीं होती। अर्थावग्रह में 'कुछ है' ऐसी सामान्य ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है।
यहाँ पर इतना ध्यान अवश्य रखना है कि वस्तु-पदार्थ का व्यञ्जनावग्रह हो जाय तो ही अर्थावग्रह होता है, ऐसा नियम है; किन्तु व्यंजनावग्रह हो जाय तो अर्थावग्रह होता ही है, ऐसा नियम नहीं है ॥१८॥
* व्यंजनावग्रहस्य विशेषता * न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १६ ॥
* सुबोधिका टीका * चक्षुषा मनसा च व्यञ्जनस्य अर्थाद् द्रव्यस्य अवग्रहो न जायते, किन्तु अवशिष्टयं : चतुभिरिन्द्रियैरेव अवग्रहो भवति । अनेन प्रकारेण मतिज्ञानस्य द्वि-चतुरष्टाविंशतिभेदानां बह्वादिषड्भिः सह गुणनेन अष्टष्टयधिकमेकशतं भेदाः जायन्ते । तथा अष्टाविंशतेश्च द्वादशसङ्ख्यागुणनेन षट् त्रिंशदधिकशतत्रयं (३३६) भेदाः श्रुतनिश्रितमतिज्ञानस्य भेदाः प्रभवन्ति ।। १६ ॥
ॐ सूत्रार्थ-व्यंजनावग्रह चक्षुरिन्द्रिय और मन के द्वारा नहीं होता अर्थात् नेत्र और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता है ।। १६ ।।
卐 विवेचन ॥ नेत्र और मन के द्वारा होने वाले मतिज्ञान में व्यंजनावग्रह के बिना सीधा ही अर्थावग्रह होता है। कारण कि-वहाँ पर उपकरणेन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध-संयोग की आवश्यकता नहीं रहती है। नेत्र और मन दोनों केवल योग्य सन्निधान से या अवधान-स्मरण मात्र से ही अपने ग्राह्य विषय-पदार्थ को जान लेते हैं। स्पर्शनेन्द्रियादि चार इन्द्रियाँ तो उनके साथ जब अपने विषय का सम्बन्ध-संयोग हो जाय तभी उसे जान सकती हैं। समीप या दूर-दूरतर रहे हए मन्दिरों, मूत्तियों, तीर्थों, पर्वतों, समुद्रों, नदियों, वृक्षों, मुकामों तथा प्राणियों आदि को तो चक्षु-नेत्र ग्रहण करता हैदेखता है तथा हजारों कोस दूरवर्ती-सुदूरवर्ती वस्तु-पदार्थ का चिन्तन तो मन कर सकता है। इसलिए नेत्र और मन को अप्राप्यकारी कहा है और स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय इन चारों को प्राप्यकारी कहा है। कारण कि ये चार इन्द्रियग्राह्य विषय के साथ संयुक्त होकर उस विषय-पदार्थ को ग्रहण करती हैं। जब तक पानी आदि का स्पर्श शरीर के साथ न हो, गुड़-शक्कर प्रादि रसना-जीभ पर न रखी जाय, पूष्प-फल-अत्तर आदि के रजकरण
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प्रथमोऽध्यायः
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नासिका-नाक में प्रवेश न करें तथा शब्द कान के भीतर प्रवेश न करे; तब तक उन-उन विषयोंपदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता है।
सारांश यह है कि मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं। किस तरह ? सो कहते हैं कि-निमित्त कारण की अपेक्षा मतिज्ञान के दो भेद हैं। एक इन्द्रियनिमित्तक और दूसरा अनिन्द्रियनिमित्तक । पाँच इन्द्रियों और छठे मन इन छह को प्रर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा इन चारों के साथ गिनने से चौबीस भेद होते हैं और इन्हीं में व्यंजनावग्रह के चार भेद मिलाने से अट्ठाईस भेद होते हैं । इन अटठाईस भेदों को बह ग्रादि बारह भेदों के साथ गिनने से तीन सौ छत्तीस (३३६) भेद होते हैं |२४४=८,४४५=२०,८+२० =२८,२८x१२-३३६ भेद मतिज्ञान के होते हैं]
* श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ३३६ भेदों का यन्त्र *
मन
चक्षु । स्पर्शन | रसना | घ्राण | श्रोत्र (आँख) (त्वचा) (जीभ) (नाक) | (कान)
कुल भेद
५
५
२८
५ । ५ ।
|
२८
|
५ | ५
|
[१] बहु ४ । ४ । ५ । ५ । ५ [२] अबहु । ४ । ४ । ५ ५ ५ [३] बहुविध | ४ । ४ । ५ ५ ५ । [४] अबहुविध ४ । ४ । ५ । ५ ५ | [५] क्षिप्र । ४ । ४ । ५ । ५ । ५ | | [६] अक्षिप्र । ४ । ४ । ५ । ५ । ५ । | [७] निश्रित | ४ | ४ । ५ । । [८] अनिश्रित ४ [६] असंदिग्ध ४ । ४ । ५ । [१०] संदिग्ध [११] ध्रुव | ४- ४ [१०] अध्रुव ।-४ ४ । ५। ५ । ५
३४०
इनमें अश्रुतनिश्रितमतिज्ञान के प्रौत्पातिकी आदि चार भेद उमेरते हुए ३४० भेद मतिज्ञान के होते हैं।
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४६ ]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १२०
आगम ग्रन्थों में मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित और श्रुतनिश्रित इस तरह दो भेद कहे हैं । पर के उपदेश-प्रेरणा से या आगमग्रन्थादिक से जो कुछ भी श्रवण करने में या जानने प्रा जाय वह श्रुत है । इस प्रकार के श्रुत से संस्कारित हुआ मतिज्ञान श्रुतनिश्रित कहा जाता है तथा पूर्वे कभी भी जानकारी न होने पर विशिष्ट प्रकार के मतिज्ञान के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई ऐसी मति को निश्रित कहते हैं ।
मतिज्ञान के पूर्व कहे हुए ३३६ भेद श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के हैं तथा अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के भी चार भेद हैं, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं - ( १ ) श्रौत्पातिकी, (२) वैनयिकी, (३) कामिकी और ( ४ ) पारिणामिकी |
( १ ) श्रौत्पातिकी - किसी कार्य में विशिष्ट प्रसंग उपस्थित होने पर उस प्रसंग को पार पाड़ने में तत्काल एकाएक उत्पन्न हुई मति बुद्धि को 'श्रौत्पातिकी' कहते हैं । जैसे- श्री अभयकुमार मन्त्रीश्वर की तथा रोहक श्रादि की प्रौत्पातिकी मति - बुद्धि थी ।
(२) वैनयिकी- - गुरु आदि की विनय - वेयावच्च सेवा-भक्ति आदि करने से प्राप्त हुई मतिबुद्धि को 'वैनयिकी' कहते हैं। जैसे कि - निमित्तज्ञ शिष्य आदि की मति - बुद्धि 'वैनयिकी' है ।
(३) कार्मिकी - काम करते-करते अभ्यास करते-करते प्राप्त हुई मति बुद्धि को 'कामिकी' कहते हैं । जैसे - चोर तथा खेडूत आदि की मति-बुद्धि 'कार्मिको' है ।
(४) पारिणामिकी - समय जाते हुए अनुभव से प्राप्त होने वाली मति बुद्धि को 'पारिणामिकी' कहते हैं । जैसे- श्री वज्रस्वामी महाराज आदि की मति-बुद्धि पारिणामिकी थी ।
पूर्वोक्त श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ३३६ भेदों में प्रश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के श्रौत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी इन चार भेदों को मिलाने से मतिज्ञान के कुल ३४० भेद होते हैं । वास्तविक रीति से मतिज्ञान के क्षयोपशम की विचित्रता के तारतम्यत्व भाव से असंख्य भेद होते हैं ॥१६॥
* श्रुतज्ञानस्य स्वरूपं भेदाश्च
श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ।। २० ।।
* सुबोधिका टीका
श्रुतज्ञानं मतिज्ञानपूर्वकं भवति । श्रुतं प्राप्तवचनादिकं जिनवचनमित्यनर्थान्तरम् । तच्च द्विविधं अङ्गबाह्य अङ्गप्रविष्टं चेति । अनयोः प्रथमस्य अनेके भेदाः, द्वितीयस्य द्वादशभेदाः सन्ति । अङ्गबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा - सामायिकं, चतुविंशतिस्तवः, वन्दनं प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्गः, प्रत्याख्यानमिति षडावश्यकम् । तथा दशवैकालिकं, उत्तराध्ययनं, दशाश्रुतस्कन्धः, कल्प व्यवहारौ, निशीथसूत्रं चेत्यादि महर्षि - भाषिताङ्गबाह्यश्रुतेत्यनेकविधं ज्ञेयम् । श्रङ्गप्रविष्टश्रुतस्य द्वादशभेदाः सन्ति । तथाहि
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१।२० ] प्रथमोऽध्यायः
[ ४७ [१] आचाराङ्ग, [२] सूत्रकृताङ्ग, [३] स्थानाङ्ग, [४] समवायाङ्ग, [५] व्याख्याप्रज्ञप्त्यङ्ग (भगवत्यङ्ग, पञ्चमाङ्ग), [६] ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, [७] उपासकदशाङ्ग, [८] अन्तकृद्दशाङ्ग, [६] अनुत्तरौपपातिकदशाङ्ग, [१०] प्रश्नव्याकरणाङ्ग, [११] विपाकाङ्ग, [१२] दृष्टिवादाङ्ग चेति द्वादशविधान्यङ्गसूत्राणि ।
अत्राह-मतिज्ञान-श्रुतज्ञानयोः परस्परं को भेदः ? इति दर्श्यते । उत्पन्नो भवन् विनाशमलभमानः एतादृशो यः पदार्थः तद्ग्राहि वर्तमानकालविषयकं मतिज्ञानं भवति । श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयकं अर्थात् यः पदार्थः उत्पन्नोऽस्ति, एवं यश्च उत्पद्यविनाशं प्राप्तः तथा यः उत्पत्स्यते इति त्रयाणां ग्रहणं करोति ।
अधुना अङ्गबाह्य अङ्गप्रविष्टे च परस्परं को भेदः ? इति दर्श्यते । वक्तृ णां भेदेन इदं द्विविधम् । तद्यथा-सर्वज्ञेन सर्वदशिना परमर्षिणा अर्ह-अरिहन्तेन भगवता परमशुभ-तीर्थप्रवर्तनरूपफलदायक तीर्थङ्करनामकर्मणः प्रभावेन यद् कथितं तथाऽतिशयोवच्च एवमुत्तमातिशयवद् वाणी बुद्धिमद्भिः भगवतां शिष्यैः गणधरैः यद् संग्रथितं सन्निबद्ध तद् अङ्गप्रविष्टं भवति । गणधरानन्तरं ये अत्यन्तविशुद्धागमज्ञानवन्तः, परमप्रकृष्टवाणीबुद्धि शक्तिमन्तः प्राचार्याः कालस्य संघयणस्य प्रायुषश्च दोषेण ये अल्पशक्तिमन्तः शिष्याः तेषां उपकाराय यद् रचितवन्तः तद् अङ्गबाह्यमिति । सर्वज्ञप्रणीतत्त्वेन ज्ञेयपदार्थानामानन्तेन च मतिज्ञानापेक्षया श्रुतज्ञानं महद्विषयकं भवति । श्रुतज्ञानस्य महाविषयकत्वेन तद् तद् अधिकाराश्रयणेन च प्रकरणसमाप्त्यपेक्षया अङ्ग उपाङ्गस्य भेदोऽस्ति अङ्गोपाङ्गयोः रचना न स्याद् तदा समुद्रसंतरणमिव सिद्धान्तस्य ज्ञानं दुःसाध्यं स्यात् । अतः पूर्व, वस्तु, प्राभृतं, प्राभृतप्राभृतं, अध्ययन, उद्देशश्च कृता सन्ति ।
पुनः अत्र शिष्यः शङ्कां करोति-यत् मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं एकविषयं अस्ति, तेन द्वयोः विषयः एक एव भवति । तदा गुरोः प्रत्युत्तरं ददाति । यत् पूर्वोक्तकथनानुसारं मतिज्ञानं वर्तमानकालविषयकं भवति । श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयकं भवति । श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयकं इत्यनयोः भेदः । एवमेव मतिज्ञानापेक्षया श्रुतज्ञानं विशुद्धतरं इत्यपि तस्माद् भेदः । पुनश्च मतिज्ञानं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तक, तथा
आत्मनः ज्ञस्वभाव्यात् पारिणामिकं भवति । श्रुतज्ञानं तु मतिपूर्वकं प्राप्तपुरुषाणां सदुपदेशाद् भवतीत्यर्थः ।। २० ।।
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४८
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १२०
सूत्रार्थ-श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं-अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट । अङ्गबाह्य श्रुतज्ञान के अनेक भेद हैं और अङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं ।। २० ।।
ॐ विवेचन श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही होता है । श्रुत, प्राप्त वचन, पागम, उपदेश, एतिह्य, आम्नाय, प्रवचन तथा जिनवचन ये सर्व एकार्थ वाचक शब्द हैं। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । इनमें अंगबाह्य के अनेक भेद हैं तथा अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं। प्रश्न--अंगबाह्य श्रुतज्ञान के अनेक भेद कौन से हैं ? उत्तर--अंगबाह्यश्र तज्ञान के अनेक भेद इस प्रकार हैं(१) सामायिक, (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायव्युत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान; ये षड़ावश्यक अंगबाह्य हैं । तदुपरान्त-दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार तथा निशीथ इत्यादि शास्त्र भी अंगबाह्य आगम सूत्र हैं।
प्रश्न--प्रगप्रविष्टश्रुतज्ञान के बारह भेदों के क्या नाम हैं ?
उत्तर--अंगप्रविष्टश्रु तज्ञान के बारह भेदों के नाम इस प्रकार हैं--(१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) उपाख्याप्रज्ञप्ति-पंचमांग (भगवती), (६) ज्ञाताधर्मकथांग, (७) उपासकदशांग, (८) अन्तकृतदशांग, (६) अनुत्तरोपपातिकदशांग, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक और (१२) दृष्टिवाद ।
प्रश्न--मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में क्या विशिष्टता है ?
उत्तर--मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। मतिज्ञान से श्रु तज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान कहा जाता है। श्रुतज्ञान का विषय प्राप्त करने से पहले मतिज्ञान अवश्य ही होना चाहिए। श्रुतज्ञान को पूर्णता के लिए मतिज्ञान सहायक है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान का बाह्यकारण है। वास्तविक कारण तो क्षयोपशम है। किसी भी विषय-पदार्थ का मतिज्ञान होते हुए भी क्षयोपशम के अभाव से तद् विषयक श्रुतज्ञान नहीं भी होता है। जैसे मतिज्ञान का कारण मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, वैसे श्रुतज्ञान का कारण श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है। इसलिए दोनों का भेद यथार्थ समझ में नहीं पाता। मतिज्ञान वर्तमानकाल विषयी है और श्रतज्ञान त्रिकालविषयी है। इसके अलावा दूसरा अन्तर यह भी है कि-मतिज्ञान का शब्दोल्लेख नहीं होता है और श्रतज्ञान का शब्दोल्लेख होता है। पुन: मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों में पाँचों इन्द्रियों और मन की अपेक्षा होते हुए भो मतिज्ञान से श्रुतज्ञान का विषय विशेष है। इतना ही नहीं, किन्तु स्पष्टता यानो स्पष्टीकरण भी अधिक है। कारण कि-श्रुतज्ञान में मनोव्यापार की मुख्यता होने से जोव-यात्मा के विचार-विमर्श के अंश अधिक और स्पष्ट होते हैं। ये दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं।
प्रश्न-श्रुतज्ञान के दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद किस तरह से होते हैं ?
उत्तर-श्रुतज्ञान अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट रूप से दो प्रकार का है तथा इसमें अंगबाह्य सूत्र के उत्कालिक और कालिक इत्यादि अनेक प्रकार यानी अनेक भेद हैं। एवं अंगप्रविष्ट सूत्र के प्राचारांगादि बारह भेद हैं।
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१।२१-२२ ]
प्रथमोऽध्यायः
[ ४६
प्रश्न - श्रंगबाह्य सूत्र की और अंगप्रविष्ट सूत्र की विशिष्टता यानी विशेषता किस अपेक्षा से है ?
उत्तर- इन दोनों की विशिष्टता - विशेषता वक्ता की अपेक्षा से है । अर्थात् श्रुतज्ञान के दो भेद वक्ता के भेद की अपेक्षा से जानना । जिस ज्ञान को सर्वज्ञ विभु श्री तीर्थंकर भगवन्तों ने प्रर्थ रूप से प्ररूपा अर्थात् प्रकाशित किया और श्रुतकेवली श्रीगणधर महाराजाओं ने ग्रहण करके सूत्र रूप से रचना की, उसे ही अंगप्रविष्ट कहते हैं तथा उसी के अनुसार शिष्यादिकों को सुगमता - सरलता से अवबोध- जानकारी कराने के लिए एवं सर्व साधारण जीवों के हितार्थ अन्य ज्ञानी प्राचार्य भगवन्तों ने और पूर्वघर महर्षियों ने विविध अनेक विषयों पर अनेक शास्त्रों की रचना की है, उनको श्रंगबाह्य कहते हैं ।। २० ।।
* अवधिज्ञानस्य भेदाः द्विविधोऽवधिः ॥ २१ ॥
* सुबोधिका टीका
प्रोक्तं श्रुतज्ञानम् । अथ किमिति अवधिज्ञानम् ? कथ्यतेऽत्र - अवधिज्ञानं द्विप्रकारक - मस्ति । भवप्रत्ययः, क्षयोपशमनिमित्तश्चेति । भवस्य निमित्तार्थमवश्यं भवति तद् भवप्रत्ययमवधिज्ञानं ज्ञेयम् । तथा अवधिज्ञानावरणीयकर्मणः क्षयोपशमाद् भवति तद् क्षयोपशममवधिज्ञानं ज्ञेयमिति ॥ २१ ॥
सूत्रार्थ - अवधिज्ञान के दो भेद हैं- एक भवप्रत्यय अवधिज्ञान और दूसरा क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान ।। २१ ।।
विवेचन फ
अवधिज्ञान दो प्रकार का है । भवप्रत्यय और क्षयोपशम निमित्तक । प्रत्यय यानी निमित्त । जो भव के निमित्त से अवश्य होता है, उसको भवप्रत्यय श्रवधिज्ञान कहते हैं तथा जो अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है, उसे क्षयोपशम प्रत्यय ( निमित्त ) श्रवधिज्ञान कहते हैं ॥२१॥
* भवप्रत्ययावधिज्ञानस्य स्वामी
भवप्रत्ययो नारक-देवानाम् ॥ २२ ॥
* सुबोधिका टीका
तत्र नारकारणां देवानां च यथायोग्यं भवप्रत्ययमवधिज्ञानं भवति । भवप्रत्ययं भवहेतुकं भवनिमित्तमित्यनर्थान्तरम् । भवः कारणं यस्य सः भवप्रत्ययिकः । यतः देवतानां नारकाणां च भवोत्पत्तिः सैव तस्य अवधिज्ञानस्य कारणं भवति । यथा- पक्षीणां
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५० ]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १।२२
जन्म आकाशगतेः ( उड्डुनस्य) कारणं भवति, किन्तु तदर्थं शिक्षायाः तपसो वा आवश्यकता न जायते । तथैव देवगत्यां समुत्पन्नानां देवानां देवीनां च एवं नरकगत्यां समुत्पन्नानां नारकजीवानां अवधिज्ञानं स्वयं प्राप्तं भवतीति ।। २२ ।।
* सूत्रार्थ - नारक और देवों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है । केवल नारकी जीवों को और देवताओं को अवधिज्ञान जन्मसिद्ध 'भवप्रत्यय' निमित्त से होता है ।। २२ ।।
विवेचन फ
पूर्व सूत्र में अवधिज्ञान जो दो प्रकार का कहा है, उनमें से नारक और देवों के जो यथायोग्य अवधिज्ञान होता है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहा जाता है । अर्थात् - जो ज्ञान जन्म के साथ ही तत्काल उत्पन्न हो उसको भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं । यहाँ पर प्रत्यय शब्द का अर्थ तु या निमित्त कारण है। इसलिए भवप्रत्यय, भवहेतुक या भवनिमित्त ये सब शब्द एकार्थवाचक हैं। क्योंकि – नारक और देवों के अवधिज्ञान में तो भव में उत्पन्न होना ही कारण माना है । जैसे -पक्षियों को उस भव में जन्म लेने से ही आकाश में गमन करना स्वभाव से आ ही जाता है । उसके लिए उसको शिक्षा और तप कारण नहीं । उसी प्रकार जो जीव- श्रात्मा देवगति या नरकगति प्राप्त करता है, उसको अवधिज्ञान भी स्वयं प्राप्त हो ही जाता है । वहाँ पर शिक्षा और तप इन दोनों ही कारणों का प्रभाव है । इसके लिये यम-नियमादि अनुष्ठान की अपेक्षा नहीं रहती है । जन्मसिद्ध अवधिज्ञान भवप्रत्यय कहलाता है ।
यद्यपि भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भी कर्म के क्षयोपशम की आवश्यकता अवश्य है, तो भी देव का या नारक का भव मिलने पर अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अवश्य होता है । इसलिये क्षयोपशम की अपेक्षा से भव की प्रधानता होने से देवभव और नारकभव में होने वाला अवधिज्ञान 'भवप्रत्यय' ही है ।
प्रश्न- नारक और देवों के अवधिज्ञान के विषय में क्षेत्र की मर्यादा कितनी है ?
उत्तर - सातों नरकों में अवधिक्षेत्र इस प्रकार है
( १ ) पहले नरक में – जघन्य से ३ । । कोस और उत्कृष्ट से ४ कोस अवधिक्षेत्र की मर्यादा है । (२) दूसरे नरक में – जघन्य से ३ कोस और उत्कृष्ट से ३ ।। कोस अवधिक्षेत्र की मर्यादा है । (३) तीसरे नरक में - जघन्य से २॥ कोस और उत्कृष्ट से ३ कोस अवधिक्षेत्र की
मर्यादा है।
मर्यादा
(४) चौथे नरक में – जघन्य से २ कोस और उत्कृष्ट से २।। कोस अवधिक्षेत्र की मर्यादा है । (५) पाँचवें नरक में - जघन्य से १|| कोस और उत्कृष्ट से २ कोस अवधिक्षेत्र की
I
(६) छठे नरक में - जघन्य से १ कोस और उत्कृष्ट से १।। कोस प्रवधिक्षेत्र की मर्यादा है ।
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[ ५१
१।२३ ]
प्रथमोऽध्यायः (७) सातवें नरक में जघन्य से प्राधा कोस और उत्कृष्ट से १ कोस अवधिक्षेत्र की मर्यादा है।
• भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क देवों में अवधिक्षेत्र इस प्रकार है
* जिन देवों का अर्धसागरोपम से कम आयुष्य होता है, उनका उत्कृष्ट तिर्छालोक में संख्यात योजन का अवधिक्षेत्र है। उससे अधिक आयुष्य वाले देवों का असंख्यात योजन का अवधिक्षेत्र है।
* उत्कृष्ट ऊर्ध्वलोक में भवनपतिदेवों का अधिक्षेत्र सौधर्मदेवलोक तक है तथा व्यन्तरज्योतिष्कदेवों का अवधिक्षेत्र संख्यात योजन तक है।
* उत्कृष्ट अधोलोक में भुवनपतिदेवों का अवधिक्षेत्र तीसरे नरक वालुकाप्रभा तक है तथा व्यन्तर-ज्योतिष्कदेवों का अवधिक्षेत्र संख्यात योजन तक है।
* ऊर्ध्व प्रादि तीनों में भवनपतिदेवों का तथा व्यन्तरदेवों का जघन्य अवधिक्षेत्र पच्चीस योजन का है एवं ज्योतिष्कदेवों का जघन्य अवधिक्षेत्र संख्यात योजन तक का है।
• वैमानिक देवों में अवधिक्षेत्र इस प्रकार है
* सौधर्म देवलोक के देवों का तथा ईशान देवलोक के देवों का अवधिक्षेत्र नीचे पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के अन्त तक और ऊपर में अपने विमान की ध्वजा तक एवं तिर्यग् असंख्य योजन तक है । अर्थात्-वहाँ तक अवधिज्ञान से देख सकते हैं।
* सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के देवों का अवधिज्ञान नीचे दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी के अन्त तक तथा ऊपर में अपने विमान की ध्वजा तक एवं तिर्यग्-तिच्र्छ असंख्य योजन तक अवधिज्ञान से देख सकते हैं।
इस तरह क्रमशः आगे बढ़ते हुए अनुत्तरवासी देव सम्पूर्ण रूप से लोकनाड़ी को अवधिज्ञान से देख सकते हैं। जिन देवों में क्षेत्र से अवधिज्ञान का विषय समान है, उन देवों में भी ऊपर-ऊपर के प्रस्तर तथा विमानों की अपेक्षा अधिक-अधिक अवधिज्ञान होता है। इसी तरह अवधिज्ञान की विशुद्धि भी ऊपर-ऊपर अधिक-अधिक होती है ।। २२ ॥
* क्षयोपशमप्रत्ययावधिज्ञानस्य स्वामी * यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ २३ ॥
....... * सुबोधिका टीका * अत्र यथोक्तनिमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः। क्षयोपशमनिमित्तमवधिज्ञानमस्ति । शेषाणामिति नारक-देवेभ्यः शेषाणां तिर्यग्योनिजानां मनुष्याणां च अवधिज्ञानावरणीयस्य कर्मणः क्षयोपशमाभ्यां अवधिज्ञानं जायते। तद् षड्विधं भवति । तद्यथा-[१] अनुगामिकमवधिज्ञानं, [२] अननुगामिकमवधिज्ञानं, [३] वर्द्धमान
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५२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ १२३ कमवधिज्ञानं, [४] हीयमानकमवधिज्ञानं, [५] अनवस्थितमवधिज्ञानं, [६] अवस्थितमवधिज्ञानं चेति ।
तत्र-(१) अनुगामिकमवधिज्ञानं यथा-यस्य जीवस्य यस्मिन् क्षेत्रे क्वचिदुत्पन्न क्षेत्रान्तरगतस्यापि न प्रतिपतति साकं सहवासी एव ज्ञानं तद् 'अनुगामिकमवधिज्ञान' कथ्यते । तस्योदाहरणम्-सूर्यस्य प्रकाशवत् ।
(२) अननुगामिकमवधिज्ञानं यथा-यस्य जीवस्य यस्मिन् क्षेत्र स्थितस्योत्पन्न ज्ञानं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति तद् 'अननुगामिकमवधिज्ञान' कथ्यते । गमनसमये साकं न आगच्छतीति तस्योदाहरणम्-प्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत् ।।
(३) वर्धमानकमवधिज्ञावं यथा-यदगुलस्यासङ्घय यभागादिषु उत्पन्नं ज्ञानं वर्द्ध ते एव तद् 'वद्ध मानकमवधिज्ञानं' कथ्यते । तस्योदाहरणम्-अधरोत्तरारणिसंघर्षणोत्पन्नाग्निज्वाला शुष्क पत्रादीन्धनसमूहाग्निवत् ।
(४) हीयमानकमवधिज्ञानं यथा-असंख्येयद्वीप-समुद्र-पृथिवी-विमानेषु तिर्यगूर्ध्वमधो यदुत्पन्नं ज्ञानं क्रमशः संक्षिप्यमाणं न्यूनं प्रतिपतति । आ अगुलासङ्ख्ययभागात् प्रतिपतत्येव वा भवति तद् 'हीयमानकमवधिज्ञानं' कथ्यते । तस्योदाहरणम्परिच्छिन्नेन्धनोपादानसन्ततिवह्निशिखावत् ।
(५) अनवस्थितं (प्रतिपाती) अवधिज्ञानं यथा-अनियमितं अर्थात् हीयते वर्धते च वर्धते हीयते च प्रतिपतति चोत्पद्यते इति, तद् अनवस्थितं (प्रतिपाती) अवधिज्ञानं कथ्यते। तस्योदाहरणम्-उत्पद्यते चेति पुनः पुनरूमिवत् ।
(६) अवस्थितं (अप्रतिपाती) अवधिज्ञानं यथा-निश्चितं, अर्थाद् यावति क्षेत्र येन आकारेण उत्पन्नं भवति ततो न प्रतिपतत्याकेवलज्ञानं प्राप्तेः आ भवक्षयाद् वा जन्मान्तर-स्थायि वा भवति तद् 'अवस्थितमवधिज्ञानं' या 'अप्रतिपातीमवधिज्ञानं' कथ्यते। तस्योदाहरणम्-लिङ्गवत् (चिह्नवत्) ।। २३ ॥
* सूत्रार्थ-यथोक्तनिमित्त अर्थात् क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान के छह भेद हैं। शेषाणाम्-अर्थात् तिर्यग् और मनुष्यों में क्षयोपशमजन्य अवधिज्ञान छह प्रकार का होता है-(१) अनुगामी, (२) अननुगामी, (३) वर्धमान, (४) हीयमान, (५) अनवस्थित या प्रतिपाती तथा (६) अवस्थित या अप्रतिपाती। ये सब भेद मनुष्यों और तिर्यंचों में पाये जाते हैं ।। २३ ॥
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१।२३ ]
प्रथमोऽध्यायः
5 विवेचन 5
इस सूत्र में 'यथोक्तनिमित्तक' ऐसा शब्द जो दिया है, वह अवधिज्ञान के दूसरे भेद को बताने के लिये है । पूर्व सूत्र में भवप्रत्यय अवधिज्ञान का निर्देश करते हुए कहा था कि - जो ज्ञान जन्म के साथ तत्काल उत्पन्न होता है, उसको भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं । इसके लिये अन्य यम-नियमादि अनुष्ठान को अपेक्षा नहीं रहती । इधर शेष जीवों के शास्त्रोक्त क्षयोपशमरूप निमित्त से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को गुणप्रत्यय या यथोक्तनिमित्तक अर्थात् क्षयोपशमनिमित्तक प्रवधिज्ञान कहते हैं । जो यम (पंच महाव्रत ) नियम और पच्चक्खाण आदि अनुष्ठान के बल से प्रकट होता है । देव और नरक गति के जीवों को पूर्वोक्त भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है तथा मनुष्य एवं तिर्यंच गति के जीवों को यह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है ।
[ ५३
प्रश्न -- जब चारों गति वाले जीव इस प्रवधिज्ञान को पा सकते हैं तो फिर एक को जन्म से हो जाता है और दूसरे को तपादिक अनुष्ठान करने पड़ते हैं, इसका क्या कारण है ?
उत्तर -- यह कर्म की विचित्रता अनुभवसिद्ध है । जैसे— प्राकाश में उड़ने की शक्ति पक्षीजाति में जन्मसिद्ध है, किन्तु मनुष्य जाति में जन्मसिद्ध नहीं है । उनको तो किसी मन्त्र विद्या या वर्तमान विमानरूप एरोप्लेन इत्यादि का सहारा ले करके आकाश में गमन करना पड़ता है ।
अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से इस क्षयोपशम गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद हैं - ( १ ) अनुगामी अवधिज्ञान, (२) अननुगामी अवधिज्ञान, (३) वर्धमान अवधिज्ञान, (४) होयमान अवधिज्ञान, (५) अनवस्थित या प्रतिपाती अवधिज्ञान तथा ( ६ ) अवस्थित या अप्रतिपाती अवधिज्ञान ।
स्थान से
(१) अनुगामी अवधिज्ञान -- जिस जीव को जिस क्षेत्र में अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो, उस पुनः अन्य स्थान में गमन करने पर भी उसका वह अवधिज्ञान च्युत न हो । अर्थात् — वहाँ से गमन करने पर भो वह ज्ञान उसके साथ ही रहे, उसको 'अनुगामी या अनुगामिक अवधिज्ञान' कहते हैं । जैसे -पूर्व दिशा में उदित होने वाले सूर्य का प्रकाश पूर्व दिशा के पदार्थों को प्रकाशित करता है और अन्य दिशा के पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, वैसे हो इधर भी फानस - बत्तो के दीपक को तरह साथ में आने वाले अनुगामी अवधिज्ञान का उपयोग प्रवर्त्तता है ।
(२) अननुगामो अवधिज्ञान -- जिस जीव का अवधिज्ञान प्राप्त स्थान से अन्य स्थान पर गमन करने पर च्युत हो जाय अर्थात् चला जाय, अपने विषय को जानने में समर्थ या उपयुक्त न हो सके, उसे अननुगामी या श्रनानुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं । जैसे - किसी व्यक्ति का नैमित्तिकज्ञान इस प्रकार का होता है कि वह अपने स्थान पर रहते हुए प्रश्न का उत्तर दे सकता है, किन्तु अन्यत्र स्थान में ठीक उत्तर नहीं दे सकता । इस तरह इस अवधिज्ञान के विषय में भी समझना । सारांश यह है कि साथ में नहीं श्राने वाला यह अननुगामी अवधिज्ञान जिस स्थल में जीव को उत्पन्न होता है उसी स्थल में उसका उपयोग प्रवर्त्तता है । किन्तु जीव के अन्यत्र स्थल में जाने पर यहाँ उसका उपयोग नहीं प्रवर्त्तता है। जैसे - इलेक्ट्रिक बल्ब का प्रकाश ।
(३) वर्धमान श्रवधिज्ञान - जो प्रवविज्ञान अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रादिक जितने विषय के प्रमारण को लेकर उत्पन्न होता है, उस प्रमारण से आगे बढ़ता ही चला जाय, उसको 'वर्धमान
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५४ ]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १।२३
श्रवधिज्ञान' कहते हैं । अर्थात् -- जो अवधिज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् अपनी आत्मा के परिणामों की विशुद्धता द्वारा प्रति समय प्रवर्द्धित होता ही रहे, वह वर्धमान श्रवधिज्ञान कहा जाता है। जैसे- श्रग्नि कारण तृण घास को पाकर वृद्धि को प्राप्त होता है । वैसे यह अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद प्रदीप्त अग्नि की तरह क्रमशः बढ़ता ही जाता है । सारांश यह है कि नीचे और ऊपर अरणिकाष्ठ के संघर्षण से उत्पन्न हुई अग्नि की ज्वाला शुष्क पत्रादि तथा ईन्धन राशि का निमित्त पाकर आगे बढ़ती हुई जैसे चली जाती है, वैसे यह उत्पन्न हुआ वर्द्धमान श्रवधिज्ञान उससे अन्तरंग बाह्य निमित्त पाकर के सम्पूर्ण लोकपर्यन्त बढ़ता ही चला जाता है ।
(४) हीयमान श्रवधिज्ञान -- जो अवधिज्ञान असंख्यात द्वीप, समुद्र, पृथिवी, विमान और तिर्यक्-तिरछा या ऊर्ध्व, अधोलोक के जितने क्षेत्र का प्रमारग लेकर उत्पन्न हुआ है; वह क्रमश: उस प्रमाण से घटते घटते अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग के प्रमाण तक क्षेत्र को विषय करने वाला रह जाय, उसको ही ' हीयमान प्रवधिज्ञान' कहते हैं । श्रर्थात् - जो अवधिज्ञान प्रसंख्यात द्वीप - समुद्रादि विषयी होकर पुन: परिणामों की मन्दता से ह्रास को प्राप्त होता है, उसको ही हीयमान श्रवधिज्ञान कहा जाता है । वर्षा के बन्द होने से जैसे नदी का प्रवाह धीरे-धीरे कम हो जाता है, वैसे इधर भी उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान पुनः परिणामों की मन्दता से क्रमशः घट जाता है । अथवा - जिस तरह किसी अग्नि का उपादान कारण यदि परिमित हो जाय, तो उस अग्नि की ज्वाला भी क्रमशः कम कम हो जाती है । उसी तरह इस हीयमान अवधिज्ञान के विषय में समझना ।
(५) अनवस्थित- प्रतिपाती प्रवधिज्ञान - प्रनवस्थित यानी अनियत । जो ज्ञान जल की तरंगों के समान कभी वृद्धि कभी न्यून भाव को प्राप्त होता हो या कभी विनाश को भी प्राप्त हो, उसको ही 'अनवस्थित-प्रतिपाती अवधिज्ञान' कहते हैं । अर्थात् - जो अवधिज्ञान एक रूप न रहकर अनेक रूप धारण करे। या तो कभी उत्पन्न प्रमारण से कम, न्यून होता जाय, या तो कभी बढ़ता ही जाय, अथवा कभी छूट भी जाय और फिर कभी उत्पन्न भी हो जाय; वह अनवस्थित- प्रतिपाती अवधिज्ञान कहा जाता है। जैसे - समुद्र की लहरें वायुवेग का निमित्त पाकर विविध प्रकार से छोटी-मोटी या नष्ट - विनष्ट - उत्पन्न हुआ करती हैं, वैसे इस अनवस्थित- प्रतिपाती श्रवधिज्ञान के विषय में समझना । सारांश यह है कि आकाश में चमकती बिजली की तरह उत्पन्न होकर चला जाय, पुन: उत्पन्न हो जाय, कम हो जाय और बढ़ भी जाय; ऐसा श्रनियत यह अनवस्थित- प्रतिपाती अवधिज्ञान है ।
[६] अवस्थित श्रप्रतिपाती अवधिज्ञान - जो ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् पंचम केवलज्ञान की प्राप्ति तक च्युत न हो, या आजन्म नहीं गिरे या जन्मान्तर में भी साथ ही रहे उसे 'श्रवस्थितश्रप्रतिपाती श्रवधिज्ञान' कहते हैं। जिस तरह इस जन्म में प्राप्त हुआ (पुल्लिङ्ग आदि तीन प्रकार के लिङ्गों में से कोई भी ) लिङ्ग ग्रामररण साथ रहा करता है, किन्तु कदाचित् जन्मान्तर में भी साथ जाता है; उसी तरह यह अवधिज्ञान भी पंचम केवलज्ञान प्राप्त होने तक, या इस जन्म के पूर्ण होने तक तदवस्थ रहा करता है । किन्तु कदाचित् जन्मातर को साथ भी चला जाता है । सारांश यह है कि इस अवस्थित अवधिज्ञान का ही दूसरा नाम अप्रतिपाती अवधिज्ञान है । अप्रतिपाती यानी नियत कायम रहने वाला । अर्थात् - यह अवधिज्ञान जीवन पर्यन्त रहे, किसी जीव के साथ भवान्तर में भी चला जाय, या किसी को पंचम केवलज्ञान उत्पन्न हो वहाँ तक भी रहे। जीव आत्मा को
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१।२४ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ५५ चरित्र में 'परमावधिज्ञान' उत्पन्न होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में अवश्य ही पंचम केवलज्ञान उत्पन्न होता है। उसका समावेश इसी अवस्थित-अप्रतिपाती अवधिज्ञान में होता है।
विशेष-अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप अन्तरंग निमित्त के दोनों ही स्थल समान रूप से होते हुए भी बाह्यकारण तथा उसके नियम के भेद से इस अवधिज्ञान के दो भेद कहे हैं। एक भवप्रत्यय अवधिज्ञान और दूसरा क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान। इसके अलावा अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद भी बताये हैं और कहा है कि-देशावधिज्ञान देव, नारकी, तिर्यंच और सागार मनुष्य को हो हाता है तथा परमावधिज्ञान और सर्वावधिज्ञान मुनियों के ही होते हैं। ऐसा उल्लेख दिगम्बरों के गोम्मटसार जीवकाण्ड आदि ग्रन्थों में मिलता है ।। २३ ॥
* मनःपर्ययज्ञानस्य भेदाः * ऋजु-विपुलमती मनःपर्ययः ॥ २४॥
* सुबोधिका टीका ® पूर्वोक्तमवधिज्ञानम् । अत्र मनःपर्ययज्ञानं कथयिष्यामः । मनःपर्ययज्ञानं द्विप्रकारकं भवति । तद्यथा-ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानं विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानं चेति । अर्थात्-मनःपर्ययज्ञानस्य ऋजुमतिः विपुलमतिश्चेति द्वौ भेदी स्तः ।
ॐ सूत्रार्थ-मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं। एक ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान और दूसरा विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान ।। २४ ।।
卐 विवेचन ॥ इस सूत्र में मनःपर्ययज्ञान के दो भेद प्रतिपादित किये गये है। वह ऋजुमात आर विपूलमति। मनःपर्यय यानी मन के विचार। मनः पर्यय और मनःपर्यव ये दोनों शब्द एक अर्थ के वाचक हैं। जिसके मन होता है, उसको 'संज्ञी' कहा जाता है। वह व्यक्ति विश्व में किसी भी कार्य का या वस्तु-पदार्थ का मन से चिन्तन करता है, उसी समय चिन्तनीय वस्तु-पदार्थ के प्रकार-भेद के अनुसार चिन्तन कार्य की प्रवृत्ति में प्रवृत्तमान हुआ मन भी पृथग्-पृथग यानी भिन्नभिन्न प्राकृति-प्राकार वाला होता है। वे प्राकृतियाँ-पाकार मन की पर्याय हैं। उन पर्यायों को प्रत्यक्ष-साक्षात जानने वाले का ज्ञान, 'मनःपर्ययज्ञान' या 'मनःपर्यवज्ञान' कहलाता है। मनःपर्यय या मनःपर्यवज्ञान के बल से मन चिन्तित प्राकृतियों-आकारों को अवश्य जान लेता है; किन्तु चिन्तनीय ऐसी वस्तु-पदार्थ को नहीं जानता है। अर्थात् -मनःपर्ययज्ञान वाले मन:पर्ययज्ञान द्वारा ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के विचारों को जान सकते हैं। पीछे से चिन्तनीय वस्तुपदार्थों का ज्ञान अनुमान द्वारा भी जान सकते हैं। जैसे-कुशल वैद्य-डॉक्टर आदि व्याधिग्रस्त व्यक्ति की मुखाकृति-चेहरा आदि को प्रत्यक्ष-साक्षात् देखकर देह-शरीर में रहे हुए रोग को अनुमान से जान लेते हैं, वैसे इधर भी मनःपर्ययजानी मन की प्राकृतियों-पाकारों को प्रत्यक्ष-साक्षात देखता
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५६ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ११२५
है। बाद में अभ्यास की प्रबलता से अनुमान करता है कि इसने अमुक वस्तु-पदार्थ का चिन्तन किया है। क्योंकि उस समय चिन्तित वस्तु-पदार्थ का आकार-प्राकृति युक्त चेहरा अवश्य होता है।
जिसके मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हुअा है, ऐसे उस साधु को यह एक प्रति विशिष्ट और क्षायोपमिक प्रत्यक्षज्ञान प्राप्त होता है; जिसके निमित्त से वह साधु मनुष्य-लोकवर्ती मनःपर्याप्ति के धारण करने वाले पंचेन्द्रिय प्राणी मात्र के त्रिकालवर्ती मनोगत विचारों को इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही जान सकता है। इधर विषयभेद की अपेक्षा से इस मनःपर्यय-मनःपर्यवज्ञान के दो भेद कहे हैं। उनमें जो सामान्य रूप से विषय को जाने उसको 'ऋजुमति मनःपर्यय-मनःपर्यवज्ञान' कहते हैं तथा जो विशेष रूप से विषय को जाने उसको 'विपुलमति मनःपर्यय-मनःपर्यवज्ञान' कहते हैं। अर्थात्-ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानधारी केवल वत्तेमानकालवत्ती जीव-प्रात्मा के द्वारा चिन्त्यमान पयोयो को ही सामान्य रूप से जान सकते हैं। तथा विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान वाले व्यक्ति त्रिकालवर्ती मनुष्य के द्वारा चिन्तित, अचिन्तित और अर्ध चिन्तित ऐसे तीनों प्रकार के वस्तु-पदार्थों के पर्यायों को विशेष रूप से जान सकता है। मनःपर्ययज्ञान के ये दोनों ही भेद अतीन्द्रिय हैं और दोनों का विषय-परिच्छेदन मनःपर्ययज्ञान को जानना भी समान ही है। फिर भी इन दोनों में विशेषता किस प्रकार की है ? इसका प्रत्युत्तर अब आगे आने वाले सूत्र में कहते हैं ।।२४।।
* ऋजु-विपुलमत्योः विशेषतायाः हेतवः * विशुद्धचप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २५ ॥
सुबोधिका टीका * विशुद्धिकृतश्चाप्रतिपातकृतश्च अनयोः प्रतिविशेषः । तद्यथा-ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानाद् विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानं विशुद्धतरं वर्त्तते । तथाऽन्यदपि कारणमस्ति । ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानं उत्पन्नत्वादपि प्रतिपतति भूयः, किन्तु विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानं तु न प्रतिपततीति । विशुद्धिः (शुद्धता), अप्रतिपातिः (आगतं सत् यन् न गच्छति) एतद् कारणद्वयात् तयोर्भेदोऽस्ति । अर्थाद्-ऋजुमतेविपुल-मतिः अतिशुद्धा भवति । अत्र इत्थं विज्ञेयं ऋजुमतिः आगच्छति गच्छति च, किन्तु विपुलमतिः आगच्छति चेद् न गच्छतीत्यर्थः ।
ॐ सूत्रार्थ-ऋजुमति और विपुलमति इन दोनों में विशेषता यह है कि-एकदूसरे से विशुद्ध और पतन का अभाव है। अर्थात्-ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान से विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान विशुद्धि और अप्रतिपात (पुनः पतन का अभाव) है। इन दोनों कारणों से विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान से विशिष्ट हैं ॥ २५ ॥
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१।२६
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प्रथमोऽध्यायः
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५७
के विवेचन के ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान अविशुद्ध और प्रतिपाती है तथा विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान विशुद्ध और अप्रतिपाती है। ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान से विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान विशुद्धि और अप्रतिपात इन दोनों कारणों से विशिष्ट है । कारण कि ऋजुमति का विषय अल्प है और विपुलमति का विषय उससे अत्यधिक है। ऋजमति मनःपर्ययज्ञान वाला जितने वस्तू-पदार्थ को जितनी भी सूक्ष्मता से जान सकता है, उन ही वस्तु-पदार्थ को विविध प्रकार से विशिष्ट गुण-पर्यायों के द्वारा अति अधिक सूक्ष्मता युक्त विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान वाले जान सकते हैं। जैसे-ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान वाला जीव 'अमुक व्यक्ति ने घट यानी घड़े का विचार किया, ऐसा सामान्य रूप से जाने । तब विपुलमतिमनःपर्यय वाला जीव 'अमूक व्यक्ति ने राजस्थान-मरुधर-जोधपूर नगर के, अमूक कलर-रंग के, अमुक प्राकृति-आकार के, अमुक स्थल में रहे हुए उस ही घट-घड़े का विचार किया' इत्यादि विशेष रूप से जाने तथा ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान प्राप्त किया हुआ चला भी जाता है, किन्तु विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान प्राप्त करने के पश्चाद् नहीं ही जाता है। तदुपरान्त विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होने के बाद अवश्यमेव पंचम केवलज्ञान उत्पन्न होता ही है। उसी मनुष्यभव में मोक्ष की प्राप्ति अवश्य ही होती है। इसीलिये यह विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान ऋजूमतिमनःपर्ययज्ञान से विशुद्ध और अप्रतिपाती अवश्य ही है ।।२५।।
* अवधि-मनःपर्यययोः भेदस्य हेतवः * विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधिमनःपर्ययोः ॥ २६ ॥
* सुबोधिका टीका : अवधि-मनःपर्ययज्ञानयोः विशुद्धिकृतः क्षेत्रकृतः स्वामिकृतो विषयकृतश्च अनयोविशेषो भवति । तद्यथा-अवधिज्ञानाद् मनःपर्ययज्ञानं विशुद्धतरं वर्त्तते । यदवधिज्ञानी यावन्ति रूपीणि द्रव्याणि जानीते तानि सर्वाणि तद् मनःपर्ययज्ञानी विशुद्धतराणि मनोरहस्यगतानि अवश्यमेव जानीते इति । विशुद्धिः (शुद्धता), क्षेत्र (क्षेत्रप्रमाणं), स्वामि (अधिपतिः), तथाविषयः । एतैः चतुर्भिः प्रकारैः अवधिज्ञाने मनःपर्ययज्ञाने च विशेषता, अर्थात् भिन्नताऽस्ति । अवधितः मनःपर्ययः विशुद्धो भवति । मनःपर्ययज्ञाने न तिच्र्छ सार्द्धद्वयद्वीपपर्यन्तं तथा समुद्रद्वयप्रमाणं च, ऊर्ध्वं ज्योतिष्कपर्यन्तं, अधःसहस्रयोजनपर्यन्तं क्षेत्र पश्यति; किन्तु अवधिज्ञानेन असङ्ख्यलोकं पश्यति । अर्थात्मनःपर्ययज्ञानस्य क्षेत्रादवधिज्ञानस्य क्षेत्र विशालमस्ति । अवधिज्ञानस्य क्षेत्र अङ्गुलस्यासङ्खयातमाविभागाद् प्रारभ्य सम्पूर्ण लोकपर्यन्तं भवति । मनःपर्ययज्ञानस्य क्षेत्रमात्र सार्द्धद्वयद्वीपपर्यन्तं-समुद्रद्वयप्रमाणं च मनुष्यक्षेत्रे स्थितसंज्ञीपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्यतिर्यञ्च-देवानां जीवानां मनसां विचारान् जानीते एव । क्षेत्रकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । किञ्चान्यत्-स्वामिकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । अवधिज्ञानं संयतस्य साधोः असंयतस्य
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५८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १।२६ जीवस्य संयतासंयतयोः श्रावकस्य चापि । तथा सर्वगतिषु जीवानां भवति । मनःपर्ययज्ञानं तु मनुष्यसंयतस्यैव भवति, नान्यस्यैव ।
___ अर्थात्-मनःपर्ययज्ञानस्य स्वामी श्रमणः संयत एव । अवधिज्ञानस्य स्वामी संयतोऽसंयतो वा चतुर्गतिमानं भवितुं शक्नोति । मनःपर्यायेण संज्ञिनां मनसि परिणतमपि द्रव्यं-ज्ञातु शक्नोति । अवधिना तु समस्तरूपी-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवद् द्रव्यं दृश्यते । पुनः अवधिज्ञानेन मनःपर्ययज्ञानस्य विषय-निबन्धः अनन्तभागे कथितोऽस्ति । अवधिज्ञानापेक्षया मनःपर्ययज्ञानं विशेषशुद्धं भवति । यावन्ति रूपीद्रव्याणि अवधिज्ञानी जानाति तेषां अनन्तभागे मनसा परिणतं द्रव्यं मनःपर्ययज्ञानी शुद्धरूपेण विजानाति । अवधिज्ञानस्य विषयः अङ्गुल्याऽसङ्ख्यातभागमारभ्य सकललोकक्षेत्रपर्यन्तं भवति । तथा मनःपर्ययज्ञानवतां विषयः सार्द्धद्वयद्वीपपर्यन्तमेव वर्त्तते । अवधिज्ञानं संयतानां असंयतानां च चतुर्गतिमतां जीवानां भवति । मनःपर्ययज्ञानं तु संयतस्य अर्थात् चारित्रवतः एव मनुष्यस्य भवति । सर्वरूपीद्रव्यस्य तथा तस्य कतिपयपर्यायाणां च ज्ञानं अवधिज्ञानस्य विषयो भवति । तथा मनःपर्ययज्ञानस्य विषयः सर्वरूपीद्रव्यस्य अनन्ततमभागस्य द्रव्यस्य अर्थाद् मनोद्रव्यं तस्य पर्यायं च ज्ञातु योग्यमस्ति ।। २६ ।।
ॐ सूत्रार्थ-अवधिज्ञान में और मनःपर्ययज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय इन चार कारणों से विशेषता-भिन्नता है ।। २६ ।।
9 विवेचन ॥ अवधि और मनःपर्यय ये दोनों ज्ञान प्रमाणपने अपूर्ण रूप से समान होते हुए भी विशेष रूप से भिन्न हैं। कारण कि-इन दोनों ज्ञानों में विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामीकृत और विषयकृत भेद है। जिसके द्वारा विशेष रूप में अधिकतर पर्यायों का परिज्ञान हो सके, ऐसी निर्मलता-विमलता को 'विशुद्धि' कहते हैं । 'क्षेत्र' आकाश का नाम है । जिनको वह ज्ञान हो उनको उस विवक्षित ज्ञान का स्वामी समझना तथा ज्ञान के द्वारा जो वस्तु-पदार्थ जाना जाय, उसको हो विषय कहा जाता है। इन चारों ही कारणों की अपेक्षा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में अन्तर है।
(१) विशुद्धि--अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान की विशुद्धि विशेष रूप में अधिक होती है । जितने रूपी द्रव्यों को अवधिज्ञानी जान सकता है, उन द्रव्यों को ही मनःपर्ययज्ञानी विशेष अधिक स्पष्ट रूप में मनोगत होने पर भी जान सकता है। अर्थात्-अवधिज्ञान से मनःपर्ययज्ञान अपने विषय पदार्थ को अत्यन्त ही स्पष्ट रूप से जानता है, इसलिए यह मनःपर्ययज्ञान विशुद्धतर है। यह विशद्धि की अपेक्षा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में अन्तर है।
(२) क्षेत्र-मन:पर्ययज्ञान के क्षेत्र से अवधिज्ञान का क्षेत्र विशाल है। अवधिज्ञानी का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक पर्यन्त है। अर्थात्-सूक्ष्म निगोदिया जीव लब्धि
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१।२६
प्रथमोऽध्यायः
[ ५६
अपर्याप्त के उत्पन्न होने से तीसरे समय में जो अपने शरीर की जघन्य अवगाहना होती है, इसका जितना प्रमारण होता है, उतना प्रमाण ही अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र का भी होता है । इसके ऊपर क्रम से बढ़ता हुआ प्रवधिज्ञान का क्षेत्र सम्पूर्ण लोकपर्यन्त होता है । मन:पर्ययज्ञान के विषय में ऐसा नहीं होता । कारण कि उसका क्षेत्र मनुष्य लोक प्रमारण का ही है । जब अवधिज्ञानी अंगुल के असंख्यातवें भाग से यावत् सम्पूर्ण लोक प्रमाण देखता है, तब मन:पर्ययज्ञानी मनुष्योत्तर पर्वत पर्यन्त देखता है । अर्थात् - मन:पर्ययज्ञानी मात्र ढाई द्वीप और दो समुद्र प्रमारण मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के मन के विचारों को जान सकता है । इससे आगे के नहीं तथा न इससे आगे रहे हुए • जीवों के मनोगत भावों को जानता है । यह क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में अन्तर है ।
(३) स्वामी - अवधिज्ञान के स्वामी चार गति के जीव हैं । अर्थात् - अवधिज्ञान चारों गति में रहे हुए सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवों को उत्पन्न हो सकता । संयमी साधु और असंयमी जीव तथा संयतासंयत श्रावक भी अवधिज्ञान प्राप्त कर सकता है, इतना ही नहीं किन्तु चारों ही गति वाले जीवों को अवधिज्ञान प्राप्त हो सकता है । मन:पर्ययज्ञान तो संयमी मनुष्य को ही हो सकता है, अन्य को नहीं हो सकता । अर्थात् - मन:पर्ययज्ञान मनुष्यगति में सातवें अप्रमत्तगुणस्थाने रहे हुए संयमी जीवों को ही उत्पन्न होता है तथा छठे प्रमत्तगुणस्थान से बारहवें गुरणस्थान पर्यन्त होता है । यह स्वामी की अपेक्षा से अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में अन्तर है ।
(४) विषय – अवधिज्ञान का विषय सर्व रूपी द्रव्य और उसकी अल्प पर्यायें हैं । इसमें मन की स्थूल पर्यायों का भी समावेश होता है । अवधिज्ञान सर्व रूपी द्रव्यों को और कतिपय असम्पूर्ण पर्यायों को जानता है, किन्तु अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवाँ भाग मन:पर्ययज्ञान का विषय है । अर्थात्– - मन:पर्ययज्ञान का विषय मात्र मनोवर्गणा के पुद्गलों और उसकी पर्यायों के होने से अवधिज्ञान के विषय से अनन्तवें भाग प्रमाण है । इसलिए अवधिज्ञान की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान का विषय अतिशय सूक्ष्म है । इस तरह विषय की अपेक्षा से भी अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में अन्तर है ।
जैसे अवधिज्ञान चारों गति के जीवों को उत्पन्न हो सकता है, वैसे मन:पर्ययज्ञान नहीं होता है । वह तो संयमी मनुष्य को ही होता है, उसमें भी ऋद्धिप्राप्त को ही होता है तथा ऋद्धिप्राप्तों में भी सबको नहीं किन्तु किसी-किसी व्यक्ति को ही होता है ।
प्रश्न - मन:पर्ययज्ञान न्यूनविषयी होते हुए भी उसको प्रवधिज्ञान से विशुद्धतर मानने का क्या कारण है ?
उत्तर - यह कारण विषय की न्यूनाधिकता से नहीं है, किन्तु विषयगत रही हुई सूक्ष्मता के जानने पर है । जैसे- एक व्यक्ति मनुष्य अनेक शास्त्रों को पढ़ने वाला होता है और दूसरा व्यक्तिमनुष्य एक ही शास्त्र को पढ़ने वाला होता है, किन्तु एक शास्त्र को पढ़ा हुआ मनुष्य यदि अपने विषय का सूक्ष्मता के साथ विस्तारपूर्वक प्रतिपादन करता है, तो उस अनेक शास्त्रों के पढ़ने वाले व्यक्ति से एक शास्त्र को पढ़ने वाले व्यक्ति का ज्ञान विशेष विशुद्ध कहा जाता है। इसी तरह इधर अल्पविषयी होने पर भी वह सूक्ष्म भावों को जानता है, इसलिये अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान को विशुद्धतर कहा है ।
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६० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११२७ प्रश्न–अवधिज्ञान का विषय मन को पर्यायें भी होती हैं, तो क्या उससे मन के विचारों को
___ भी जान सकते हैं ?
उत्तर-हाँ, जान सकते हैं। विशुद्ध अवधिज्ञान से मन के विचार भी अवधिज्ञानी जान सकते हैं। सर्वज्ञ विभु के द्रव्य मन से दिये हुए प्रत्युत्तरों को अनुत्तरदेव अवधिज्ञान से ही जान सकते हैं। प्रश्न-विशुद्ध अवधिज्ञान से भी जब मन के विचारों को जान सकते हैं, तो फिर अवधि
और मनःपर्ययज्ञान इन दोनों में विशुद्धि को दृष्टि से भेद कहाँ रहा? उत्तर–विशुद्ध अवधिज्ञानी मन के विचारों को मनःपर्ययज्ञानी जितनी सूक्ष्मता से जान सकता है उतनी सूक्ष्मता से नहीं जान सकता। कारण कि-जब अवधिज्ञानी रूपी सर्व द्रव्यों को
और अल्प पर्यायों को (विशेष रूप में प्रसख्य पर्यायों को) जान सकता है, तब मनःपर्ययज्ञानी मात्र मनोवर्गणा के पुद्गलों को ही जान सकता है। उसमें भी मात्र ढाई द्वीप और दो समुद्र प्रमाण मनुष्यक्षेत्र में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के विचार करने के लिये प्रवृत्ति में लिये हुए मनोवर्गणा के पुद्गलों को ही जान सकते हैं।
सारांश यह है कि क्षेत्र, स्वामी और विषय के सम्बन्ध में अवधिज्ञान की अधिक विशेषता होते हुए भी विशुद्धि के सम्बन्ध में वह अत्यन्त पीछे पड़ जाता है। इसलिये अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान का अधिक महत्त्व है। अर्थात्-अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान में क्षेत्रादिक को न्यूनता-अल्पता होते हुए भी विशुद्धि अधिक होने से उसका (मनःपर्ययज्ञान का) महत्त्व बढ़ जाता है । ॥२६॥
[मनःपर्ययज्ञान के पश्चात् क्रम प्राप्त पंचम केवलज्ञान का निरूपण करना चाहिए। किन्तु इसका विशेष रूप से वर्णन इस तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के दसवें अध्याय में किया गया है ।]
पञ्चज्ञानानां ग्राह्यविषयः *
* मति-श्रुतयोः विषयः * मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २७ ॥
* सुबोधिका टीका 8. एषां मतिज्ञानादीनां कः कस्य विषयनिबन्धः ? इति । कथ्यतेऽत्र-मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्य च विषयभूतानां कतिचित् पर्यायवतां सर्वद्रव्याणां ज्ञानं कर्त्तव्यमस्ति । इदमस्य तात्पर्य यत् ते सर्वाणि द्रव्याणि जानन्ति, किन्तु तेषां सर्वपर्यायान् न जानन्ती त्यर्थः ।। २७ ॥
8 सूत्रार्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय सर्वद्रव्यों में है, किन्तु उनकी परिपूर्ण पर्यायों में नहीं है। अर्थात्-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों की प्रवृत्ति
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१।२८ ]
प्रथमोऽध्यायः परिमित पर्यायों से युक्त सर्व द्रव्यों में होती है। इन दोनों ज्ञानों के द्वारा जीव-प्रात्मा समस्त द्रव्यों को तो जान सकता है, परन्तु उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को नहीं जान सकता है ।। २७ ।।
卐 विवेचन ॥ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और उनकी अल्प पर्यायें है। इसलिए श्रुतागम के अनुसार ये दोनों ज्ञान सर्व द्रव्यों को और उनकी अल्प पर्यायों को ही जान सकते हैं, समस्त पर्यायों को नहीं। सारांश यह है कि मतिज्ञान और श्रतज्ञान द्वारा विश्व में विद्यमान रूपी और अरूपी सर्व द्रव्यों को जान सकते हैं, किन्तु उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को नहीं। इनके द्वारा द्रव्यों की परिमित पर्यायें ही जानी जा सकती हैं। क्योंकि इस विश्व में अति विशेष रूप से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान पूज्य श्री गणधरादि को या चौदह पूर्वधारी महापुरुषों को ही होता है। उनके ज्ञान का मूल सर्वज्ञविभु श्री तीर्थंकर भगवन्त हैं। वे ही श्री तीर्थंकर भगवन्त अर्थ रूप से जितना धर्मोपदेश देते हैं अर्थात् शब्द सुनाते हैं, उसका अनन्तवाँ भाग ही श्री गणधर भगवन्त द्वादशांगी में शब्दों द्वारा सूत्र में गूथते हैं। इससे इस द्वादशांगी के अभ्यासी ऐसे पूर्वधर महापुरुष भी समस्त द्रव्यों की अनन्तवें भाग पर्यायों को ही जान सकते हैं। ऐसे चौदह पूर्वधर भी जो भाव-पर्याय द्वादशांगी में नहीं पाये हैं और जिनके लिये शब्द भी नहीं हैं, उन्हें नहीं जान सकते । वे जितना जानते हैं, उनसे अनन्तगुणा अधिक भावों को नहीं जानते हैं। इसलिए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय समस्त द्रव्य हैं, किन्तु उनकी समस्त पर्यायें नहीं हैं ॥२७॥
* अवधिज्ञानस्य विषयः * रूपिष्ववधेः॥ २८॥
® सुबोधिका टीका * रूपिषु पुद्गलेषु पुद्गलसम्बन्धिजीवेषु च अवधेविषयनिबन्धो भवति । स्वयोग्यपर्यायेषु अल्पेषु पर्यायेषु न तु अनन्तेषु पर्यायेष्ववधिः प्रवर्तते ॥ २८ ॥
ॐ सूत्रार्थ-अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य ही है अर्थात्-अवधिज्ञान की प्रवृत्ति केवल रूपी द्रव्य में ही है ॥ २८ ।।
ॐ विवेचन तृतीय अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य का होते हुए भी उसकी समस्त पर्यायों से युक्त नहीं है। कारण कि, चाहे अवधिज्ञानी अतिविशुद्ध अवधिज्ञान को धारण करने वाला हो, तो भी वह उसके द्वारा रूपी द्रव्यों को ही जान सकता है, अरूपी को नहीं तथा रूपी द्रव्यों की भी सब पर्यायों को नहीं जान सकता है । ॥२८॥
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६२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
* मन:पर्ययज्ञानस्य विषयः
तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य ॥ २६ ॥
[ ११२६-३०
* सुबोधिका टीका
तेषां रूपद्रव्याणां अनन्ततमे भागे मनसा परिणत - मनोद्रव्याणि ज्ञातु मन:पर्ययज्ञानस्य विषयोऽस्ति । अवधिज्ञानविषयस्य अनन्तभागं मन:पर्ययज्ञानी जानीते | तथा रूपिद्रव्याणि मनोरहस्यविचारगतानि मानुषक्षेत्रपर्यापन्नानि विशुद्धतराणि चेति ||२६||
* सूत्रार्थ - अवधिज्ञानी से अनन्तवें भाग को ही मन:पर्ययज्ञानी जानते हैं । अर्थात् - मनःपर्ययज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय से अनन्तवाँ भाग है ।। २६ ।।
5 विवेचन 5
जितना रूपी द्रव्यों को अवधिज्ञानी जान सकता है, उसके अनन्तवें भाग को मन:पर्ययज्ञानी जा सकता है । अर्थात् - जितना विषये अवधिज्ञान का है, उसका अनन्तवाँ भाग मन:पर्ययज्ञान का विषय है । कारण कि - मन:पर्ययज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय से अनन्तकभाग प्रमाण रूपी द्रव्य है । किन्तु वह भी असर्व न्यून पर्याय होने से अपने विषय की सम्पूर्ण पर्यायों को नहीं जान सकता है । ऐसा होते हुए भी फिर वह अधिकतर सूक्ष्म विषय को विशेष रूप से जानता है I इसलिए मन:पर्ययज्ञान प्रशस्त है । सारांश यह है कि - मन:पर्ययज्ञानी प्राये हुए रूपी द्रव्यों को तथा मनुष्य क्षेत्रवर्ती अवधिज्ञान की अपेक्षा से अतिशय विशुद्ध-सूक्ष्मतर तथा अनेक पर्यायों से उन रूपी द्रव्यों को जान सकता है ||२६||
* केवलज्ञानस्य विषयः
सर्वद्रव्य - पर्यायेषु ॥ ३० ॥
* सुबोधिका टीका
सर्वद्रव्येषु तथा सर्वपर्यायेषु केवलज्ञानस्य विषयो भवति । अर्थात् विश्वे विद्यमानानि सर्वद्रव्याणि तथा तेषां सर्वपर्यायाणि च केवलज्ञानस्य विषयः, स च सर्वभावग्राहकस्तथा समस्तलोकालोकविषयकश्च । अस्मात् किमपि अन्यद् ज्ञानं श्रेष्ठं न भवति । न च केवलज्ञानविषयात् परं यत्किञ्चिदन्यज्ज्ञेयमस्ति । केवलं निरपेक्षं परिपूर्णं समस्तभावज्ञापकं समग्रमसाधारणं विशुद्ध लोकालोकविषयमनन्तपर्यायमित्यर्थः ।। ३० ।।
* सूत्रार्थ - केवलज्ञानी सर्व द्रव्यों को उनकी सर्व पर्यायों सहित जानते हैं । अर्थात् समस्त द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को जानना तथा देखना यह केवलज्ञान का विषय है ।। ३० ।।
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११३०
]
प्रथमोऽध्यायः
के विवेचन ॥ केवलज्ञान का विषय समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों में है। जीव-पुदगलादिक समस्त मूल द्रव्य तथा उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायें इस ज्ञान का विषय हैं। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशिष्ट तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप विश्व के सभी पदार्थों को ग्रहण करता है। इतना ही नहीं, किन्तु वह सम्पूर्ण लोक और अलोक को भी विषय किया करता है। न तो इस ज्ञान से उत्कृष्ट कोई ज्ञान है और न तो ऐसा कोई पदार्थ या पर्याय है कि जो इस केवलज्ञान का विषय न बना हो। यह केवलज्ञान ज्ञानावरण कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से जीव-प्रात्मा में प्रकट होता है। इसलिए यह ज्ञान क्षायिक कहा जाता है । अन्य क्षायोपशमिक ज्ञानों में से कोई भी ज्ञान इस केवलज्ञान के साथ नहीं रह सकता।
* यह ज्ञान एकाकी ही रहता है। इसीलिए इसको 'केवल' कहते हैं।
* इस केवलज्ञान को इन्द्रिय, मन और आलोक-प्रकाश इत्यादि किसी भी बाह्य अवलम्बन या सहायक की अपेक्षा नहीं रहती है, इसीलिए इसको 'निरपेक्ष' कहा जाता है ।
* यह केवलज्ञान विश्व के समस्त द्रव्य-भावों का परिच्छेदक है, इसलिए इसको 'परिपूर्ण' कहते हैं।
* यह केवलज्ञान विश्व के सर्व पदार्थों का ज्ञापक है, इसी से ही समस्त तत्त्वों का ज्ञान बोध होता है। इसीलिए इसको 'सर्वभावज्ञापक' कहते हैं।
* जिस तरह यह केवलज्ञान एक जीव-प्रात्म पदार्थ को जानता है, उसी तरह सम्पूर्ण पर-पदार्थों को भी जानता है, इसीलिए इसको 'समग्र' कहा जाता है।
* इस केवलज्ञान की किसी भी प्रकार से मतिज्ञानादिक क्षायोपशमिक ज्ञान से तुलना नहीं हो सकती है। इसलिए इसको 'असाधारण' कहते हैं ।
* यह केवलज्ञान, ज्ञानावरण आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाली कर्ममलदोषरूप अशुद्धियों से सर्वथा रहित है । इसलिए इसको 'विशुद्ध' कहा जाता है।
* इस केवलज्ञान से लोक और अलोक का कोई भी अंश अपरिच्छिन्न नहीं है। इसलिए इसको 'लोकाऽलोकविषय' कहते हैं ।
* अगुरुलघुगुण के निमित्त से इस केवलज्ञान की अनन्तपर्यायों का परिणमन होता है। इसलिए इसको 'अनन्तपर्याय' कहा जाता है। अथवा-इस केवलज्ञान पर्याय की ज्ञेय स्वरूप पर्यायें अनन्त हैं। इसलिए भी इसको 'अनन्तपर्याय' कहते हैं। यद्वा-इस केवलज्ञान के अविभागपरिच्छेद अनन्त हैं। इसलिए भी इसको 'अनन्तपर्याय' कहते हैं ।
उक्त कथनों का सार यह है कि--यह पंचम केवलज्ञान अनन्त शक्ति और सम्पूर्ण योग्यता को धारण करने वाला होने से विश्वभर में सर्वथा अप्रतिम है। इस केवलज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और उनकी सर्व पर्यायें हैं। सारे विश्व में ऐसी कोई वस्तु-पदार्थ या कोई भाव-पर्याय नहीं है जिसे
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६४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १।३१ यह केवलज्ञान न जान सके । जैसे--पारसी-दर्पण में वस्तु-पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही निर्मल प्रात्मा में तीन काल के समस्त वस्तु-पदार्थों का तथा सर्व भावों का भी ज्ञानीगम्य प्रतिबिम्ब पड़ता है, जिससे केवली भगवन्त हाथ में रहे हुए आँवले की भाँति विश्वभर के सर्व द्रव्यों और तीन काल की उनकी सभी पर्यायों को जान सकते हैं तथा देख भी सकते हैं। इसी कारण से केवली भगवन्तों को 'सर्वज्ञ' कहने में आता है । ।३०।।
* एषां मतिज्ञानादीनां युगपदेकस्मिन् जीवे कति भवन्ति ? * एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्व्यः ॥ ३१ ॥
8 सुबोधिका टीका * एषां मतिज्ञानादीनां युगपदेकस्मिन् जीवे कति भवन्ति ? इति । कथ्यतेऽत्रएतेषु ज्ञानेषु मत्यादीनामारभ्य चतुःसङ्ख्याकमनःपर्ययज्ञान पर्यन्तं सहैव एकस्मिन् जीवे भवति । कस्यापि एकं, कस्यापि द्वे, कस्यापि त्रीणि, कस्यापि चत्वारि ज्ञानानि च भवन्ति । तस्य स्पष्टीकरणमाह
यस्य एकमेव ज्ञानं भवति, तस्य मतिज्ञानं अथवा केवलज्ञानं भवति । यस्य द्वे ज्ञाने भवतः तस्य मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च जायते । यतः श्रुतज्ञानं मतिज्ञानपूर्वकमेव जायते । अतः यत्र श्रतज्ञानं तत्र मतिज्ञानं भवत्येव, किन्तु यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रतज्ञानं भवत्येव इति निश्चयो नास्ति । ज्ञानत्रयवतां मतिः श्रुतमवधिश्च अथवा मतिःश्रुतं मनःपर्ययज्ञानं च भवति । पञ्चज्ञानानि सहैव एकस्मिन् काले न भवन्ति । यतः यस्य केवलज्ञानं भवति तस्य अन्यत् किमपि ज्ञानं न तिष्ठति । अत्र कतिचिद् आचार्याः कथयन्ति-केवलज्ञानस्य स्थितिकालेऽपि अन्यानि मत्यादीनि चत्त्वारि ज्ञानानि अवश्य तिष्ठन्ति, किन्तु यथा सूर्यस्य प्रभायां (तेजसि) तारादीनां तेजांसि विलीयन्ते (अन्तर्भवन्ति) तथैव केवलज्ञानस्य प्रभायां अन्य ज्ञानस्य प्रभाः निस्तेजकाः भवन्ति ।
अन्ये च प्राचार्याः कथयन्ति यत् एतानि चत्वारि ज्ञानानि क्षयोपशमभावेन भवन्ति, किन्तु केवलिनः सः क्षयोपशमः भावः न भवति ! केवलिनः केवलं क्षायिकभाव एव वर्त्तते । अन्यं नास्ति एव । एतेषां चतुर्ज्ञानानां क्रमशः उपयोगो भवति, न तु युगपत् । केवलज्ञानस्य उपयोगः निरपेक्षः । आत्मनः एतद् स्वभावे नव ज्ञानदर्शनयोः समये-समये उपयोगः केवलिनां निरन्तरं भवति । किञ्चान्यत्-क्षयोपशमजानि पूर्वाणि चत्वारि ज्ञानानि क्षयादेव पञ्चमं केवलज्ञानम् । तस्माद् न केवलिनः शेषाणि ज्ञानानि भवन्तीति ॥ ३१ ॥
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१।३१ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ६५ ॐ सूत्रार्थ-एक जीव के एक समय में प्रारम्भ के एक से लेकर चार ज्ञान [मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्ययज्ञान] तक अनियत रूप से हो सकते हैं ॥ ३१ ॥
____+ विवेचन ज्ञान के जो पूर्वोक्त मत्यादिक पाँच भेद कहे हैं, उनमें से एक जीव-प्रात्मा के एक समय में युगपत् एक, दो, तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं। किन्तु पाँचों ज्ञान एक साथ में नहीं होते हैं। किसी जीव-पात्मा को मतिज्ञानादिक में से एक ही ज्ञान हो सकता है। जैसे—मतिज्ञान या केवलज्ञान । किसी जीव प्रात्मा को मतिज्ञानादिक में से दो ज्ञान हो सकते हैं। जैसे—मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । किसी जीव-प्रात्मा को मतिज्ञानादिक में से तीन ज्ञान हो सकते हैं। जैसे–मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान अथवा मतिज्ञान, श्रतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान । किसी जीव-यात्मा को मतिज्ञानादिक में से चार ज्ञान भी हो सकते हैं। जैसे–मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान।
परिपूर्ण अवस्था में जीव-आत्मा को अन्य अपूर्ण ज्ञान नहीं होते हैं। इसलिए उनके एक केवलज्ञान ही कहा है। उक्त पाँच ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान नियमतः सहचारी हैं। श्रुतज्ञान का तो मतिज्ञान के साथ सहभाव नियत है। कारण कि वह श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक ही होता है। किन्तु जिस जीव-प्रात्मा को मतिज्ञान है, उसको श्रुतज्ञान हो या न भी हो? शेष अवधि, मनःपर्यय और केवल इन तीनों ज्ञानों में सहचारिता नहीं है तथा मत्यादि चारों ज्ञान जो अपूर्णभावी हैं, उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान तो प्रत्येक जीव-प्रात्मा को अवश्य होते हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान किसी को होते हैं तथा नहीं भी होते हैं। जिसको होते हैं उसके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों अवश्य रहते हैं । अकेला अवधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञान मति-श्रुतज्ञान के बिना नहीं होता है। सम्पूर्ण भावी होने से केवलज्ञान की किसी ज्ञान के साथ सहचारिता नहीं है। क्योंकि--इसका अपूर्णता के साथ विरोध भाव है। जीव-आत्मा को एक साथ दो, तीन या चार ज्ञान की जो सम्भवता है वह उसकी शक्ति की अपेक्षा से है, प्रवृत्ति की अपेक्षा से नहीं है।
प्रश्न-पूर्व के चार मत्यादि ज्ञानों के साथ पंचम केवलज्ञान का सहभाव है या नहीं?
उत्तर-जीव-आत्मा की शक्ति और प्रवृत्ति का अर्थ यह होता है कि जो जीव-आत्मा पूर्वोक्त दो, तीन या चार ज्ञान वाला है, वह जिस समय मतिज्ञान द्वारा किसी एक वस्तु-पदार्थ को जानने के लिए प्रवृत्तमान होता है, उस समय उसके अन्य शेष ज्ञान का आविर्भाव होता है, तो भी उसकी उपयोगिता नहीं होती है । जोव-आत्मा को मत्यादि चारों ज्ञान की शक्ति भले एक समय की होती है तो भी जीव-प्रात्मा के उपयोग में प्रवृत्ति रूप से चारों ज्ञान नहीं होते हैं। कारण कि, एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग होता है। दो या तीन ज्ञान का उपयोग एक समय में एक साथ नहीं हो सकता है । मतिज्ञान या अवधिज्ञान की शक्ति प्राप्त होते हुए भी श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति में उसकी उपयोगिता शक्ति प्रकट नहीं होती है।
सारांश यह है कि-एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग होता है। उस समय दूसरे ज्ञान निष्क्रिय रहते हैं। (१) केवलज्ञान के विषय में दो मत हैं। कितनेक प्राचार्यों का ऐसा मन्तव्य है कि-जीव-आत्मा में केवलज्ञान हो जाने पर भी इन चारों मतिज्ञानादिक का प्रभाव नहीं हो जाता ।
सा
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६६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १३२ अर्थात-केवलज्ञान के समय भी मत्यादि चारों ज्ञानों की शक्ति प्रात्मा में रहती है, किन्तु ये ज्ञान केवलज्ञान से अभिभूत हो जाते हैं । इसलिए उस अवस्था में कुछ भी कार्य करने में समर्थ नहीं रहते हैं। जैसे-बादल से रहित प्राकाश में अर्क यानी सर्य का उदय होने पर अन्य तेजो द्रव्य-अग्नि, रत्न चन्द्रमा, नक्षत्र एवं तारा इत्यादि का प्रकाश उसमें पाच्छादित हो जाता है और वे अपना कार्य करने में भी अकिञ्चितकर हो जाते हैं। वैसे ही मत्यादि चारों ज्ञान पंचम केवलज्ञान के उदित होने पर निष्क्रिय हो जाते हैं। केवलज्ञान के सद्भाव में उनका प्रभाव नहीं मानते हैं, किन्तु प्रारमा में अनीन्द्रियजन्य आत्मज्ञान प्रकट हो जाने से इन्द्रिय उपलब्ध मत्यादि ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती है। कारण कि--अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान केवल रूपी द्रव्य विषयी हैं तथा मतिज्ञान और श्रतज्ञान के सद्भाव में उनकी उपलब्धता एवं सहचारिता है। पंचम केवलज्ञान की विद्यमानता में अन्य शक्तियों की प्रवृत्ति है, किन्तु वह पृथग्-भिन्न स्वरूप में प्रकाशित नहीं होती है।
(२) फिर और कितनेक अन्य प्राचार्यों का कथन यह है कि-केवलज्ञान प्रात्म-स्वभाव रूप है। यह ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के सर्वथा क्षय होने से ही उत्पन्न होता है। जब आत्मा में ज्ञानावरण कर्म का सर्वथा क्षय होता है, तब क्षयोपशम रूप उपाधि का अभाव होने से मत्यादि चार ज्ञान का भी सर्वथा अभाव होता है। यह कथन स्पष्ट रूप में समझना चाहिए कि मतिज्ञानादिक चार प्रकार के जो क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, उनका उपयोग जीव-प्रात्मा को क्रमशः होता है; नहीं कि युगपत्-एक साथ में । अर्थात् ये चारों ही मत्यादि ज्ञान क्रमवर्ती ही हैं, सहवर्ती नहीं हैं। इन मतिज्ञानादिक चारों ज्ञान की शक्ति जीव.आत्मा में स्वाभाविक नहीं है, किन्तु कर्मोपाधि सापेक्ष क्षयोपशमजन्य है; जबकि केवलज्ञान तो ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से प्रकट होता है। इसलिए केवली भगवन्त को केवलज्ञान ही रहा करता है। उनको शेष मत्यादि चारों ज्ञान नहीं हुआ करते । केवलज्ञान की शक्ति के बिना मत्यादि ज्ञान शक्तियाँ नहीं होती हैं और इनका पर्यायरूप कार्य भी नहीं होता है।
कितनेक यह भी कहते हैं कि-ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग पर्याय सब समान हैं तथा उन अविभाग पर्यायों में रई हही वर्णादि को जानने की शक्तियाँ भी अनेक प्रकार की हैं। उन शक्तियों के पाविर्भाव की तारतम्यता से ही मतिज्ञानादि ऐसे भिन्न-भिन्न नाम रखे गये हैं और केवलज्ञानावरणीय का सर्वथा क्षय अर्थात् अभाव हो जाने से केवल केवलज्ञान ही रहता है।
सारांश यह है कि--क्षायिक भाव में तथा क्षायोपशमिक भाव में परस्पर विरोध होने से क्षायिक-केवलज्ञान के साथ चारों क्षायोपशमिक ज्ञानों का सहभाव नहीं रहता है। इसलिए भगवन्त के केवलज्ञान को छोडकर मत्यादि चारों ज्ञानों का अभाव ही जानना ॥३१॥
* प्रमाणाभासरूपज्ञानानां निरूपणम् * मति-श्रुताऽवधयो विपर्ययश्च ॥ ३२ ॥
ॐ सुबोधिका टीका 8 पूर्वोक्तं प्रमाणरूपाणां पञ्चज्ञानानां निरूपणम् । अथ अत्रैव प्रमाणाभासरूपाणां ज्ञानानां निरूपणं कथ्यते इति । मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च एतानि
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प्रथमोऽध्यायः
१।३२ ]
[ ६७ त्रीणि विपर्ययरूपेणापि भवन्ति । अतः एतानि अज्ञानरूपाणि जायन्ते। अत्राहतदेव ज्ञानमिति तदेवाज्ञानं मन्यते । ननु तदत्यन्तं विरुद्धमिति । कथम् ? अत्रोच्यते । एतेषां मिथ्यादर्शनज्ञानपरिग्रहाद् विपरीतमिति, तस्मादज्ञानानि भवन्ति एव । तद्यथा(१) प्रथमं मत्यज्ञानं, (२) द्वितीयं श्रुताज्ञानं, (३) तृतीयं अवधिज्ञानं विपरीतं विभङ्गज्ञानमिति । अर्थात्-त्रीणि अज्ञानानि विपरीतज्ञानानि सन्ति ॥ ३२ ।।
8 सूत्रार्थ-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन विपर्यय अर्थात् अज्ञान रूप भी होते हैं ।। ३२ ।।
विवेचन मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीनों ज्ञान विपर्यय भी हुमा करते हैं। अर्थात् ये तीनों ज्ञान अज्ञान रूप भी कहे जाते हैं। कारण कि जो ज्ञान से विपरीत हैं, उन्हीं को अज्ञान कहा जाता है। ये मत्यादि पाँचों ज्ञान चेतना शक्ति यानी प्रात्मशक्ति के पर्याय हैं। ये सभी अपनेअपने विषय-पदार्थ को यथार्थ रूप से प्रकाशित करते हैं, इसीलिए ज्ञान कहलाते हैं। इनमें पूर्व के मति, श्रुत और अवधि ये तीनों ज्ञान अज्ञान रूप भी होते हैं।
प्रश्न-ज्ञान प्रज्ञान रूप कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि ज्ञान और अज्ञान ये दोनों परस्पर विरोधी शब्द हैं। जैसे-शीत और उष्ण, छाया और ताप, तिमिर (अंधेरा) और प्रकाश। एक हो स्थान में ये विरोधी भाव नहीं रह सकते हैं। वैसे इधर भी मति, श्रुत और अवधि ये तीनों ज्ञान स्वविषय के बोधक हैं तो वे अज्ञान रूप कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर-यहाँ ज्ञान और अज्ञान को विवक्षा प्राध्यात्मिक दृष्टि से की है। इसलिए यहाँ अज्ञान का अर्थ ज्ञान का प्रभाव नहों, किन्तु विपरोत ज्ञान समझना। अर्थात--अलौकिक दृष्टि से ये तीनों पर्याय ज्ञान-स्वरूप हो हैं। इनको ज्ञान और अज्ञान दो स्वरूप से यहाँ कहा, यह संकेत केवल प्राध्यात्मिक शास्त्र-प्राध्यात्मिक ज्ञान का है । सम्यग्दृष्टिवन्त की अपेक्षा उक्त तीनों पर्याय ज्ञानरूप से माने गये हैं तथा मिथ्यादृष्टिवन्त की अपेक्षा इन तीनों पर्यायों को मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान रूप से माना है। विपरीत अवधि-मिथ्यादृष्टि जोव के अवधिज्ञान को ही विभंग कहा जाता है। अवध्यज्ञान और विभङ्गज्ञान दोनों ही पर्यायवाचक शब्द हैं। व्यवहार में ज्ञान के निषेध को अज्ञान कहते हैं। यह निषेध दो प्रकार का माना है। एक पर्युदासनिषेध और दूसरा प्रसह्यनिषेध । 'पर्युदासः सदृग्ग्राही, प्रसास्तुनिषेधकृत्' । अर्थात्-पर्युदास सदृग्ग्राही है और प्रसह्य निषेधकृत् है। जो समान अर्थ को ग्रहण करता है, उसको 'पर्युदास सदृग्ग्राही' कहा जाता है तथा जो सर्वथा निषेध अर्थात् अभाव अर्थ को प्रकट करता है, उसे 'प्रसह्यनिषेध' कहा जाता है। यहाँ पर ज्ञान के निषेध का अर्थ पर्यु दास है, प्रसह्य नहीं है। इसलिए अज्ञान का अर्थ ज्ञानोपयोग का अभाव नहीं है, किन्तु मिथ्यादर्शन सहचरित ज्ञान है ।
मिथ्यादर्शन का सहचारी ज्ञान वास्तविक तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकता है । जब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय होता है तब वस्तु-पदार्थ का यथार्थ बोध नहीं हो सकता,
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६८ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १।३३
किन्तु विपरीत ही बोध होता है । इसलिए मिथ्यादृष्टि के मति, श्रुत और अवधि ये तीनों ज्ञान अज्ञान
रूप हैं ।
जब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का विनाश होता है तब सम्यग्दर्शन गुरण प्राप्त होता है । इसके प्रभाव से वस्तु पदार्थ का यथार्थ बोध होता है। इससे सम्यग्दृष्टिवन्त जीव आत्मा का मत्यादि ज्ञान ज्ञानस्वरूप है । यहाँ यथार्थ बोध का अर्थ प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से नहीं, किन्तु अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से है । यह अध्यात्मशास्त्र है, यहाँ यथार्थ बोध से अभिप्राय है वह बोध जो आध्यात्मिक • विकास में सहायक बने । सम्यग्दृष्टि का ज्ञान प्राध्यात्मिक विकास में सहायक बनता है । मिथ्यादृष्टिवन्त का ज्ञान इस प्रकार का नहीं है ।
सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति मुख्यपने अपने ज्ञान का उपयोग प्रात्मोन्नति में करता है और मिथ्यावन्त व्यक्ति अपने ज्ञान का उपयोग पुद्गल - पोषरण में करता है । इसलिए मिथ्यादृष्टि का लौकिक दृष्टि से उच्च ज्ञान भो अज्ञान रूप में है और सम्यग्दृष्टिवन्त का अल्पज्ञान भी ज्ञान स्वरूप है ।
मिथ्यादृष्टिवन्त का भौतिकज्ञान हो या श्राध्यात्मिकज्ञान हो, ये दोनों ही ज्ञान अज्ञान रूप हैं । सम्यग्दृष्टिवन्त का आध्यात्मिकज्ञान तो ज्ञानस्वरूप है, इतना ही नहीं उसका भौतिकज्ञान भी हे और उपादेय का विवेकवन्त होने से ज्ञान रूप है अर्थात् - - सम्यग्ज्ञान रूप है । मिथ्यादृष्टिवन्त
मति श्रुत और अवधि ये तीनों ही ज्ञानोपयोग हो सकते हैं, कारण कि चतुर्थ मन:पर्ययज्ञान और पंचम केवलज्ञान ये दोनों सम्यग्दृष्टिवन्त के ही होते हैं । इसलिए प्रथम तीन को ही विपरीत ज्ञान या ज्ञान कहा है ।
प्रश्न - सम्यग्दर्शन के सहचारी मत्यादिक को तो ज्ञान कहते हो और मिथ्यादर्शन के सहचारी मत्यादिक को अज्ञान कहते हो, यह कैसे हो सकता है ?
कारण कि मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के हैं । एक भव्य मिथ्यादृष्टि और दूसरे अभव्य मिथ्यादृष्टि । उसमें जो सिद्धावस्था को प्राप्त हो सकते हैं, उनको 'भव्य' कहते हैं तथा जिनमें सिद्धावस्था को प्राप्त करने की योग्यता नहीं है, उनको 'भव्य' कहते हैं । फिर मिथ्यादृष्टि के तीन भेद भी होते हैं । एक अभिगृहीत मिथ्यादर्शन, दूसरा अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन और तीसरा संदिग्ध मिथ्यादर्शन | उसमें जो वीतराग - श्रीजिनेश्वर भगवान के प्रवचन से सर्वथा भिन्न निरूपण करने वाले हैं, उनको (बौद्धादिकों को) श्रभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं तथा जो वीतराग- श्रीजिनेश्वर भगवान के वचनों पर श्रद्धा नहीं है, उनको अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं । एवं वीतरागश्रीजिनेश्वर भगवान के वचन पर सन्देह संशय करने वालों को संदिग्ध मिथ्यादर्शन कहा करते हैं ।
तीनों ही प्रकार के मिध्यादृष्टि भव्य भी होते हैं और अभव्य भी होते हैं । वे सभी मिथ्यादृष्टिवन्त व्यक्ति सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति के ही समान घट और पटादिक का ग्रहरण और निरूपण तथा रूप और रसादिक का ग्रहरण एवं निरूपण करते हैं । फिर भी क्या कारण है कि सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति के ग्रहण और निरूपण को समीचीन कहते हैं तथा मिथ्यादृष्टिवन्त व्यक्ति के ग्रहण और निरूपण को विपरीत कहते हैं। क्योंकि बाधक प्रत्यय के होने से ही किसी भी प्रकार के ज्ञान को मिथ्या कह सकते हैं, श्रन्यथा नहीं कह सकते ।
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१।३३ ]
प्रथमोऽध्यायः
[ ६६
जैसे - किसी भी व्यक्ति को सीप में रूपा-चांदी का ज्ञान हुप्रा । यह ज्ञान मिथ्या कहा जाता है, क्योंकि उसका बाधक ज्ञान विद्यमान उपस्थित है । यहाँ तो ऐसा नहीं है, तो फिर समोचोन और मिथ्याज्ञान के भेद का क्या कारण है कि उनके ज्ञान को विपरीत ज्ञान या अज्ञान कहा जाता है ?
उत्तर - कारण यही है कि, मिथ्यादृष्टिवन्त के सभी ज्ञान विपरीत हो होते हैं । वे ज्ञान वस्तुपदार्थ के यथार्थ स्वरूप का परिच्छेदन नहीं करते हैं । इसलिए उनका ज्ञान विपरीत कहा जाता है ।
प्रश्न- सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति को भी जैसे भौतिकज्ञान के विषय में सन्देह संशय या विपरीत ज्ञान होता है, वैसे प्राध्यात्मिकज्ञान के विषय में होता है कि नहीं ?
उत्तर -- सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति को भी अपनी अल्प मत्यादि के कारण या उपदेश की स्खलना भूल से आध्यात्मिकज्ञान के विषय में भी सन्देह- संशय या विपरीत ज्ञान हो जाय, तो भी उसमें सम्यग्दर्शन गुण के प्रभाव से प्राध्यात्मिक प्रगति विकास के पाया रूप सत्य - जिज्ञासा और सत्यस्वीकार आदि गुणों से वह अपने से विशेष ज्ञाताओं के पास वस्तु पदार्थ का सत्य समझने के लिए प्रयत्न करता है । उसमें भी अपनी स्खलना भूल समझ में या जाय तो तत्काल उसे सुधार लेता है । इतना ही नहीं किन्तु सत्य वस्तु पदार्थ का स्वीकार भी अवश्य कर लेते हैं ।
जिस विषय में 'सत्य क्या है' वह समझ न सके तो भी तद् विषय में 'सर्वज्ञ जिनेश्वर विभु ने जो कहा है वह ही सत्य है' ऐसी निर्णयात्मक दृढ़ मान्यता अपने अन्तःकरण में अवश्यमेव धरते हैं, किन्तु यही सत्य है, ऐसा कदाग्रह नहीं रखते। स्वयं समझता है कि छद्मस्थ जीवों की बुद्धि परिमित होने से सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता । 'सत्यासत्य का निर्णय तो सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवन्तों के धर्मोपदेश के आधार से ही हो सकता है ।' ऐसा मानस सम्यग्दृष्टिवन्त का होता है । मिथ्यादृष्टिवन्त का मानस इसके विपरीत होने से वह स्वमतिकल्पना से सत्यासत्य का निर्णय करता है । इसलिए मिथ्यादृष्टिवन्त व्यक्ति का मत्यादिज्ञान अज्ञान स्वरूप है । इस बात का समर्थन आगे आने वाले सूत्र में है ।। ३२ ।।
* मिथ्यादृष्टीनां मत्यादित्रिज्ञानानि विपरीतं किम् ?
सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३३ ॥
* सुबोधिका टीका
सम्यग्दर्शनपरिगृहीतं यन् मत्यादिज्ञानं भवति, अन्यथा अज्ञानमेवेति भवता प्रोक्तम् । मिथ्यादृष्टयोऽपि तु भव्याश्चाभव्याश्च स्पर्शेन्द्रियादि निमित्तानविपरीतान् स्पर्शादीन् उपलभन्ते तथा उपदिशन्ति स्पर्शं स्पर्श, रसं रस एवं शेषान् सर्वान् तत् कथमेतदिति ? इति ।
कथ्यतेऽत्र - तेषां विपरीतमेतद् भवति । यथा - मिथ्यादृष्टिवतां उन्मत्तानामिव सदसतोविशेषतां विना विपरीतार्थग्रहण कारणेन पूर्वोक्तानि त्रीण्यपि निश्चयाद् अज्ञानानि मन्यन्ते । अर्थात् - उन्मत्तपुरुषः कर्मोदयाद् हतेन्द्रियमतिविपरीतग्राही भवति । सोऽपि
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७० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १।३३ लोष्टं सुवर्णमिति सुवर्णं लोष्ट इति लोष्टं च लोष्ट इति सुवर्ण सुवर्णमिति तस्यैवमविशेषेण लोष्टं सुवर्णं सुवर्णं लोष्टमिति विपरीतमध्यवस्यतो नियतमज्ञानमेव भवति । तद्वन्मिथ्यादर्शनहतेन्द्रियमतेर्मति-श्रुतावधयोऽप्यज्ञानं भवन्तीति ।। ३३ ।।
सूत्रार्थ-'सत्-असत्' अर्थात् वास्तविक-अवास्तविक की विशेषता को जाने बिना उन्मत्तता के समान स्वेच्छाचारी होने से ज्ञान भी अज्ञान रूप होता है। अर्थात्उन्मत्त की तरह सत्-असत् के विवेक से शून्य ऐसे यदृच्छा ज्ञान को मिथ्याज्ञान अज्ञान कहा है ।। ३३ ।।
+ विवेचन ॥ अपनी मतिकल्पना के अनुसार अर्थ करने से उन्मत्त की तरह सत पदार्थ की और असत पदार्थ की विशेषता नहीं समझ सकने से मिथ्यादृष्टि का मति आदि ज्ञान अज्ञान स्वरूप होता है
जैसे-कर्मोदय से किसी उन्मत्त-पागल पुरुष की इन्द्रियों की और मन की शक्ति नष्ट हो जाने से, वह वस्तु-पदार्थ के स्वरूप को विपरीत ही ग्रहण करता है। वह मिट्टी के ढेले को सुवर्ण मानता है तथा सुवर्ण को ढेला मानता है। कभी ढेले को ढेला और सुवर्ण को सुवर्ण भी समझता है। जैसा समझता है वैसा कहता भी है। ऐसा होते हुए भी उसके ज्ञान को अज्ञान ही कहते हैं। इसी तरह जिस व्यक्ति की मिथ्यादर्शन कर्म के निमित्त से देखने की तथा विचार-विमर्श करने की शक्ति और योग्यता नष्ट हो गई है अथवा विपरीत हो गई है, वह व्यक्ति जीव-अजीवादि वस्तु-पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को न देख सकता है, न विचार-विमर्श कर सकता है और न सही रूप में जान सकता है। इसलिए उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीनों अज्ञान ही कहे जाते हैं।
प्रश्न—क्या सम्यग्दृष्टिवन्त जीवात्मा के सभी व्यवहार प्रमाणभूत ही हैं और मिथ्यादृष्टिवन्त जोव-प्रात्मा के सभी व्यवहार अप्रमाणभूत हैं ? यह कहना अयथार्थ अर्थात् भ्रमात्मक है । यह भी कोई नहीं कह सकता कि सम्यग्दृष्टिवन्त जीव की इन्द्रिय-साधना परिपूर्ण और निर्दोष होती है और मिथ्यादृष्टिवन्त जीव की साधना अपूर्ण तथा सदोष होती है। मिथ्यादृष्टि जीव भी श्वेत रंग को श्वेत,काले रंग को काला, शीत को शीत और उष्ण को उष्ण इत्यादि सम्यग्दृष्टि जीव के समान देखता है और कहता भी है तो फिर स्वगृहीत सम्यक्त्व और अन्यगृहीत मिथ्यात्व है, ऐसा कहना और भी असंगत है। इसलिए इसका यथार्थ-वास्तविक तात्पर्य क्या है ?
उत्तर-मोक्षाभिमुखी सम्यग्दृष्टिवन्त जीवात्मा में समभाव की मात्रा तथा प्रात्म-विवेक विशेषरूप में होता है। इसलिए यह अपने ज्ञान का उपयोग मात्र समभाव की पूष्टि में करत इस हेतु से वह भले कितना ही अल्पविषयी ज्ञान वाला हो तो भी उसका ज्ञान सही ज्ञान कहलाता है। इससे विपरीत संसाराभिमुखी मिथ्यादृष्टि जीवात्मा में कितना ही विशाल और स्पष्टपने ज्ञान हो तो भी उसका ज्ञान असही, अज्ञान ही कहलाता है। मिथ्यादृष्टिवन्त जीवात्मा राग-द्वेष की तीव्रता और आध्यात्मिकज्ञान की अनभिज्ञता के कारण ही अपने विशाल ज्ञान का उपयोग केवल भवपुष्टि के लिये करती है। इसलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है तथा वही कर्म के राग-द्वेष की
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१।३४ ]
प्रथमोऽध्यायः
[ ७१
तीव्रता को मन्द करता हुआ आत्मतृप्ति को उपार्जन करने का हेतु होता हो तो उस ज्ञान को प्रज्ञान नहीं कहते, किन्तु ज्ञान ही कहेंगे ।
विश्व की प्रत्येक वस्तु स्व द्रव्य क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से सत् है अर्थात् विद्यमान है तथा पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से असत् है अर्थात् अविद्यमान है । विश्व की प्रत्येक वस्तु में दो धर्म रहते हो हैं । सत्त्व और असत्त्व, नित्यत्व और अनित्यत्व तथा सामान्य और विशेष इत्यादि । ये धर्म प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में होते हैं तो भी मिथ्यादृष्टि जीवात्मा अमुक वस्तु सत् ही है, अमुक वस्तु असत् ही है, अमुक वस्तु नित्य ही है, अमुक वस्तु अनित्य ही है तथा अमुक वस्तु सामान्य ही है एवं
मुक वस्तु विशेष ही है; इत्यादि वस्तु-पदार्थों के एकान्त रूप में एक धर्म को ही स्वीकार करती है। और अन्य धर्म को अस्वीकार करती है । इसलिये उसका ज्ञान अज्ञान स्वरूप ही कहा जाता है ||३३||
* नयानां निरूपणम्
नैगम-संग्रह - व्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः ॥ ३४॥
* सुबोधिका टीका
पूर्वोक्तं ज्ञानम् । चारित्रं तु अग्रे नवमेऽध्याये वक्ष्यामः । प्रोक्ते च प्रमाणे पूर्वम् । नयानां निरूपणं तु अत्रैव वक्ष्यामः । तद्यथा - नैगमः संग्रहः, व्यवहारः, ऋजुसूत्रः, शब्दश्चेति पञ्चनयाः भवन्तीति ॥ ३४ ॥
* सूत्रार्थ - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ये पाँच नय हैं ।। ३४ ।।
विवेचन
पूर्व में कहा था कि प्रमाण के एकदेश को नय कहते हैं । वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । अनन्तधर्मात्मक वस्तु के नित्य या अनित्य किसी भी एक अंश को ग्रहण कर प्रकाशित किया जाय, उसको हो नय कहा जाता है । अनेक अपेक्षाओं से नय के अनेक भेद हैं । परन्तु सामान्य से इस सूत्र में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच भेदों की सूचना दी गई है ।
नय के भेदों प्रकारों की संख्या के लिये एक ही निर्णय या परम्परा नहीं है । लेकिन सामान्य रूप से विशेषता - बहुलता नैगमादि सात भेदों के कथन की ओर दृष्टिगोचर होती है । नगमादि पाँच नयों के अलावा समभिरूढ़ और एवंभूत ये दो नय मिलाकर सात नयों की प्रसिद्धि आज भी जैन ग्रन्थों में प्रचलित है । छह, पाँच, चार और दो इत्यादि भेदों की भी व्याख्या देखने में प्राती है । इसका वर्णन 'स्याद्वादरत्नाकर', 'रत्नाकर श्रवतारिका' 'नयप्रदीप', 'नयविचार' और 'नयविमर्श' इत्यादि अनेक ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक देखा जा सकता है ।
जैनधर्म के मूल सिद्धान्त अनेकान्तवाद यानी स्याद्वाद को समझने के लिए नयवाद के बोध की
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७२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[
११३४
अति आवश्यकता है। प्रस्तुत में नय का ही विषय चल रहा है। विश्व में जितनी अपेक्षाएँ हैं, उतने ही नय हैं। अपेक्षाएँ अनन्त हैं, तो नय भी अनन्त हैं। ज्ञानी महापुरुषों ने सभी नयों का संक्षेप से सात नयों में समावेश किया है। वे हैं-(१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार, (४) ऋजुसूत्र, (५) साम्प्रत-शब्द, (६) समभिरूढ़ और (७) एवंभूत ।
नय का सामान्य लक्षण-विश्व में किसी भी वस्तु-पदार्थ का तथा उसके विषय का सापेक्षता से निरूपण करना या विचार करना, उसको नय कहते हैं। उसके संक्षेप से दो भेद हैं-(१) एक द्रव्याथिक नय, और (२) दूसरा पर्यायाथिक नय। विश्व की सभी वस्तुओं में समानता अथवा असमानता ये दो धर्म रहे हैं। इसलिए वस्तु मात्र उभयात्मक कहलाती है। किसी समय सामान्य अंश की तरफ और किसी समय विशेष अंश की तरफ मानव की बुद्धि प्रवाहित होती है। जो सामान्य विचार तरफ दष्टि जाती है, उसको 'द्रव्याथिक नय' कहते हैं तथा जो विशेष विचार तरफ दृष्टि जाती है, उसको 'पर्यायाथिक नय' कहते हैं। यह सामान्य विचारात्मक तथा विशेष विचारात्मक दृष्टि एक जैसी नहीं होती है, इसलिए उसके उत्तर भेद सात हैं, जिसमें द्रव्याथिकनय के तीन और पर्यायाथिकनय के चार भेद कहे हैं। यह दृष्टिविभाग गौण और मुख्य भाव की अपेक्षा से जानना चाहिए ।
नय के विशेष भेद-पूर्वकथित द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय को विचार-विमर्श श्रेणी में विभाजित करने से नय के अनेक भेद होते हैं। इसीलिए तो 'विशेष आवश्यक भाष्य' में कहा है कि-'जावन्तो वयरणपहा तावन्तो वा नय विसद्धानो।' (गाथा २२६५) सामान्य दृष्टि वालों के लिए इन सभी का अवबोध अग्राह्य है, इसलिए उनको सुखपूर्वक अवबोध कराने के कारण द्रव्यार्थिकनय के तीन भेद तथा पर्यायाथिकनय के चार भेद किये हैं।
(१) नैगमनय—जो विचार लौकिक रूढ़ि से अथवा लौकिक संस्कार के अनुसरण से उत्पन्न होता है, उसे 'नैगमनय' कहा जाता है। अर्थात्-जो वस्तु-पदार्थ के सामान्य विशेष या भेद-अभेद को ग्रहण करने वाला है, उसको या संकल्प मात्र से वस्तु-पदार्थ के ग्रहण करने को नैगमनय कहते हैं । जैसे-श्री अरिहन्त परमात्मा को सिद्ध भगवन्त कहना। श्री आचार्य महाराज को उपाध्याय महाराज कहना। मिट्टी के घड़े को भी घी का घड़ा कहना ।
(२) संग्रहनय-विवक्षित वस्तू-पदार्थ में भेद नहीं करके किसी भी सामान्य गुण-धर्म की अपेक्षा से अभेद रूप से किसी भी वस्तू-पदार्थ को ग्रहण किया जाय, उसे 'संग्रहनय' कहा जाता है। अर्थात-जो एकवचन, एक अध्यवसाय अथवा एक उपयोग से एक साथ ग्रहण या अवबोध किया जाय, अथवा जो वाक्य समुदाय अर्थ को ग्रहण करता है उसको संग्रहनय कहते हैं। जैसे-जीवत्व (सामान्य धर्म) की अपेक्षा से ये जीव हैं, ऐसा जानना या कहना।
(३) व्यवहारनय-जो संग्रह नय से गृहीत सामान्य विचारात्मक वस्तु-पदार्थ को व्यावहारिक प्रयोजनानुसार विभाजित करता है, उसे 'व्यवहारनय' कहते हैं। अर्थात्-जो संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किए हुए विषय में भेद को ग्रहण करता है, उसे 'व्यवहारनय' कहा जाता है। जैसे जीवद्रव्य में संसारी और मुक्त का भेद करके एक भेद को ग्रहण करना। अथवा फिर संसारी में से भी नरकादि चार गतियों की अपेक्षा से किसी एक भेद को ग्रहण करना, सो व्यवहारनय है। उक्त नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों नय द्रव्याथिक कहलाते हैं।
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१।३५ ]
प्रथमोऽध्यायः (४) ऋजसत्रनय-जो केवल वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है, उसे 'ऋजसत्रनय' कहते हैं। शुद्ध वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय का ग्रहण अथवा निरूपण नहीं किया जा सकता है। कारण कि इसका उदाहरण नहीं बन सकता है, तो भी स्थूलदृष्टि से इसको उदाहरण रूप में घटा सकते हैं; जैसे कि देवगति में उत्पन्न हुए जीव को अामरणान्त देव कहना या मनुष्यगति में उत्पन्न हुए जीव को अामरणान्त मनुष्य कहना।
(५) शब्दनय-जो कर्ता आदि कारकों के व्यवहार को सिद्ध करने वाला हो, या लिङ्ग आदि के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला हो, उसे 'शब्दनय' कहते हैं। जैसे-किसी भी वस्तुपदार्थ को भिन्न-भिन्न लिङ्ग वाले शब्दों के द्वारा निरूपण करना। इस तरह यहाँ नैगमादि नयों के सामान्य से पाँच भेद कहे हैं ॥३४।।
आद्यशब्दौ द्वि-त्रि-भेदौ ॥ ३५ ॥
ॐ सुबोधिका टीका ॐ आद्यस्य नैगमनयस्य द्वौ भेदौ स्तः । देशपरिक्षेपी सर्वपरिक्षेपी च। एवं शब्दनयस्य त्रयो भेदाः भवन्ति । यथा-साम्प्रतः, समभिरूढः, एवम्भूतश्चेति । उपर्युक्तनैगमादिसप्तनयानां लक्षणादिकं अनया रीत्या दर्श्यते । तद्यथा-देशे शास्त्रे वा प्रचलितस्य शब्दस्य, अर्थस्य, शब्दार्थस्य वा परिज्ञानं नयः स नैगममयः देशग्राही सर्वग्राही च । अर्थानां सर्वदेशे अथवा एकदेशे संग्रहः सः संग्रहनयः। लौकिकरूपेण औपचारिकरूपेण विस्तारार्थस्य बोधको व्यवहारनयो भवति । विद्यमानस्य अर्थस्य कथनं ज्ञानं वा ऋजसत्रनयो भवति । यथार्थवस्तूनां कथनं स शब्दनयो भवति । शब्देन योऽर्थस्य प्रत्यज्ञानं तद् साम्प्रतं शब्दनयः तथा विद्यमाने अर्थे यः तस्य असंक्रमः स समभिरूढनयः। व्यञ्जने अर्थे च प्रवृत्तः एवंभूतनयो भवति ।।
प्रत्येके वस्तूनि अनन्ता धर्माः तिष्ठन्ति । तेषु अभीष्टधर्मस्य ग्राहकः तदतिरिक्तधर्माणां अनपलापकः यः ज्ञातुरध्यवसायविशेषः स नयः कथ्यते । स नयः प्रमाणस्य अंशभूतो भवति । तेन प्रमाणस्य नयस्य च परस्परं भेदस्तिष्ठति । यथा-समुद्रस्यैकदेशः समुद्रो न, असमुद्रोऽपि न । तथैव नयः प्रमाणं न, प्रमाणाद् भिन्नोऽपि न, किन्तु प्रमाणस्यैकदेशः कथ्यते । तस्य नयस्य द्रव्याथिक-पर्यायार्थिक इति द्वौ भेदौ स्तः । द्रव्यमात्रस्य बोधको नयः द्रव्याथिकनयः कथ्यते। तेषु नैगमस्य संग्रहस्य व्यवहारस्य च नयस्य समावेशो बोधव्यः । तथा यः पर्यायमात्रस्य ग्रहणं करोति सः पर्यायाथिकनयः कथ्यते । तेषु ऋजुसूत्रस्य साम्प्रतस्य (शब्दस्य) समभिरूढस्य एवंभूतस्येति चतुर्णां नयानां समावेशो भवति ।
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७४ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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११३५
सामान्यस्य तथा विशेषादेरनेकधर्मस्य पृथग्-पृथग् ग्रहणकर्ता नयः नैगमनयः कथ्यते । सर्वपरिक्षेपी नैगमनयः सामान्यग्राही, तथा देशपरिक्षेपी नैगमनयः विशेषग्राही कथ्यते । सामान्यमात्रस्य ग्रहणकर्ता नयः संग्रहनयो भवति । तस्य द्वौ भेदौ स्तः, परसंग्रहः अपरसंग्रहश्चेति । समस्तविशेषधर्मात् उदासीनो भूत्वा सत्तारूपसामान्यस्यैव बोधकः परसंग्रहः कथ्यते। तथा यो द्रव्यत्वाद्यवान्तर-सामान्यस्य ग्रहणकर्ता सः अपरसंग्रहः कथ्यते । संग्रहननेन विषयीभूतस्य ज्ञातपदार्थस्य विधानं कृत्वा तस्यैव विभागकारकः योऽध्यवसायविशेषः स व्यवहारनयः । यथा सत् तद् द्रव्यं पर्यायस्वरूपं वा। यथा-द्रव्यस्य षड्भेदाः भवन्ति । द्वौ (शब्दाौँ ) च पर्यायौ भवतः ।
ऋजुः अर्थात् वर्तमानक्षणे स्थितं पर्यायमात्र विशेषरूपेण गृह्णाति यः स ऋजुसूत्रनयः। यथा-'साम्प्रतं सुखमस्ति' इति । अत्र ऋजुसूत्रनयः सुखरूपवर्तमानमेव पर्यायमात्रं गृह्णाति ।
काल-कारक-लिङ्ग-कालादीनां संख्यायाः तथोपसर्गस्य भेदेन शब्दस्य भिन्नार्थस्वीकृतिकर्ता शब्दनयः कथ्यते । यथा-मेरुपर्वतः आसीत्, अस्ति, भविष्यति च । अत्र शब्दनयोऽतीत-वर्तमान-भविष्यकालभेदेन मेरुपर्वतमपि भिन्नं मन्यते ।
पर्यायशब्देषु व्युत्पत्तिभेदेन भिन्नार्थग्रहणकर्ता नयः समभिरूढ़ः नयः कथ्यते । शब्दनयः पर्यायस्य भेदेऽपि अर्थस्याभिन्नतां मन्यते, किन्तु समभिरूढनयः पर्यायस्य भेदे भिन्नार्थं स्वीकरोति । यथा-समृद्धिमत्वेन इन्द्रः कथ्यते, पुरस्य विदारकत्वेन पुरन्दरः कथ्यते।
शब्दानां प्रवृत्तेः कारणस्वरूपं क्रियासहितं अर्थं वाच्यरूपेण स्वीकुर्वन् नयः एवंभूतनयोः भवित । यथा-जलधारणादिचेष्टासहित एव घटो घटो भवति । किन्तु जलधारणादि-चेष्टारहित दशायां घटं घटं न मन्यते ।
येषु प्रथमतश्चत्वारः अर्थाणां प्रतिपादनपराः, तेन एते प्रथमे चत्वारः अर्थनयाः कथ्यन्ते। किन्तु परेषां त्रयाणां नयानां मुख्यरीत्या शब्द-वाच्यार्थविषयत्वेन ते शब्दनयाः कथ्यन्ते।
अन्यप्रकारेणापि नयानां भेदः प्रदर्शितोऽस्ति । यथा विशेपग्राहिणो ये नयाः भवन्ति ते अर्पितनयाः कथ्यन्ते। ये च नयाः सामान्यग्राहिणो भवन्ति ते अनपितनयाः कथ्यन्ते । पुनश्च लोकप्रसिद्धानामर्थानां ग्राहको नयः व्यवहारनयः। तथा तात्त्विका
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प्रथमोऽध्यायः
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नामर्थानां स्वीकारकर्ता नयः निश्चयनयः बोधव्यः । यथा-व्यवहारनयः भ्रमरस्य पञ्चवर्णत्वेऽपि श्यामो भ्रमरः इति कथयति । तथा तं निश्चयनयः पञ्चवर्णकं भ्रमरं मन्यते । ज्ञानं मोक्षसाधनं इति मन्यमानो नयः ज्ञाननयः। तथा क्रिया एव मोक्षसाधिका इति मन्यमानः क्रियानयः ।
अथ प्रसङ्गात् 'नयाभास' स्वरूपं वर्ण्यते
अनन्तधर्मात्मकेषु वस्तुषु अभिप्रेतं धर्म स्वीकरोति तथा तद् विपरीतं धर्म तिरस्करोति यः स नयाभासः -कथ्यते । अतः द्रव्यमात्रस्य ग्रहणकर्ता पर्यायस्य तिरस्कर्ता नयः द्रव्याथिकनयाभासः, तथा पर्यायमात्रस्य ग्राहकः तदतिरिक्तद्रव्यस्य तिरस्कर्ता नयः पर्यायाथिकनयाभासो बोधव्यः । धर्मिणो धर्मस्य च एकान्तभेदं मन्यमानः नैगमाभासः भवति । यथा-नैयायिकदर्शने वैशेषिकदर्शने च । सत्तारूपमहासामान्यं मन्यमानः तथा समस्तविशेष खण्डयितु प्रवृत्तः संग्रहाभासो भवति । यथा-अद्वतवाददर्शने सांख्यदर्शने च अपारमार्थिकस्यापि द्रव्यपर्यायस्य विभागकरणं व्यवहाराभासो भवति ।
एवं चार्वाकदर्शने जीवस्य तथा तद्रव्यपर्यायादेश्च चतुर्व्यः भूतेभ्यः पार्थक्यं नास्ति, केवलं भूतस्यैव सत्ता स्वीकरोति । वर्तमानपर्यायस्य स्वीकर्ता तथा सर्वथा द्रव्यस्यापलापकर्ता ऋजुसूत्राभासो भवति, यथा बौद्धदर्शनम् ।
___ कालादिभेदेन वाच्यस्यैव (अर्थस्यैव) भेदं मन्यमानः शब्दाभासो भवति । यथामेरुपर्वतोऽभूत्, अस्ति, भविष्यतीति शब्दः भिन्नमेवार्थं कथयति । पर्यायशब्दानां भिन्नभिन्नार्थस्य स्वीकरणं समभिरूढाभासः कथ्यते । यथा-इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः आदि-शब्दः भिन्नभिन्नमेव स्वार्थं दर्शयति, इत्थं यत्र मान्यताऽस्ति सः समभिरूढ़ाभासः कथ्यते ।
क्रियारहितवस्तूनां वाच्यं (अर्थः) न भवति, इत्येवं मन्यमानः एवंभूताभासो नयः । यथा-चेष्टारहितो घट: घटशब्दः बोध्यो न भवति ।
सारांश:(१) सामान्य-विशेषयोर्बोधकः नैगमनयः । (२) सामान्यस्य बोधकः संग्रहनयः । (३) विशेषस्य बोधकः व्यवहारनयः । (४) केवलं वर्तमानकालस्य बोधकः ऋजुसूत्रनयः ।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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(५) शब्दस्य बोधकः शब्दनयः । (६) अर्थस्य बोधकः समभिरूढः । (७) शब्दस्य अर्थस्य च बोधकः एवंभूतनयः ।
* सूत्रार्थ-प्रथम (नैगम) नय के दो भेद हैं-एक देशपरिक्षेपी और दूसरा सर्वपरिक्षेपी। तथा शब्दनय के तीन भेद हैं-साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवम्भूत ।। ३५ ॥
ॐ विवेचन नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजूसूत्र और शब्द ये पाँच नय हैं। नैगम और शब्दनय के यथाक्रम दो और तोन भेद हैं। यहाँ नयों के पाँच भेद सामान्य से प्रतिपादित किये गये हैं। किन्तु इसमें और भी विशेषता यह है कि नैगम के देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी दो भेद कहे हैं तथा शब्द नय साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवम्भूत तीन भेद कहे हैं ।
प्रश्न-पूर्व सूत्र में और इस सूत्र में नयों के जितने भेद प्रतिपादित किये गये हैं, उनके लक्षण क्या-क्या हैं ?
उत्तर-निगम नाम जनपद-देशका कहा जाता है। उसमें जो शब्द जिस अर्थ के लिए नियत है, वहाँ उस अर्थ के और शब्द के सम्बन्ध को जानने का नाम नैगमनय है। इस शब्द का यह अर्थ है तथा इस अर्थ के लिये इस शब्द का प्रयोग करना; इस प्रकार के वाच्य और वाचक सम्बन्ध के ज्ञान को नैगमनय कहते हैं।
(१) नैगमनय-गम यानी दृष्टि-ज्ञान। जिसकी अनेक दृष्टियाँ हैं वह नैगम । अर्थात् नैगमनय की अनेक दृष्टियां हैं। इस नैगमनय की दृष्टि से व्यवहार में होती हुई लोकरूढ़ि है । इस नय के मुख्य तीन भेद हैं जिनके नाम (१) संकल्प, (२) अंश और (३) उपचार हैं ।
(१) संकल्प-संकल्प को सिद्ध करने के लिए जो कोई भी अन्य प्रवृत्ति करने में आती है, उसे भी संकल्प की ही प्रवृत्ति कही जाती है। जैसे कि-जैनधर्मी श्रीमान् जिनदास ने वि. सं. २०४७ की पौष सुद छठ दिन के शुभ प्रसंग पर तीर्थाधिराज श्री शत्रुञ्जय-सिद्धगिरिजो महातीर्थ की यात्रा पर जाने का संकल्प-निर्णय किया। साथ में ले जाने के लिए भाता तथा वस्त्र वगैरह की सामग्री तैयार कर अपनी मंजूषा-पेटी में भरने लगा। उसी समय वहाँ पर बाहर से आये हुए सार्मिक बन्धु श्रीमान् धर्मदास ने पूछा “भाई ! आप कहाँ जाते हो?"
जिनदास ने कहा-"मैं पालीताणा-श्रीशत्रुञ्जय महातीर्थ की यात्रा करने के लिये जाता हूँ।" यहाँ पालीताणा जाने की और श्री शत्रुञ्जय महातीर्थ की यात्रा करने की क्रिया तो भविष्य में होने वाली है, वर्तमानकाल में तो मात्र उसकी तैयारी हो रही है। वर्तमान में पालीताणा तरफ गमन न होते हुए भी वर्तमानकालीन प्रश्न और उत्तर दोनों संकल्प रूप नैगमनय की दृष्टि से सत्य हैंसच्चे हैं। कारण कि व्यक्ति ने जब से जाने का संकल्प किया तब से वह संकल्प जहाँ तक पूर्ण न हो
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प्रथमोऽध्यायः
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जाय वहाँ तक उस कार्य की सर्व क्रियाएँ संकल्प की ही कही जाती हैं। इसलिये श्री पालीताणा जाने की तैयारी भी श्री पालीतारणा गमन की क्रिया है। ऐसा नैगमनय कह रहा है।
(२) अंश-यानी भाग। अंश का-भाग का पूर्णता में उपचार । जैसे कि कोई व्यक्ति अपने घर-मुकाम की दीवार आदि का कोई एक अंश-भाग गिर जाने पर बोलता है कि 'मेरा मुकाम गिर पड़ा' इत्यादि। इस तरह अन्य में भी घटित करना। यह सर्व व्यवहार अंश-भाग नैगमनय की दृष्टि से चलता है।
(३) उपचार-विश्व में कारण का कार्य में उपचार होता है। भूतकाल का वर्तमानकाल में तथा भविष्यत्काल का भी वर्तमानकाल में उपचार होता है, इत्यादि । जैसे-जब अपना जन्मदिन आता है, तो कहते हैं कि 'पाज मेरा जन्मदिन है'। अर्थात् भूतकाल का वर्तमानकाल में आरोप करके इस तरह बोला जाता है। ऐसे अन्य वस्तुओं में घटित करना। जगत् में प्रचलित अनेक प्रकार की लोक-व्यवहार की रूढ़ि इस नैगमनय की दृष्टि से चलती है।
अब अन्य प्रकार से भी नैगमनय का विचारविमर्श निम्नलिखित रूप से है
नैगमनय के दो प्रकार यानी दो भेद हैं। एक सर्वपरिक्षेपी (समग्रग्राही) नैगमनय और दूसरा देशपरिक्षेपी (देशग्राही) नैगमनय । सर्वपरिक्षेपी को सामान्यग्राही तथा देशपरिक्षेपी को विशेषग्राही कहते हैं। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ सामान्य और विशेष उभयस्वरूप में है। जो वस्तु-पदार्थ के सामान्य अंश का अवलम्बन लेकर प्रवृत्त होता है, उसको सर्वपरिक्षेपी (समग्रग्राही) सामान्य नैगमनय कहते हैं। जैसे कि-(१) सोने का, चांदी का, पीतल का, लोहे का, मिट्टी का, अथवा लाल, पीला, काला, श्वेत इत्यादि का भेद न करके केवल घटमात्र को ग्रहण करना। यह सामान्य नैगमनय है। (२) जो वस्तु-पदार्थ के विशेष अंश का पाश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, उसे देशपरिक्षेपी (देशग्राही) विशेष नैगमनय कहते हैं। जैसे कि-घट को सोने का या चांदी का या पीतल का या मिट्टी का इत्यादि विशेषरूप से ग्रहण करना । यह विशेष नैगमनय है। अर्थात-गमनय के सामान्य ग्राही और विशेषग्राही दो भेद जानना। प्रत्येक वस्तू अपेक्षाभेद से सामान्य और विशेष दोनों रूपों में है। कारण कि नैगमनय सामान्य और विशेष उभय को ग्रहण करता है। नैगमनय का विषयक्षेत्र सब से विस्तीर्ण है। इसलिये वह सामान्य तथा विशेष दोनों को लोकरूढ़ि के अनुसार कभी मुख्य भाव से और कभी गौरण भाव से ग्रहण करता है।
(२) संग्रहनय-विवक्षित वस्तु-पदार्थ में भेद न करके उसको किसी भी सामान्य गुणधर्म की अपेक्षा अभेदरूप से ग्रहण करना, उसे संग्रहनय कहते हैं। अर्थात संग्रहनय वस्तु-पदार्थ को सामान्य
पा ही ग्रहण करने वाला है। पदार्थों के सर्वदेश तथा एकदेश दोनों को ग्रहण करता है, इसलिए संग्रहनय कहा जाता है। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ अपेक्षाभेद से सामान्य और विशेष उभयरूप में है। अर्थात् प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में सामान्य अंश तथा विशेष अंश दोनों विद्यमान हैं। यहाँ तो संग्रहनय सामान्य अंश को ग्रहण करता है। क्योंकि वह कहता है कि सामान्य के बिना विशेष नहीं हो सकता। सामान्य के बिना विशेष आकाशकुसुमवत् असत् ही है अर्थात् निरर्थक है। जहाँ-जहाँ विशेष है वहाँवहाँ सामान्य अवश्य है। इसलिए संग्रहनय प्रत्येक वस्त-पदार्थ की पहिचान सामान्य रूप से है। इस नय की दष्टि विशाल होने से यह सर्व विशेष पदार्थों को सामान्य से एकरूप में संग्रह करता
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७८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ११३५ है। जैसे-जड़ और चेतन ये दोनों पदार्थ पृथग्-भिन्न होते हुए भी संग्रहनय जड़-चेतन इन दोनों पदार्थों को एक रूप से संग्रह कर लेता है। सत् रूप में जड़ और चेतन दोनों पदार्थ समान हैं अर्थात एकसे हैं। प्रत्येक जीवात्मा पृथ-कपृथक होते हुए भी संग्रहनय समस्त जीवात्मानों को चैतन्य से एक रूप में ही मानता है। कारण कि प्रत्येक में चैतन्य समान-एक ही है।
विश्व में जितने पदार्थ हैं, उन सब में सत् लक्षण 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्' सामान्य रूप से रहा हुना है। उसी में दृष्टि रखकर और विशेष स्वभाव को प्रोर दृष्टि न देकर विश्व के समस्त वस्तु-पदार्थों को जो एक रूप से समझे वह संग्रहनय है। अर्थात्-संग्रहनय में सभी वस्तुपदार्थों का समावेश होता है। संग्रह की विशालता सामान्यता के अनुसार है, इतना ही नहीं किन्तु विविध वस्तू-पदार्थों के सामान्य तत्त्वों का एकीकरण ही संग्रहनय है। जैसे-कोट, कमीज, पतलून, धोती, साड़ी, बुशशर्ट, ब्लाउज इत्यादि परिधान अनेक प्रकार के होते हुए भी उनकी विशेषता की तरफ दृष्टिपात न करके केवल सामान्य लक्षण को ग्रहण करके सबको वस्त्र-कपड़ा कहना, यह वाक्य संग्रहनयग्राही है अर्थात्-संग्रहनय को ग्रहण करने वाला है । संग्रहनय के सामान्य अंश में अनेक प्रकार की तरतमता रहती है। इसलिए सामान्य अंश जितना विशाल होगा उतना संग्रहनय विशाल तथा सामान्य अंश जितना संक्षिप्त होगा, उतना संग्रहनय संक्षिप्त समझना।
(३) व्यवहारनय-जो नय विशेष तरफ दृष्टि करके प्रत्येक वस्तु को पृथक्-पृथक् यानी भिन्न-भिन्न मानता है, वह व्यवहारनय कहलाता है। अर्थात् - एक रूप से ग्रहण की हुई वस्तु-पदार्थ की विविध विशेषताओं को समझने के लिये या व्यवहार में उनका उपयोग करने के लिये तो उस समय वस्तु-पदार्थ का पृथक्करण करना पड़ता है, उसे ही व्यवहारनय कहा जाता है। यह नय कहता है कि विशेष सामान्य से भिन्न नहीं है, तो भी विशेष बिना व्यवहार नहीं चल सकता। जैसे—गुरु ने शिष्य को या शिक्षक ने विद्यार्थी को कहा कि-'प्राचार्य श्री सुशीलसरि जैन ज्ञानमन्दिर' में से 'पागमशास्त्र' ले प्रायो? इतना कहने से भी लाने वाला व्यक्ति नहीं ला सकेगा। कारण कि, वर्तमानकाल में जैनदर्शन के आचाराङ्ग आदि पैंतालीस प्रागमशास्त्र हैं। उनमें से कौनसा प्रागमसूत्र लाना ? तो कहना पड़ेगा कि 'पंचमाङ्ग श्री भगवती सूत्र' लामो। ऐसा कहने से वह 'पूज्य श्री भगवतीजी सत्र' लायेगा। विशेष को स्वीकारे बिना व्यवहार नहीं चल सकता। इसलिए व्यवहारनय विशेष अंश को मानता है ।
उक्त नेगम, संग्रह और व्यवहार इन तीन नयों में नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकारता है। संग्रहनय केवल सामान्य को स्वीकारता है तथा व्यवहारनय केवल विशेष को स्वीकारता है। उनमें संग्रहनय और व्यवहारनय परस्पर सापेक्ष रूप हैं। इससे एक ही विचार दोनों नयों का होता है। जैसे किसी ने कहा कि-'इस सिरोही नगर में मनुष्य रहते हैं। यह विचार संग्रहनय का और व्यवहारनय का भी है। नगर में तो पंचेन्द्रिय मनुष्यों के उपरान्त तिर्यंच जानवर गाय-भैंस इत्यादि जीव भी रहते हैं। इससे मनुष्य और जानवर दोनों जीव होते हुए भी जीव की दृष्टि से मनुष्य विशेष हैं। इससे जीव को दृष्टि से 'इस नगर में मनुष्य रहते हैं' यह विचार व्यवहारनय की अपेक्षा से है। अब मनुष्यों में भी स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, युवक-युवती एवं वृद्ध-वृद्धा वगैरह होते हैं। मनुष्य के स्त्री और पुरुष इत्यादि विशेष भेदों की अपेक्षा 'इस नगर में मनुष्य रहते ।'हैं यह विचार संग्रहनय का है। इस तरह एक हो विचार संग्रहनय का भी कहलाता
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प्रथमोऽध्यायः
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है और व्यवहारनय का भी कहलाता है। इससे सारांश यह पाता है कि जितने अंश में दृष्टि सामान्य तरफ होती है उतने अंश में संग्रहनय समझना तथा जितने अंश में दृष्टि विशेष तरफ होती है, उतने अंश में व्यवहारनय जानना। व्यवहारनय का विषय संग्रहनय से न्यून है। क्योंकि वह संग्रह गहीत वस्तु-पदार्थ को पृथककरण रूप केवल विशेषग्राही है। इस तरह उत्तरोत्तर संकुचित क्षेत्र होते हुए भी पूर्वापर सम्बन्ध वाला है। नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों का संबोधक है इसलिए इमी से संग्रहनय की उत्पत्ति है, इतना ही नहीं किन्तु संग्रहनय के विषय पर ही व्यवहारनय आलेखित है।
उपर्युक्त कथन के अनुसार नंगमनय लोकरूढ़ि के आधारवर्ती है। लोकरूढ़ि भी संकल्प, अंश, उपचार रूप सामान्य तत्त्वाश्रयी है। इसलिए नैगमनय के भी संकल्प, अंश तथा उपचार रूप तीन भेद होते हैं। दूसरे संग्रहनय एकीकरण रूप व्यापारविषयी होने से सामान्यगामी है। तीसरे व्यवहारनय पृथक्करणोन्मुखी होते हुए भी उसकी क्रिया केवल सामान्य पट पर चित्रित होने से वह सामान्यविषयी है। इसलिए नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों नय द्रव्यार्थिक कहे जाते हैं।
(४) ऋजुसूत्रनय-जो भूत और भविष्यत्काल के विचार को छोड़कर केवल वर्तमान समयग्राही हो, उसे 'ऋजसत्रनय' कहते हैं। अर्थात-जो नय मात्र वस्त-पदार्थ की वर्तमा की तरफ लक्ष्य रखे, वह ऋजुसूत्रनय है। यह नय वस्तु-पदार्थ की वर्तमान पर्याय को ही मान्य रखता है, उसकी अतीत और अनागत पर्याय को नहीं। यद्यपि मनुष्य भूत और भविष्यत्काल के विचार-विमर्श की कल्पना का परित्याग नहीं कर सकता है, तो भी किसी समय केवल वर्तमानग्राही विचार-विमर्शों की तरफ प्रवाहित होकर उपस्थित वस्तु-पदार्थ को ही वस्तु का स्वरूप मानता है। वर्तमानकालीन ऋद्धि-समृद्धि सुख के लिये साधनभूत है। किन्तु भूतकालीन समृद्धि का स्मरण तथा भावी ऋद्धि-समद्धि की कल्पना वर्तमानकाल में सुख का साधन नहीं होती है। इसो भारत वर्तमान काल में जो श्रीमन्ताई ठकूराई-सेठाई भोगता है, उसे ही श्रीमन्त-ठाकूर-सेठ कहा जाता है। ऐसा मन्तव्य ऋजुसूत्रनय का है। जबकि व्यवहारनय का तो मन्तव्य यह है कि-भले ही वर्तमानकाल में श्रीमन्ताई-ठकुराई-सेठाई न भोगता हो तो भी भूतकाल में उसने श्रीमन्ताई-ठकुराई-सेठाई भोगी थी, इस दृष्टि से उसे वर्तमानकाल में भी श्रीमन्त, ठाकूर, सेठ कहते हैं। ऋजुसूत्रनय जो वर्तमानकाल में देश का या राज्य का नेता-मालिक होता है, उसे ही राजा-महाराजा कहता है। जबकि व्यवहारनय भविष्यत्काल में जो देश का या राज्य का नेता-मालिक बनने वाला है, उसे भी राजा-महाराजा कहता है। इसलिए व्यवहारनय की अपेक्षा ऋजुसूत्रनय सूक्ष्म है।
(५) साम्प्रत-शब्दनय-जिस प्रकार पदार्थ का स्वरूप है, उसी प्रकार उसका उच्चारण करने, कर्ता, कर्म प्रादि कारकों की अपेक्षा से और अर्थ के अनुरूप ग्रहण या निरूपण करने को शब्दनय कहा जाता है। जिसमें घट शब्द के अर्थ का संकेत हो, उसको घट कहे, वह शब्दनय है। लोक में शब्द बिना व्यवहार नहीं चल सकता है। शब्दों से होने वाले बोध में शब्दनय की मुख्यता-प्रधानता है। शब्दनय यानी शब्द के आश्रयी होती हुई अर्थविचारणा। शब्दनय लिङ्ग, काल और वचन इत्यादि के भेद से अर्थभेद मानता है। अर्थात्-भिन्न-भिन्न शब्दों का और भिन्नभिन्न लिङ्गों आदि का अर्थ भी भिन्न-भिन्न स्वीकारता है।
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८० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११३५ * लिङ्गभेद-भिन्न-भिन्न लिङ्ग के शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ है। जैसे—नर और नारी इत्यादि।
* कालभेद-भिन्न-भिन्न काल के शब्दों का भी भिन्न-भिन्न अर्थ है। जैसे-था, है और होगा इत्यादि।
* वचनभेद-भिन्न-भिन्न वचन के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। जैसे-मनुष्य और मनुष्यों इत्यादि।
* कारकभेद-कारक के भेद से अर्थ का भेद होता है। जैसे-धर्म, धर्म को, धर्म में इत्यादि।
इस तरह शब्दनय लिङ्ग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है, किन्तु एक ही शब्द के पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थभेद नहीं स्वीकारता है। मनुष्य, मानव, मनुज इत्यादि शब्द भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक ही शब्द के पर्यायवाची शब्द होने से उन सर्व शब्दों का मानव ऐसा एक ही अर्थ रहेगा।
(६) समभिरूढनय-शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर उस अर्थभेद की जो कल्पना करे वही समभिरूढ़नय कहा जाता है। यह नय एक ही पर्यायवाची वस्तु-पदार्थ का शब्दभेद से अर्थभेद स्वीकारता है। शब्दनय समान पर्यायवाची शब्दों का अर्थ एक ही मानता है, किन्तु यह समभिरूढ़नय शब्दभेद से अर्थभेद मानता है। उसका कहना यह है कि जो लिङ्ग, काल, वचन) और कारक इन भेदों से अर्थ का भेद मानने में आ जाय तो व्युत्पत्तिभेद से भी अर्थ का भेद मानना चाहिए। प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न होती है। इसलिए प्रत्येक शब्द का अर्थ भी भिन्न-भिन्न होता है। जो राजा-महाराजा, नृप-नृपति एवं भूप-भूपति इत्यादि प्रत्येक शब्द का अर्थ भी भिन्न-भिन्न है। जैसे-(१) जो राजचिह्नों से शोभता है, वह 'राजा-महाराजा' है। (२) जो प्रजा-मानव का रक्षण करता है, वह 'नृप-नृपति' है। (३) जो पृथ्वी का पालन करता है वह 'भूप-भूपति' है।
___ शब्दनय और समभिरूढ़नय इन दोनों नयों में विशेषता-भिन्नता के लिए यह प्रश्न है कि क्या शब्दनय शब्दभेद से अर्थभेद को नहीं स्वीकारता है ? उत्तर में कहते हैं कि-शब्दनय शब्दभेद से अर्थभेद को स्वीकारता भी है और नहीं भी स्वीकारता है। शब्दनय समान पर्यायवाची शब्दों के बिना इतर शब्दों में शब्दभेद से अर्थभेद मानता है। जैसे–इन्द्र, सूर्य और चन्द्र इत्यादि शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। ऐसा होते हुए भी पर्यायवाची शब्दों में शब्दभेद से शब्दनय अर्थभेद को नहीं मानता है। ऐसी स्थिति में समभिरूढ़नय तो समान पर्यायवाची शब्दों में भी शब्दभेद से अर्थभेद मानता है। शब्दनय में और समभिरूढ़नय में इतनी ही विशेषता-भिन्नता है।
(७) एवंभूतनय-जो शब्द फलितार्थ अर्थात् परिपूर्ण अवस्था को प्राप्त हो, उसे 'एवंभूतनय' कहा जाता है। अर्थात्-जो नय वस्तु-पदार्थ में जब शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ घटता हो तब ही उस शब्द से उस वस्तु को सम्बोधे, वह एवंभूतनय है। जैसे-राजा-महाराजा राजचिह्नों से समलङ्कृत-सुशोभित होवे, तब ही वह राजा-महाराजा कहलाता है। इस तरह यह एवंभूतनय क्रियाभेद से अर्थात व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ के भेद से अर्थभेद मानता है।
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१।३५ ]
प्रथमोऽध्यायः
[ ८१
सारांश यह है कि शब्द का जो अर्थ होता है, उस अर्थ में उस शब्द की व्युत्पत्ति से जो क्रिया उत्पन्न हो, वह क्रिया जब हो रही हो तब ही उस अर्थ के लिए उस शब्द का प्रयोग करना चाहिए, ऐसी एवंभूत नय की मान्यता है । अर्थात् – जो शब्द पूर्ण प्रयोगावस्था रूप हो, वही एवंभूत
ग्राही है ।
पूर्वोक्त ऋजुसूत्रादि चारों प्रकार के कथन में पूर्वापर जो विशेषता है, उसमें भी पूर्ववर्ती नय से उत्तर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतम विषय हैं और उत्तरोत्तर नय के आधार पूर्वपर्यायार्थिक हैं । इसलिये ऋजुसूत्रनय से पर्यायार्थिकनय का प्रारम्भ तत् तत् नय के विषय पर रहा हुआ है ।
इन ऋजुसूत्रादि चारों नयों को पर्यायार्थिकनय कहते हैं । इनको पर्यायार्थिकनय कहने का कारण यह है कि - ऋजुसूत्रनय भूतकाल और भविष्यत्काल को छोड़कर केवल वर्तमानकालग्राही है। ऋजुसूत्रनय के पश्चात् शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवंभूतनय ये तीनों नय उत्तरोत्तर विशेषगामी होने से पर्यायार्थिक ही हैं । द्रव्यार्थिकनय का और पर्यायार्थिकनय का मुख्य हेतु यही है। कि प्रथम के नैगमादि तीन नय स्थूल रूप से सामान्यतत्त्वग्राही हैं और उत्तर के ऋजुसूत्रादि चार नय विशेष तत्त्वग्राही हैं
Pu
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८२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ सारांश
andhanAmandamadamadamdamdandramdamdamdamdamdadimal
Mahasamas AssisasANNAadarasis - श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य प्रथमाध्यायस्य सारांशः यथा स्वजातौ यदुत्कृष्टं, रत्नं .. भवति सर्वदा । तथैव मोक्षमार्गस्य, एते आत्मगुणाः स्मृताः ॥ १॥ विज्ञाय एकार्थ परेषु भेदाः, निरुक्तिसिद्धार्थ-पदान्यपि च ।। नामादिभिस्तत्त्वपरीक्ष्य जीवाः, नयैः परीक्षां सततं विधेयुः ॥ २॥ तत्त्वार्थाधिगमाध्याये, प्रथमे नयवर्णनम् ।। नैगमादि - विभागैश्च, पञ्चभेदैः विवक्षितम् ॥ ३ ॥ सापेक्षदृष्टया वस्तूनां, विमर्शः नय उच्यते । एकापेक्षामधिकृत्य, अन्यच्छेदेति दुर्नयः ॥ ४ ।। नयादिमास्त्रयस्तु हि, सम्यग्-मिथ्यां श्रयन्ति च ।। किन्तु सम्यग्दृष्टीनां, सम्यग्ज्ञानं प्रकीर्त्यते ॥ ५ ॥ ऋजुसूत्रनयाश्रयी अभूत् , षट्ज्ञान - परिपेक्षया सदा । श्रयितं श्रुतज्ञानमाश्नयं, किमपेक्षा मतिज्ञान - सेवने ।। ६ ।। न कोऽप्यज्ञनया दृष्ट्या, ज्ञभावमधिगम्यते । मिथ्यादृष्टि तथा ज्ञाने, नश्नयते नयः क्वचित् ॥ ७ ।। इत्यनेकाः नयार्थाः हि, विशुद्धापि विरोधीव । लौकिकविषयातीताः, तत्त्वज्ञानेन चिन्तिताः ॥ ८ ॥
Aadatdhamaidaandaadhamaashaadhaanadaabhaalaabhaashaadaadimaal
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प्रशस्ति ]
प्रथमोऽध्यायः
[ ८३
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इति श्रीशासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति-भारतीयभव्यविभूति-महाप्रभावशालि-अखण्डब्रह्मतेजोमूर्ति-श्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक - श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपतिप्रतिबोधक - चिरन्तनयुगप्रधानकल्पवचनसिद्धमहापुरुष - सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-प्रातःस्मरणीय-परमोपकारि-परमपूज्याचार्य महाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालङ्कार-साहित्यसम्राटव्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद - कविरत्न-साधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक - परमशासनप्रभावक - बालब्रह्मचारि - परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर-धर्मप्रभावक-शास्त्रविशारद-कविदिवाकर - व्याकरणरत्न- स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेकग्रन्थकारक-बालब्रह्मचारि-परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वराणां सुप्रसिद्धपट्टधर-जैनधर्मदिवाकरतीर्थप्रभावक-राजस्थानदीपक - मरुधरदेशोद्धारक - शास्त्रविशारद - साहित्यरत्नकविभूषण-बालब्रह्मचारि - श्रीमद्विजयसुशीलसूरिणा श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य प्रथमोऽध्यायस्योपरि विरचिता 'सुबोधिका टीका' एवं तस्य सरल हिन्दी भाषायां 'विवेचनामृतम्'।
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तत्त्वार्थाधिगमसूत्र
प्रथम अध्याय
का
हिन्दी पद्यानुवाद
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ॐ ह्री अहं नमः ॥
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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के प्रथमाध्याय का हिन्दी पद्यानुवाद
मूलसूत्रकार-पूर्वधर महर्षि पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी महाराज
卐 हिन्दीपद्यानुवादक-शास्त्रविशारद - साहित्यरत्न - कविभूषण - पूज्याचार्य
श्रीमद् विजय सुशीलसूरीश्वरजी महाराज
* मंगलाचरण *
(हरिगीत-छन्द) श्री आदि-शान्ति-नेमि-पार्श्व, विभु वीर वन्दन करके । जिनवाणी सूरिनेमि-लावण्य, दक्ष सुगुरु स्मरके । पूर्वधर वाचक उमास्वाति, रचित तत्त्वार्थसूत्र का। हिन्दीपद्यानुवाद करता, सुशील सूरि जग हित का ॥ १ ॥
' प्रथमोऽध्यायः । 卐 मूलसूत्रम्
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥
* हिन्दीपद्यानुवाद
मुक्ति मन्दिर के लिए ए, सन्मार्ग विभु वीर ने कहा । श्रवण करके भव्य जीव ने, निज हृदयमहीं सद्ह्या ।। सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र, विवेकयुक्त प्रादरे । शिथिल कर निज कर्मबन्धन, मोक्षमार्गमही संचरे ।। २ ॥
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ॐ मूलसूत्रम्
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥
तन्निसर्गादधिगमाद् वा ॥३॥ * हिन्दीपद्यानुवाद
तत्त्वभूत पदार्थ की जो, शुभ रुचि हृदय में विस्तरे । तब शुद्धदर्शन प्रगटतां ए, भविक भवसिन्धु से तरे ।। सम्यग् - दर्शन प्राप्ति के, दो हेतु सूत्रमही कहा ।
निसर्ग या अधिगम गुरु का, जिसे जीव सुदर्शन लहा ।। ३ ।। ॐ मूलसूत्रम्
__ जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४ ॥ * हिन्दीपद्यानुवाद
जीव और अजीव ये दो, ज्ञेय तत्त्वरूपे जानना । आस्रव तथा बन्ध ये दो, हेय तत्त्वरूपे त्यागना ।। संवर-निर्जरा-मोक्ष ये, तीन उपादेय तत्त्व हैं।
ग्रही योग्य इन तीनमांहि, श्रद्धा सदादरणीय है ।। ४ ।। 卐 मूलसूत्रम्
नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः ।।५।। * हिन्दीपद्यानुवाद
नाम स्थापना द्रव्य भावे, तत्त्व सप्त विचारिये । निक्षेपादि चार थकी ए, सर्व भाव से भाविये ।। द्रव्य से नहिं द्रव्य जीव, किन्तु वह है उपचार से ।
गुरुगम्यता से जानिये, उस ज्ञान को अति स्नेह से ।। ५ ।। ॐ मूलसूत्रम्
प्रमाणनयैरधिगमः ।। ६॥ * हिन्दीपद्यानुवाद
जीवादि सातों तत्त्व को, प्रमाण नय से जानिये । ज्ञान उसका हो विशद पर, वस्तुतत्त्व विचारिये ।। अनन्तधर्मात्मक वस्तु को अनेक भेद से जो ग्रहे । कहते उसे प्रमाण और, नय एक भेद को सद्दहे ॥ ६ ॥
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के मूलसूत्रम्
निर्देश-स्वामित्व-साधना-धिकरण-स्थिति-विधानतः ॥७॥ सत्-संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८ ॥
* हिन्दीपद्यानुवाद
निर्देश स्वामित्व, साधन, ये तीन क्रम से जानिये । अधिकरण चौथा स्थिति पंचम, विधान छट्ठा मानिये ॥ सत्पदप्ररूपणा सप्तम, संख्या अष्टम जानना । क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर, भाव क्रमशः मानना ।। ७ ।। अल्प-बहुत्व चौदहवाँ है, ज्ञान सम्यग् जानिये । प्रमाण और नय के सभी, ये भेद सम्यग् मानिये ॥ इन सभी के ज्ञान द्वारा, सत्य अन्वेषण करें। ऋजुभाव से फिर जीव ये, भवसिन्धु तरे मुक्ति वरे ।। ८ ॥
卐 मूलसूत्रम्
मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्याय-केवलानि ज्ञानम् ॥ ६ ॥
तत् प्रमाणे ॥१०॥ आद्ये परोक्षम् ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षमन्यद् ॥ १२॥
* हिन्दीपद्यानुवाद
मतिज्ञान पहला श्रुत दूसरा, अवधि तीसरा कहा । चौथा मनःपर्यव तथा, कहा पाँचवाँ केवल मही । ज्ञान ये ही प्रमाण के, परोक्ष-प्रत्यक्ष भेद हैं। मति-श्रुत में परोक्ष है, शेष तीनों में प्रत्यक्ष है ।। ६ ।।
ॐ मूलसूत्रम्
मतिः स्मृतिः संज्ञा-चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥ १३ ॥
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* हिन्दीपद्यानुवाद
मति स्मृति संज्ञा चिन्ता, अभिनिबोधक यहाँ ही कहे । पर्याय ये मति शब्द के, नन्दीसूत्रादि में ग्रहे ।। शब्द से अन्तर भले हो, पर अर्थ में अन्तर नहीं। स्वीकृत करें जो वर्तमान, है वहीं मतिज्ञान ही ॥ १० ॥
卐 मूलसूत्रम्
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥
अवग्रहहापायधारणाः ॥ १५ ॥
* हिन्दीपद्यानुवाद
मतिज्ञान की उत्पत्ति के, दो ही कारण को कहा। प्रथम इन्द्रियहेतु को और, द्वितीय मन को ही कहा ।। अवग्रह-ईहा-अपाय-धारणा भेद ये चार हैं। निर्मल करें जो बुद्धि को, मतिज्ञान के ये भेद हैं ॥ ११ ॥
卐 मूलसूत्रम् ____ बहु-बहुविध-क्षिप्रा-निःसृता (संदिग्ध)-नुक्तध्र वाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥
* हिन्दीपद्यानुवाद
अल्प बहु बहुविध एकविध, क्षिप्र और अक्षिप्र हैं । अनिःसृत निःसृत तथा, संशययुक्त और वियुक्त हैं ।। ध्र व और अध्र व ग्राही, इम द्वादश ये भेद को। छ से गुणी, गुणो चार से, मान दो सौ अट्ठासी को ॥ १२ ॥
卐 मूलसूत्रम्
अर्थस्य ॥ १७ ॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥१८॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १६॥
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* हिन्दीपद्यानुवाद
भेद ये सब अर्थना के, व्यञ्जना के भी और हैं। चक्षु मन इन दो बिना ये, चार इन्द्रिय अवग्रह है ।। बहु इत्यादि द्वादश से, तुरीय इन्द्रिय गुणन से ।
अष्ट चत्वारिंशत् भेद हुए, व्यंजन-अवग्रह के ।। १३ ॥ विशेष
स्वभाव - जन्योत्पातिकी, कार्मिकी पारिणामिकी । वैनेयिकी परिणाम जन्या, चार बुद्धि मति संग्रही । शतत्रयोपरि चत्वारिंशत्, भेद सारे हैं कहें ।
पूर्वोक्त चारों भेद नन्दी-सूत्र में मति में गिने । १४ ।। ॐ मूलसूत्रम्
श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ * हिन्दीपद्यानुवाद
श्रुतज्ञान है मतिपूर्वक, दो भेद से ये जानना । अंगबाह्य अंगप्रविष्ट, दो भेद से ये मानना ।। अंगबाह्य के अनेक भेद, अंगप्रविष्ट के द्वादश हैं। आचारादि अंगप्रविष्ट, बाह्य उत्तराध्ययनादि हैं ।। १५ ।।
卐 मूलसूत्रम्
द्विविधोऽवधिः ॥२१॥ 'भवप्रत्ययो नारकदेवानां ॥ २२ ।।
यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ १-२३ ॥ * हिन्दीपद्यानुवाद
दो भेद अवधिज्ञान के, भवप्रत्यय गुणप्रत्यय । जो देव-नारक जीव को हो, होता है भवप्रत्यय ॥ क्षयोपशम से नर-तिर्यग् को, होता है गुणप्रत्यय । गुणप्रत्ययावधिज्ञान के, षट्भेद होते निश्चय ।। १६ ।।
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5 मूलसूत्रम्
* हिन्दी पद्यानुवाद
5 मूलसूत्रम्
मूलसूत्रम्
ऋजु
विपुलमति मनः पर्यायः ॥ २४ ॥ विशुद्धयप्रतिपाताभ्याम् तद्विशेषः ।। २५ ।।
तुरिय मनःपर्याय के दो भेद ऋजुमति - विपुलमति । विपुलमति में विशुद्धता, विकसित कभी घटती नहीं । पर ऋजुमति में कम विशुद्धि, अलोप को भी मान के । इन दो गुणों से युक्त दो हैं, भेद चतुर्थ सुज्ञान के ।। १७ ।।
( ६ )
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* हिन्दी पद्यानुवाद
विशुद्धि क्षेत्र स्वामि विषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः ।। २६ ।। * हिन्दी पद्यानुवाद
विशेषता है चार चौथे, और तीसरे ज्ञान में । शुद्धतर है अवधिज्ञान से, मनः अल्प शुद्धि अवधि में | क्षेत्र नाना से लगाकर, जाने ये पूर्णलोक को । ज्ञान तीसरा और चौथा, अढीद्वीपवर्ती चित्त को ।। १८ ।। चारों गति के जीव को, शुभभाव से अवधि मिले । ज्ञान चौथा मनः पर्यव, मात्र संयमी मुनि को मिले ।। सपर्याय सर्वरूपी द्रव्य को, जाने अवधिज्ञान से । ग्रहे तदनन्तमा भाग को, मनः पर्यवज्ञान से ।। १२ ।
मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ।। २७ ।। रूपिष्ववधेः ॥ २८ ॥
तदनन्तभागे मनः पर्यायस्य ॥ २६ ॥
जाने मति श्रुत सर्वद्रव्य, तद् परिमित पर्याय भो । तथा अवधि रूपी पदार्थ को, सीमित पर्याय द्वारा ही ॥
रूपी में गति अवधि की, पर्याय की भी अल्पता । उसके अनन्त भाग में है, मनः पर्यव ग्राह्यता ।। २० ॥
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卐 मूलसूत्रम्
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥ ३० ॥ * हिन्दीपद्यानुवाद
द्रव्य और पर्याय सारे, जानते हैं त्रिकाल के। रुकता नहीं है जो किसी से, मिटता नहीं जो प्राय के ।। ज्ञान पंचम वो कहा है, सर्वज्ञदेव जिनेश्वरे । प्राप्त कर उस ज्ञान को, कर्माष्ट क्षय कर शिववरे ।। २१ ।।
卐 मूलसूत्रम्
____ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः ॥ ३१ ॥ * हिन्दीपद्यानुवाद
मति श्रुत और अवधि मनः,-पर्याय चौथा ज्ञान भी। प्राप्त कर सकता है प्राणी, एक ही समये सभी ।। ये ज्ञान पाँचों एक ही क्षण, जीव पा सकता नहीं । पर तत्त्ववेदी तत्त्व की, अनुभूति पाता है सही ।। २२ ।।
卐 मूलसूत्रम्
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३२ ॥ सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् ॥ ३३ ॥
* हिन्दीपद्यानुवाद
मति-श्रुत-अवधिज्ञान ये, अज्ञानरूप भी होते हैं । कहते मति-श्रुत अज्ञान, अवधि विभंग ज्ञान से ।। सत् असत् का भेद जिसको, है नहीं अविनय करे । उन्मत्त के सम जो क्रिया कर, मूढ़ता को संवरे ।। २३ ।।
5 मूलसूत्रम्
नेगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्रशब्दानयाः ॥ ३४ ॥ आद्यशब्दौ द्वि-त्रि-भेदौ ॥ ३५ ॥
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* हिन्दीपद्यानुवाद
अन्यदृष्टि की अपेक्षा का, विरोधी जो है नहीं। ज्ञान नय है प्रति अपेक्षी, भेद सब है पाँच ही ।। नैगम तथा संग्रह तदन्तर, व्यवहार ऋजुसूत्र है। शब्द तीनों भेद युत, दो भेद युत नैगम भी है ।। २४ ।।
॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के प्रथमाध्याय का
हिन्दीपद्यानुवाद समाप्त ॥
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ॐ ह्रीं अहँ नमः ॥
पूर्वधरश्रीमदुमास्वातिवाचकविरचित-तत्त्वार्थाधिगमसूत्राणां स्वोपज्ञभाष्यगत सम्बन्धकारिका टीकाकर्ता : जैनधर्मदिवाकर, शास्त्रविशारद, कविभूषण
आचार्य श्रीमद् विजय सुशीलसूरि महाराज
०००
अर्हदङ्घ्रियुगं नत्वा, सुशीलसूरिणा मया । सम्बन्धकारिकायाः वै, लघ्वीटीका हि क्रियते ॥
मनुष्य-जन्म की सार्थकता सम्यग्दर्शनशुद्ध यो ज्ञानं विरतिमेव चाप्नोति ।
दुःखनिमित्तमपीदं, तेन सुलब्धं भवति जन्म ॥१॥ टीका : यः पुरुषः सम्यग्दर्शनशुद्धं सम्यग्दर्शनद्वाराशुद्धं ज्ञानं विरतिं च प्राप्नोति प्राप्नोति तस्य पुरुषस्य दुःखस्य निमित्तभूतमिदं जन्मापि लाभप्रदायकं सिद्धयति ॥ १॥
अर्थ : इस संसार में जन्म लेना यह दुःख का ही कारण है, फिर भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध ज्ञान और शुद्ध संघम-चारित्र प्राप्त करने वाले जीव-आत्मा का मनुष्य-जन्म सफल है ॥ १ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • सम्यग्दर्शन से विशुद्ध कर ज्ञान अरु चारित्र को ,
अजित करता जो नरभव में, अनुपम तीन रतन को। प्राप्य जो अति दुःख से है फिर दुःख का कारण यही , नरभव सफल है उसी जन का, हो भाव निर्मल मन सही ।।
कर्म-विमुक्त होने की सद्प्रेरणा जन्मनि कर्मक्लेश-रनुबद्धेऽस्मिस्तथा प्रयतितव्यम् ।
कर्मक्लेशाभावो, यथा भवत्येष परमार्थः ॥ २ ॥ टीका : कर्मणां कषायाणां अनुबन्धवति अस्मिन् जन्मनि यया रीत्या कर्मक्लेशानामभावो भवेत् तथा प्रयत्नं कुर्यादित्येव परमार्थः ।। २ ।।
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सम्बन्धकारिका - २
अर्थ : कर्मक्लेशों से अनुबद्ध इस जन्म में ऐसे प्रयत्न करने चाहिए जिनसे कर्म और कषायों का सर्वथा विनाश हो, प्रभाव हो । यही परमार्थ है ।। २ ।।
हिन्दी पद्यानुवाद: • कर्मक्लेशों से अनुबद्ध, दुःखदायी इस जन्म में, प्रयत्न ऐसा कीजिए, हो नाश क्लेशों का जिसमें । कर्मक्लेशों का ही ये सर्वथा नाश परमार्थ है,... परमार्थ साधन के लिए, इस विश्व में पुरुषार्थ है |
पुण्यानुबन्धी पुण्य का अनुबन्ध
परमार्थालाभे वा, दोषेष्वारम्भक स्वभावेषु । कुशलानुबन्धमेव स्यादनवद्यं यथा कर्म ॥ ३ ॥
टीका : आरम्भकारकस्वभाववत् कषायरूपाणां दोषाणां कृते यदि परमार्थमोक्षस्य प्राप्तिर्न भवेत् तर्हि यया रीत्या मोक्षस्यानुकूलपुण्यानुबन्धं भवेत् तया रीत्या निरवद्य (निष्पाप : ) कार्यं कुर्यात् ।। ३ ।।
अर्थ : प्रारम्भ में प्रवर्त्ताने के स्वभाव वाले ऐसे कषायादि दोषों की विद्यमानता के कारण परमार्थ न हो सके (अर्थात् कर्म और कषायों का सर्वथा विनाश प्रभाव न हो सके ) तो भी कुशल कर्म का - पुण्यानुबन्धी पुण्य का अनुबन्ध हो सके, इस भाँति निरवद्य अर्थात् पापरहित कार्य प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए ॥ ३ ॥
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हिन्दी पद्यानुवाद: • सिंह गज सम रागद्वेष प्रति गाढ़ दोष हैं विश्व में करते निरन्तर विघ्न ये परमार्थ के शुभ पन्थ 1 संसार की ही वृद्धि करनी यह दोष इनके स्वभाव का, चलते हुए निरवद्य पथ में, कुशलानुबन्धी भाव का ।।
छह प्रकार के मनुष्य
कर्माहितमिह चामुत्र चाधमतमो नरः समारभते । इह फलमेव त्वधमो, विमध्यमस्तूभयफलार्थम् ॥ ४ ॥ परलोकहितायैव, प्रवर्तते मध्यमः क्रियासु सदा । मोक्षायैव तु घटते, विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुषः ।। ५ ।। यस्तु कृतार्थोऽप्युत्तममवाप्य धर्मं परेभ्य उपदिशति । नित्यं स उत्तमेभ्योऽप्युत्तम इति पूज्यतम एव ॥ ६ ॥ तस्मादर्हति पूजा - मर्हन्नेवोत्तमोत्तमो लोके । देवष - नरेन्द्रेभ्यः, पूज्येभ्योऽप्यन्यसत्त्वानाम् ॥ ७ ॥
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सम्बन्धकारिका-३
टीका : अधमतमो मनुष्यः अस्मिन् लोके परलोके च दुःखदं कर्मारभते, अधमः नीचः पुरुषः अत्र लोके फलदायककर्मणां केवल मारम्भं कुरुते, विमध्यमः पुरुषस्तु उभयलोके फलप्रदं कर्म समारभते ।। ४ ।। मध्यमः पुरुषः परलोकस्य हिताय निरन्तरं क्रियायां प्रवर्तते, अथ विशिष्टमतिमाँश्चोत्तमपुरुषः सर्वदा मोक्षायैव प्रयतते ।। ५ ।। यः पुरुषः उत्तमधर्मं केवलज्ञानस्वरूपं लब्ध्वा स्वयं कृतार्थो भूत्वाऽन्येभ्योऽपि निरन्तरं धर्मोपदेशं ददाति, स उत्तमेष्वपि उत्तमोऽस्ति, तथा सर्वेषां पूजायोग्य : ( पूज्यतमः ) सन् ज्ञायते अर्थात् स सर्वत्र पूज्यो भवति ।। ६ ।। तस्मादेतादृश उत्तमोत्तम अर्हत एव लोकेषु अन्य जीवानां पूज्यः देवर्षेः राज्ञोऽपि अधिक: पूजनीयोऽस्ति ।। ७ ।।
अर्थ : मनुष्य तीन प्रकार के हैं—उत्तम, मध्यम और अधम । इनमें से उत्तम और धम के भी तीन-तीन भेद हैं- अधमाधम, अधमों में मध्यम तथा अधमों में उत्तम । अधमाधम - जो इस भव में तथा परभव में अर्थात् दोनों ही भवों में अहितकर यानी दुःखदायी कार्य का प्रारम्भ करने वाला हो उसे अधमाधम कहा जाता है । अधमों में मध्यम- जो केवल इसी भव में सुखरूप फल देने वाले कार्यों को करने वाला हो, वह अधमों में मध्यम कहा जाता है । प्रधमों में उत्तम – जो इस भव में भी तथा परभव में भी सुखरूप समृद्धि देने वाले कार्यों का करने वाला हो, उसे अधमों में उत्तम कहा जाता है । उत्तम श्रात्मा के तीन भेद इस प्रकार हैं । उत्तम - जो केवल मुक्ति की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करने वाला विशिष्ट बुद्धिमान् हो, वह उत्तम कहा जाता है । उत्तमों में मध्यम - जो मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करके कृतकृत्य हो गये हैं. ऐसे वे सिद्ध भगवान एवं मूककेवली उत्तमों में मध्यम कहे जाते हैं । उत्तमोत्तम – जो प्रशस्त धर्म को प्राप्त करके स्वयं कृतकृत्य होते हुए भी दूसरों को उस प्रशस्त धर्म का उपदेश देते हैं, वे उत्तमों में भी उत्तम होने से सर्वोत्कृष्ट पूज्य हैं। उन्हें ही उत्तमोत्तम कहा जाता है ।। ४-६ ।। गुण मात्र श्री अरिहन्त परमात्मा में ही घटता है । इसलिए उत्तमोत्तम में अन्य प्राणियों को पूज्य देवेन्द्रों और नरेन्द्रों से भी पूजनीय हैं ॥ ७ ॥
यह सर्वोत्कृष्ट पूज्यता का अरिहन्त भगवान ही लोक
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हिन्दी पद्यानुवाद: • उभय भव को जो बिगाड़े, अधम से भी अधम है, इस भव सुखद यों प्रथम माने मग्न पुद्गल में रहे । दोनों भवों के बाह्य सुख को, चाहे विमध्यम प्रातमा, इस जन्म के सुख के लिए, करता करणी शुभतमा ॥ • परलोक के सुख हेतु जो सह कष्ट करणी आचरे धर्मश्रद्धा पर चले, वह जीव मध्यम सुख वरे । भवमुक्त हो भवभीति से फिर, मात्र मुक्ति चाहते, वे यत्न करते मोक्षहित, अरु श्रेष्ठ संयम धारते ।। • कृतकृत्य उत्तम धर्म पाकर, अन्य को बोधित करें, वे उत्तमों में भी हैं उत्तम, जिनवरों का पद धरें । अरिहन्त तीर्थङ्कर स्वयं जो प्राणियों का दुःख हरें, इस हेतु ही तो है सुपूजित, सुरनरेन्द्र सेवा करें ।।
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सम्बन्धकारिका-४
प्रभुपूजा का फल अभ्यर्चनादर्हतां मनःप्रसादस्ततः समाधिश्च ।
तस्मादपि निःश्रेयस-मतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् ॥ ८ ॥ टीका : अर्हतः पूजया मनसः प्रसन्नता भवति, ततो मनःप्रसादात् समाधिर्जायते, समाधिना च मोक्षस्य प्राप्तिर्जायते। अस्माद्धेतोरहतः पूजा कर्तव्या, इत्युचितमस्ति ॥ ८ ॥
अर्थ : अरिहन्त भगवान परमात्मा की अर्चना-पूजा करने से रागद्वेषादिक मानसिक दुर्भाव दूर होकर मन निर्मल बन जाता है, चित्त प्रसन्न होता है। मन की निर्मलता से प्रसन्नता से समाधि यानी ध्यान की एकाग्रता सिद्ध होती है। ध्यान के स्थिर हो जाने से अर्थात समाधि से-समता से कर्मों की निर्जरा एवं कर्मों का क्षय होकर निःश्रेयस यानी मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है। अतः अरिहन्त भगवान की-जिनेश्वरदेव की अर्चना-पूजा करना न्याययुक्त है ॥ ८ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • पूजा करते जिनप्रभु की, प्रकट चित्तप्रसन्नता ,
प्रसन्न मन साधे समाधि, वरण कर उत्कृष्टता। मुक्ति का तुम हेतु जानो, करे अशिव निवारणा , इसलिए जिनपूजा करना, यह न्याययुक्त मानना ।
तीर्थस्थापना के हेतु तीर्थप्रवर्तनफलं, यत् प्रोक्त कर्मतीर्थकरनाम । तस्योदयात् कृतार्थो-ऽप्यहंस्तीथं प्रवर्तयति ॥६॥ तत्स्वाभाव्यादेव, प्रकाशयति भास्करो यथालोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय, प्रवर्तते तीर्थकर एवम् ॥१०॥
टीका : तीर्थङ्करनामकर्मणो फलं तीर्थप्रवर्तनरूपं शास्त्रे कथितमस्ति । तस्य (तीर्थङ्करनामकर्मणः) उदयात् कृतार्थोऽर्हन्नपि तीर्थं धर्मतीर्थं प्रवर्तयति ॥ ६ ॥ यथा सूर्यः स्वस्वभावेनैव लोके प्रकाशयति तथैव तीर्थङ्करोऽपि तीर्थं प्रवर्तनाय प्रवर्तते । यतस्तीर्थप्रवर्तनमेव तीर्थङ्करनामकर्मणोः स्वभावोऽस्ति ।। १० ।
अर्थ : तीर्थङ्कर नामकर्म का फल (कार्य) धर्मतीर्थ का प्रवर्तन यानी मोक्षमार्ग का प्रवर्तन कहा गया है। इसी कारण से, स्वयं कृतकृत्य होते हुए भी अरिहन्त भगवान नामकर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं ॥ ६॥ जैसे सूर्य अपने स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करता है, वैसे ही तीर्थंकर नामकर्म के उदयाधीन अरिहन्त भगवान अपने स्वभाव से धर्मतीर्थ में प्रवृत्त होते हैं ॥ १० ॥
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सम्बन्धकारिका-५
हिन्दी पद्यानुवाद : • तीर्थंकर नामकर्म का फल तीर्थप्रवर्तन कहा ,
कृतकृत्य जिन कर्मोदये, धर्मतीर्थ स्थापे सुमना। जैसे प्रकाश विकीर्ण करना सूर्य का स्वभाव है , वैसे तीर्थस्थापना यह तीर्थपति का सद्भाव है।
श्री महावीर प्रभु की गुणस्तुति यः शुभकर्मासेवन - भावितभावो भवेष्वनेकेषु । जज्ञे ज्ञातेक्ष्वाकुषु, सिद्धार्थनरेन्द्रकुलदीपः ॥ ११ ॥ ज्ञानः पूर्वाधिगतै-रप्रतिपतितैर्मतिश्रुताऽवधिभिः ।
त्रिभिरपि शुद्धैर्युक्तः शैत्यद्युतिकान्तिभिरिवेन्दुः ॥ १२ ॥ टोका : अनेकभवेषु शुभकर्मणां सेवनेन वासितोऽस्ति भावो यस्य, तथा सिद्धार्थनृपस्य कुले दीपकसमानः सः भगवान् ज्ञातेक्ष्वाकुवंशे समुपद्यत अजायत ।। ११ ॥ शुद्धैः पूर्वप्राप्ताप्रतिपाति-मति-श्रुताऽवधिज्ञानैः युक्तस्तीर्थङ्करः शीतलतया कान्ति-द्युतिभ्याञ्च चन्द्र इव शोभते ॥ १२ ।।
अर्थ : पूर्वकाल में अनेक भवों में शुभकर्मों के सेवन से जिनके परिणाम शुभ संस्कारों से युक्त हो गये थे, ऐसे भगवान महावीर अन्तिम भव में ज्ञातृ इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुए और सिद्धार्थ राजा के कुलदीपक बने ॥ ११॥ जैसे चन्द्रमा सदा शीतलता, द्युति और कान्ति से युक्त है वैसे ही ये भगवान महावीर पूर्व के देवभव से हो चले आये अप्रतिपाती मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीन ज्ञानों से युक्त थे ॥ १२॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • अनेक भवों में जिसने, शुभ कर्मों का सेवन किया ,
सुदृढ़ कर शुभ भावना को, वीशस्थानक तप भी किया। नन्दन ऋषि के भव में, जिन-नामकर्म निकाचित किये , देवभव कर यहाँ जन्मे, सिद्धार्थ - कुलदीपक भये । ज्ञात-इक्ष्वाकुविभूषण, वंश के सूर्य सम जब ये हुए , अप्रतिपाती पूर्वाधिगत मतिश्रुतावधि सह युक्त ये। शैत्य-द्युति-कान्ति गुण युत, चन्द्र समान थे शोभते , स्वज्ञान की चांदनी से, दिग् दिग् विभा भूषित हुए। शुभसारसत्त्वसंहनन - वीर्यमाहात्म्यरूप-गुणयुक्तः ।
जगति महावीर इति, त्रिदशैर्गुणतः कृताभिख्यः ॥ १३ ॥ टोका : शुभश्रेष्ठसत्त्वेन संघयेण वीर्येण माहात्म्यरूपगुणयुक्तन देवतादिभिश्च गुणद्वारा जगति महावीर इति नाम स्थापितं यस्य तादृशः ॥ १३ ।।
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सम्बन्धकारिका-६
अर्थ : वे भगवान शुभसार (शरीर की स्थिरता की कारणभूत शक्ति) उत्तम सत्त्व, श्रेष्ठ संघयण, लोकोत्तर वीर्य, अनुपम माहात्म्य, अद्भुत रूप और दाक्षिण्य इत्यादि विशिष्ट गुणों से
कत थे। अतएव शक्रेन्द्रादि देवों ने इन गुणों को देखकर लोक में उनका नाम महावीर प्रसिद्ध किया था॥ १३ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • बल-वीर्य-प्रभुता-रूप-गुण, माहात्म्य और सात्त्विकता ,
शुभ सार सारे दृढ़ वपु में अतिवीर्यशाली दन्यता। इन गुणों को देख कर इन्द्र नाम महावीर दिया , गुणनिष्पन्न नाम ये ही, प्रसिद्ध विश्व में हुआ।
श्री महावीर प्रभु की दीक्षा और तपश्चर्या स्वयमेव बुद्धतत्त्वः सत्त्वहिताभ्युद्यताचलितसत्त्वः ।
अभिनन्दितशुभसत्त्वः सेन्द्रलॊकान्तिकर्देवैः ॥ १४ ॥ टोका : स्वयमेव तत्त्वस्य ज्ञाता प्राणीनां हिताय तत्परः प्रथमसत्त्ववान् तथा इन्द्रसहितैर्लोकान्तिकदेवैरभिनन्दिताः (प्रशंसिताः) सन्ति शुभसत्त्वगुणा यस्य तादृशः प्रभुरस्ति ॥ १४ ॥
___ अर्थ : श्री तीर्थंकर भगवान स्वयंबुद्ध होते हैं, उनका निश्चल सत्त्व-पराक्रम अन्य जीवों का हित-कल्याण करने के लिए सर्वदा उद्यत रहा करता है। अतः उनके शुभसत्त्व—पराक्रम की अर्थात् शुभभावों की देवेन्द्रों व लोकान्तिक देवों ने भी प्रशंसा की थी॥ १४ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • तजा संसार के सुख को, प्रभु ने तीस की वय में ,
ग्रही वैराग्यवृत्ति तब लोकान्तिक देव आ प्रणमे । जीव मात्र के हित अय प्रभो! स्थापिये धर्मतीर्थ को ,
देकर वार्षिकदान फिर, स्वयं साधना परमार्थ को। जन्मजरामरणातं जगदशरणमभिसमीक्ष्य निःसारम् ।
स्फीतमपहाय राज्यं शमाय धीमान् प्रवद्वाज ॥ १५ ॥ टीका : जन्मजरामरणः पीडितं विश्वमशरणमसारं दृष्ट्वा, विशालं राज्यं परित्यज्य, समतायै (कर्मणो विनाशाय) बुद्धिमान् , एतादृशो महावीरो देवः दीक्षां जग्राह ।। १५ ॥
अर्थ : नाना गुणों से युक्त प्रभु महावीर ने इस संसार को जन्म-जरा और मृत्यु की पीड़ाओं से व्याप्त तथा अशरण और असार जानकर, अपनी आत्मा में परम शान्ति और मोक्ष का शाश्वत सुख पाने के लिए राज्यवैभव को त्याग कर उत्तम संयम-चारित्र को ग्रहण किया अर्थात् दीक्षा स्वीकार कर भगवान महावीर प्रवजित हुए॥ १५ ॥
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सम्बन्धकारिका-७
हिन्दी पद्यानुवाद : • जन्म-जरा और मृत्यु की पीड़ा से व्याप्त विश्व को ,
अशरण और असार जान, तज दिया राज्य-वैभव को। निज आत्म में परम शान्ति और मोक्ष शाश्वत सुख को, पाने के लिए प्रभु वीर ने स्वीकारा सुसंयम को। श्री महावीरप्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति तथा धर्मतीर्थ की स्थापना प्रतिपद्याशुभशमनं, निःश्रेयस-साधकं श्रमणलिङ्गम् । कृतसामायिककर्मा, व्रतानि विधिवत् समारोप्य ॥ १६ ॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्र - संवरतपः समाधिबलयुक्तः । मोहादीनि निहत्या - शुभानि चत्वारि कर्माणि ॥ १७ ॥ केवलमधिगम्य विभुः स्वयमेव ज्ञानदर्शनमनन्तम् ।
लोकहिताय कृतार्थोऽपि देशयामास तीर्थमिदम् ॥ १८ ॥ टीका : अशुभस्य (पापस्य) शमनकर्ता मोक्षस्य साधकः साधुवेषधारीसन् सामायिक कार्यं कृतवान् यः स वीरः परमात्मा विधिपूर्वकं व्रतग्रहणं कृत्वा ।। १६ ॥ सम्यक्त्वेन, ज्ञानेन, चारित्रेण, संवरेण, तपसा, समाधिना, बलेन च युक्तः मोहनीयादीनि चत्वारि अशुभानि घातिकर्माणि सर्वथा विनाशं कृत्वा (यः) ।। १७ ॥ स्वयमेवानन्तकेवलज्ञानं केवलदर्शनञ्च लब्ध्वा प्रभुः महावीरदेवः कृतार्थोऽपि लोकहिताय इदं तीर्थं (प्रवचनं) प्रकाशयति ।। १८ ।।
अर्थ : अशुभ कर्मों का उपशमन करने वाले अर्थात् विनाश करने वाले तथा मोक्ष के साधक अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले ऐसे श्रमणलिङ्ग को--साधुवेष को धारण करके, ग्रहण किये हुए सर्वविरति सामायिक वाले प्रभु महावीर ने व्रतों को भी विधिपूर्वक करके-॥ १६ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, संवर, तप और समाधि के बल से युक्त प्रबल होकर अपने अष्टकर्म पैकी मोहनीयादि चार अशुभ घाती कर्मों का क्षय करने पर-॥ १७ ॥ क्षायिकभावे अनन्त ऐसे केवलज्ञान और केवलदर्शन गुण को प्राप्त करके, सर्वज्ञ बनने से कृतकृत्य अर्थात् कृतार्थ होते हुए भी केवल लोकहित के लिए इस (वर्तमान में जो प्रवर्तता है वह) धर्मतीर्थ का (मोक्षमार्ग का) उपदेश दिया अर्थात् धर्मतीर्थ को प्रकाशित किया ॥ १८ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : . किया पंचमुष्टि लोच फिर, इन्द्र से लिया सुवेश को ,
धर्मकारण भवनिवारण, कर्म मारण ये जग जयो। सामायिक सर्वविरति को, उच्चरे विधिपूर्वक महा , वर्ष द्वादश कर तपस्या, परीषह सहे समता सदा ॥ • सम्यग्दर्शन - ज्ञान-संयम, संवर-तप - समाधि के , बल से युक्त प्रबल होकर, अद्भुत योजना करके ।
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सम्बन्धकारिका-८
निज मोहनीयादिक चार, अशुभ घाती कर्मों का ,
क्षय करके क्षायिकभावे, ज्ञानदर्शन प्राप्त किया। • कृतकृत्य होते हुए भी, केवल लोकहित के लिए ,
की स्थापना धर्मतीर्थ की, चतुर्विध संघ के रूप में । नयभंग से और गम से, अतिगम्भीर धर्मदेशना , अर्थ से सुना कर सच्ची, राह दिखाई मोक्ष की।
प्रागम को महत्ता - - - द्विविधमनेक-द्वादशविधं, महाविषय - ममितगमयुक्तम् । संसारार्णवपार - गमनाय, दुःखक्षयायालम् ॥ १६ ॥ ग्रन्थार्थवचनपटुभिः प्रयत्नवद्भिरपि वादिभिनिपुरणैः ।।
अनभिभवनीयमन्यै - र्भास्कर इव सर्वतेजोभिः ॥ २० ॥ टीका : अङ्गबाह्य तथाऽङ्गप्रविष्टमित्थं द्विविधं, (अङ्गबाह्यम्) अनेकप्रकारं, (अंगप्रविष्टम् ) द्वादशप्रकारं, महान्विषयवन्तं, अनेकालापकयुक्त, संसारसमुद्रस्य पारं कतु समर्थं, दुःखध्वंसने च सशक्तमित्थं तीर्थं प्रभुः प्राकटयत् ।। १६ ।। यथा अन्यसर्वतेजोभिः सूर्यो नैव पराभूयते तथा एवं ग्रन्थानामर्थनिरूपणकार्ये प्रवीणेन स प्रयत्नेन निपुणेनापि वादिना यथा न खण्डयेत इत्थमिदं तीर्थं (प्रभुः) प्रावर्तयत् ।। २० ॥
अर्थ : तीर्थङ्कर परमात्मा जिनेश्वर भगवान ने जो धर्मोपदेश दिया वह अनन्तगमों से युक्त तथा महान् विषयों से परिपूर्ण है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य इसके दो मूलभेद हैं। अंगबाह्य के अनेक भेद हैं तथा अंगप्रविष्ट के द्वादश भेद हैं। प्रभु द्वारा उपदिष्ट यह तीर्थश्रुत भवसिन्धु से यानी संसार-सागर से पार ले जाने में तथा दुःखों का क्षय करने में समर्थ है ॥ १६ ॥ ग्रन्थ की रचना और अर्थ का निरूपण करने में निपूणवादी चाहे कितना ही प्रयत्न करें तो भी इस तीर्थश्रुत को जीत नहीं सकते। क्या सूर्य को किसी भी प्रकार का तेज-प्रकाश अभिभूत कर सकता है ? अर्थात् जगत् में जैसे मणिरत्नों इत्यादि समस्त पदार्थों के तेज प्रकाश एकत्र हो जायें तो भी उनसे सूर्य पराभव नहीं पाता है, वैसे ही ग्रन्थों का अर्थ कहने में निपुण और न्यायकुशलवादी तीर्थश्रुत के पराभव का प्रयत्न करें तो भी उनसे तीर्थश्रुत का पराभव नहीं होता ॥ २० ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • इसके दो मूलभेद हैं, अंगप्रविष्ट अंगबाह्य ,
अंगबाह्य के अनेक भेद, द्वादश अंग प्रविष्ट के। प्रभु द्वारा उपदिष्ट ये, तीर्थश्रुत भवजल नौ समा , तथा दुःखक्षय करने में, समर्थ है विश्व में महा। ग्रन्थरचना अर्थनिरूपण में चाहे जो निपुणवादी होते , कितना ही यत्न करे तो भी, इस श्रुत को न जीत सके । शास्त्रार्थ करने को सदातुर, ये प्रतिक्षण सर्वदा , वादी सभी थकते यहाँ, जिनश्रुत रहे विजयी सदा ।।
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सम्बन्धकारिका
• क्या सूर्य के आगे कभी है, अन्य तेज प्रकाशता, यत्न कितना ही करें पर है मिली क्या सफलता ? जिनराज की तो देशना थी, भानु भा सी प्रखरता, नक्षत्र क्या टिकते कभी, हो जब रवि की उदयता ॥
भगवान को नमस्कारपूर्वक सप्रयोजन ग्रन्थकरण प्रतिज्ञा
कृत्वा त्रिकरणशुद्धं, तस्मै परमर्षये नमस्कारम् । पूज्यतमाय भगवते, वीराय विलीनमोहाय ॥ २१ ॥ तत्त्वार्थाधिगमाख्यं, बह्वर्थं संग्रह लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्य हितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२ ॥
टीका : परमर्षये परमपूज्याय मोहरहिताय भगवते वीराय त्रिकरणशुद्धिपूर्वकं नमस्कृत्य, अल्पशब्दसंसूचितार्थ - बाहुल्यमिदं तत्त्वार्थाधिगम नामानं लघुग्रन्थं शिष्याणां हिताय श्रहं ( उमास्वातिवाचकः ) वर्णयिष्यामि ( रचयिष्यामि) । यश्चायं प्रर्हद्वचनैकदेशोऽस्ति ।। २१-२२ ।।
अर्थ : मोहनीय कर्म का सर्वथा विनाश करने वाले, सर्वोत्कृष्ट, पूज्य उन परमर्षि प्रभु महावीर को मन-वचन-काया की शुद्धिपूर्वक नमस्कार करके मैं ( उमास्वातिवाचक) शिष्यों के हित के लिए श्री अरिहन्त भगवान के वचनों के एकदेशसंग्रह रूप तथा विशेषार्थं सहित इस तत्त्वार्थाधिगम नामक लघुग्रन्थ को संक्षेप में कहूंगा ।। २१-२२ ।।
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हिन्दी पद्यानुवाद: • निर्मोह निर्मम जिन महावीर पूज्य सारे विश्व के त्रिकरणशुद्धि वन्दना कर, प्रभु के ही पादपद्म में । बह्वर्थ का सागर तथापि, लघुग्रन्थ की गागर भरी सूत्र तत्त्वार्थाधिगम, अभिधान रचना है करी ॥ • शिष्य का ही हित प्रमुख, इस योजना का लक्ष्य है, जिनवचन का अल्पांश लेकर, रचा यह भी सत्य है । क्या पार न पमाय ऐसा, है रत्ननिधि रत्नाकर, और कहाँ यह मंजूषा, तदुद्भव रत्नों को गिन् ॥
सम्पूर्णपने जिनवचन का संग्रह करना अशक्य है महतोऽतिमहाविषयस्य, दुर्गम ग्रन्थभाष्यपारस्य । कः शक्तः प्रत्यासं, जिनवचनमहोदधेः कर्तुम् ॥ २३ ॥ शिरसा गिरि बिभित्से, दुच्चिक्षिप्सेच्च स क्षिति दोर्भ्याम् । प्रतितीर्षेच्च समुद्रं, मित्सेच्च पुनः कुशाग्रेण ।। २४ ।। व्योम्नीन्दु चिक्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयिषेत् । गत्या निलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ॥ २५ ॥
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सम्बन्धकारिका - १०
खद्योतक प्रभाभिः सो ऽभिबुभूषेच्च भास्करं महत् । जिनवचनं
saमहाग्रन्थार्थं,
जिघृक्षे ।। २६ ।।
भाष्यस्य
टीका : महतोऽतिस्थूलस्य दुरधिगमस्य ( काठिन्येन ज्ञातु ं शक्यस्य ) ग्रन्थस्येतद् च जिनवचनरूपिणो महासागरस्य संग्रहं विदधातु कः समर्थो भविष्यति ? ।। २३ ॥ यः कश्चन पुरुषोऽतिविशालग्रन्थेनार्थेण च जिनवचनानां पूर्णरीत्या संग्रहं कर्तुमिच्छति स मूढो जनः शिरसा मस्तकेन पर्वतानां भङ्क्तु ं वाञ्छति, द्वाभ्यां भुजाभ्यां पृथिवीमुत्क्षेप्तुमिच्छति, भुजाभ्यां तीर्त्वा समुद्रस्य पारं गन्तुमिच्छति, कुशाग्रेण (तृणखण्डेन ) समुद्रजलानि मातुमिच्छति, आकाशे उत्पत्य चन्द्रमुल्लंघितुमिच्छति, मेरुपर्वतं हस्ताभ्यां कम्पयितुमिच्छति, गत्या ( गमनेन ) वायोरपि अग्रे गन्तुमिच्छति, अन्तिमं (स्वयम्भूरमणनामकं ) समुद्रं पातुमिच्छति, तथा खद्योतप्रभया भानुं पराभवितुमिच्छति । अयमाशयः यथोपरि दर्शितानि कार्यारिण दुष्कृतानि ( अति कठिनानि ) सन्ति, तथैव सम्पूर्णरीत्या सर्वज्ञविभुवचनप्रमुखानां संकलनं तात्पर्यज्ञानं वा प्रतिदुष्करं न कोऽपि विदधातुं समर्थः ।। २४-२५-२६ ।।
अर्थ : जिस ग्रन्थ का और उसके अर्थ का पार अत्यन्त कठिनाई से ही पा सकते हैं, जिसमें अतिशय अनेक विषय हैं, ऐसे उस महान् जिनवचनरूप महासमुद्र का संग्रह करने में कौन समर्थ है ? अर्थात् जिनवचनरूप सिन्धु महान् है, प्रत्यन्त उत्कृष्ट और महागम्भीर विषयों से युक्त दुर्गम होने के कारण अपार भी है । क्या कोई अत्यन्त कुशल - निपुण व्यक्ति भी उस श्रुतसिन्धु का पार पा सकता है ? अर्थात् कोई पार नहीं पा सकता है ।। २३ ।। जो पुरुष इस महान् गम्भीर श्रुतसमुद्र का संग्रह करने की अभिलाषा रखता है तो कहना चाहिए कि ( १ ) क्या वह मोह के कारण अपने सिर से पर्वत को विदीर्ण करने की— भेदने की इच्छा रखता है ? ( २ ) क्या वह दोनों भुजाओं से पृथ्वी को उठाकर फेंकना चाहता है ? (३) क्या दोनों बाहुओं के बल से समुद्र को तैरना चाहता है ? ( ४ ) क्या केवल कुश - डाभ - घास के अग्रभाग ( नोक ) से ही समुद्र को नापना चाहता है ? (५) क्या आकाश में स्थित चन्द्रमा को लांघना चाहता है ? (६) क्या एक हाथ से मेरुपर्वत को हिलाना चाहता है ? (७) क्या गति से पवन - वायु को जीतना चाहता है ? ( ८ ) क्या अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र को पीना चाहता है ? (६) तथा क्या मोहवश खद्योत के तेज से सूर्य के तेज को अभिभूत - पराभव करना चाहता है? मोहाधीन विकृतबुद्धि पुरुष की इन असम्भव कार्यों की अभिलाषा के समान ही इस महान् ग्रन्थ ( अर्थात् अर्थरूप जिनवचन) का संग्रह करने की इच्छा वाले को भी मोहाधीन समझना चाहिए ।। २४-२६ ॥
हिन्दी पद्यानुवाद: • विविध विषयों से भरा है सुज्ञान प्रति दुर्गम जहाँ, मूल तो क्या भाष्य को भी समझना मुश्किल महा । जिनवचन जलनिधि अंजलि से, रिक्त हो सकता कभी ? तथा सिर से क्या गिरि को विदीर्ण कर सकते हैं कभी ?
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सम्बन्धकारिका-११
• दो भुजाओं के जोर से क्या फेंक सकते हैं धरा ?
उत्तुंग वोचिपूर्ण सिन्धु, दो बाहु से किसने तरा? क्या कहीं मापा किसी ने, कुशाग्र से सिन्धु कभी ? कूद कर आकाश में क्या, इन्दु ले सकते कभी ?॥ • क्या मेरुपर्वत को कभी, इक हाथ से चंचल किया ?
क्या वायुगति जीती किसी ने? क्या स्वयम्भू को पिया ? क्या खद्योत के तेज से ही सूर्य का पराभव किया ? हैं यदि ये सब असम्भव, ग्रन्था
श्री जिनवचन के एक पद की भी विशेषता एकमपि तु जिनवचनाद् यस्मानिर्वाहकं पदं भवति । श्रयन्ते चाऽनन्ताः, सामायिकमात्रपद-सिद्धाः ॥ २७ ॥ तस्मात् तत् प्रामाण्यात , समासतो व्यासतश्च जिनवचनम् ।
श्रेय इति निविचारं, ग्राह्य धार्य च वाच्यं च ॥ २८ ।।
टीका : यस्मात् जिनवचनानामेकपदमपि उत्तरोत्तरज्ञानप्राप्तिद्वारा संसारस्य पारप्राप्तिकर्मणि समर्थमपि यतः सामायिकपदमात्रसेवनेनापि [अर्थात् सामायिकक्रियया अपि] अनन्ताः जीवा: सिद्धाः सजाताः, इत्थं शास्त्रे श्रुतमस्ति ।। २७ ॥ तस्मात् कारणात् तेषां जिनवचनानां संक्षेपेण विस्तृतेन च ग्रहणं (ज्ञानम्) कल्याणकारकमस्ति, इत्थं विज्ञाय तानि जिनवचनानि निःसन्देहमेव ग्राह्याणि (पठितव्यानि) अन्यानपि पठितु प्रोत्साहयेत् ।। २८ ।।
अर्थ : जिनवचन का एक पद भी भव्य जीवों को उत्तरोत्तर सम्यग्ज्ञानप्राप्ति द्वारा संसारसागर से पार करने में समर्थ होता है। केवल सामायिक पद के ज्ञान, उच्चारण मात्र से ही अनन्त काल में, अनन्त भव्य जीव मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं, ऐसा आगम में सुनने में आता है ॥ २७ ॥ उपर्युक्त प्रमाण से आगम पर पूर्ण विश्वास रख करके संक्षेप से या विस्तार से ग्रहण किया हुआ जिनवचन ही कल्याणकारी है, ऐसी श्रद्धापूर्वक ही जिनवचन ग्रहण करना, धारण करना (चिन्तनादि करना) और उपदेशादि द्वारा निरूपण करना चाहिए ॥२८॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • जिनवचनसुधाबिन्दु को जो भाव से चखता यहाँ ,
नष्ट कर विष निज भवाजित, भवसिन्धु को तरता यहाँ । शास्त्र से सुनते हैं कि सीझे अनन्ता भव्य जीव , पदमात्र सामायिक.. सूनी, पाया परमार्थ अतीव ।। यह सत्य तथ्य प्रमाण मानो तथा निःसंशय सूनो , कल्याणहेतू जिनवचन को, ग्राह्य धार्य विस्तृत करो संक्षेप या विस्तार से जिस भाँति रुचि हृदि गम्य हो , पीयूष सम जिनवचन मीठे, पान-सुख संकल्प हो ।
धर्मोपदेशकों को एकान्त लाभ न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवरणात् । ब्रु वतोऽनुग्रहबुद्धया, वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥ २६ ॥
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सम्बन्धकारिका - १२
तस्माच्छ्रेयः
सदोपदेष्टव्यम् ।
हि, हितोपदेष्टाऽनुगृह्णाति ।। ३० ।।
श्रममविचिन्त्यात्मगतं, श्रात्मानं च परं च टीका : हितवचनानां श्रवणैः सर्वेषामेव श्रोतॄणां एकान्ततः धर्मो भवत्येवेति न निश्चयः किन्तु अनुग्रह (कृपा) बुद्धचा उपदेशकर्तृणां तु निश्चितमेव धर्मो भवति ।। २६ ।। तस्मात् कारणात् स्वपरिश्रमस्य विचारं नैव कृत्वा सर्वदा कल्याणकारकोपदेश: कर्त्तव्यः, यतो हितोपदेष्टा (मोक्षमार्गोपदेष्टा ) लोकेभ्योऽनुग्रहं करोति ।। ३० ।।
अर्थ : इस हितरूप श्रुत के श्रवण से सभी सुनने वालों को एकान्ततः धर्म की प्राप्ति हो ही जाती हो, ऐसा नियम नहीं किन्तु अनुग्रहबुद्धि से जो उसका कथन करता है, उसको तो नियम से धर्म का लाभ होता ही है ॥ २६ ॥ अतः अपने श्रम का विचार किये बिना मोक्षमार्गरूप श्रुत का उपदेश करना, यह कल्याणकारक है । हितकारी उपदेश देने वाला वक्ता स्व और पर का अनुग्रह करने वाला होता है ।। ३० ।।
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हिन्दी पद्यानुवाद: • हितरूप श्रुतश्रवण से, सभी धर्म पाते सर्वदा एकान्त ऐसा नियम नहीं है, भाव की है विविधता । बोले अनुग्रहबुद्धि से तो, सत्य है निश्चय यही, एकान्त से सब धर्म होते, शास्त्र भी कहते यही ॥ • इस हेतु जनकल्याणकारी देना धर्मोपदेश ही यह श्रम नहीं संजीवनी है, भवभवों के भ्रमण की । उपदेश करते जो हितों का, स्वपरहित को साधते भवसिन्धु नौ सम वे गुरु हैं, स्वयं तरते-तारते ॥ मोक्षमार्गोपदेश ही हितोपदेश है
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नर्ते च मोक्षमार्गा-द्वितोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात् परमिममेवेति, मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥ ३१ ॥
टीका : अस्मिन् संसारे मोक्षमार्गं विनाऽन्यः कश्चित् हितोपदेशो नास्ति, अस्माद्धेतोः सर्वश्रेष्ठोऽयं मोक्षमार्गः, तमेव मोक्षमार्गमहं ( उमास्वातिवाचकः) प्रवक्ष्यामि - कथयिष्यामीति भावः ।। ३१ ।।
अर्थ : इस संसार में मोक्षमार्ग के सिवाय अन्य किसी भी प्रकार का उपदेश हितकारीकल्याणकारी नहीं बन सकता है । अतएव मैं ( ग्रन्थकर्ता - उमास्वाति ) यहाँ केवल मोक्षमार्ग का ही वर्णन - व्याख्यान करूंगा ।। ३१ ।।
मार्ग केवल श्रेय है,
हिन्दी पद्यानुवाद: • अखिल जग में मोक्ष का ही, छोड़कर इसको सभी पथ, दुःख के आधेय हैं । उत्कृष्ट जानकर इसका वर्णन करूंगा मैं यहाँ यह सुनकर श्रद्धा से भवि ! शिवपन्थ में चलते जहाँ ।।
"
॥ इति सम्बन्धकारिका ॥
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פה
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जिनमें
ॐ ह्रीँ अर्ह नमः
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शुभ आशीर्वाद
।। शासन सम्राट प.पू. आ. श्री नेमि लावण्य-दक्ष सुशील सूरीश्वरेभ्यो नमः ॥
जिनागम
राजस्थान दीपक परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी महाराज साहब
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प्रेरक परम पूज्य पंन्यासप्रवर
श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य महाराज साहब
हबिंब
साध्वी
श्रावक
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श्राविका
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सप्रेम निवेदन
मान्यवर श्री
साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब कहा जाता है । जिसमें भौतिक साहित्य का महत्व सर्वतोधिक है । मौलिक साहित्य के पठन से आपके परिवार में अच्छे संस्कारों का सिंचन होगा । जिससे जीवन में प्रेम और शांति के फूल खिलेंगे
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सुशील-सन्देश
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-विनीत कार्यालय
.सुशील फाउण्डेशन संघवी श्री जौहरीलाल
. संघवी श्री जौहरीलाल जी सुरेन्द्र कुमार पटवा, जैतारण सुरेन्द्र कुमार पटवा
शा. बाबु भाई पूनमचंद जी, जावाल (ऊझा) मु.पो. जैतारण
शा.सुखराज कपुरचंद जी, अगवरी (बम्बई) जि. पाली (राज.)
शा. हनवन्तचन्द जी मेहता, पाली शा. किशोरचंद मीठालाल जी (जालोर वाला) पाली
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परिशिष्ट-१
॥ नमो नमः श्रीजनागमाय ।।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य जैनागमप्रमारगरूपप्राधारस्थानानि
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ॐ प्रथमोऽध्यायः ॥
मूलसूत्रम्
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १-१॥
* तस्याधारस्थानम्(१) नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥
__ [श्रीउत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन-२८, गाथा-३०] (२) तिविहे सम्मे पण्णत्ते । तं जहा-नाण सम्मे, दंसण सम्मे, चरित्तसम्मे ।
[स्थानाङ्ग-स्थान-३, उद्देश-४, सूत्र-१६४/२]
मूलसूत्रम्
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ १-२ ॥
* तस्याधारस्थानम्
तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ।
[उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन-२८, गाथा-१५]
मूलसूत्रम्
तनिसर्गादधिगमाद् वा ॥ १-३॥
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* तस्याधारस्थानम्
सम्महंस दुविहे पण्णत्ते ।
सम्मस चेव ।
मूलसूत्रम्
* तस्याधारस्थानम्
नव सब्भावपयत्था पण्णत्ते ।
जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तस्वम् ।। १-४ ।।
संवरो निज्जरा बंधो मोक्खो ।
मूलसूत्रम्
* तस्याधारस्थानम्
तं जहा - णिसग्ग- सम्मदंसणे चेव अभिगम
[ स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश - १, सूत्र - ७० / २]
मूलसूत्रम्
नाम-स्थापना द्रव्य भावतस्तन्न्यासः ।। १-५ ॥
तं जहा - जीवा प्रजीवा पुण्णं पावो प्रसवो
[स्थानाङ्ग-स्थान- ६, उद्देश - ३, सूत्र - ६६५ ]
(१) जस्थय जं जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थवि श्र न जाणेज्जा, चउक्कगं निक्खिवे तत्थ ॥
(२) श्रावस्सयं चउव्विहं पण्णत्ते । दव्वावस्त्यं, भावावस्सयं ।
* तस्याधारस्थानम् -
प्रमाण - नयैरधिगमः ॥ १-६ ॥
दव्वारणा सव्वभावा, सव्वपमाणेह जस्स उवलद्धा । सव्वाहि नयविहीहि, वित्थाररुइ त्ति नायव्वो ।
•
२
[ अनुयोगद्वार, सूत्र - ७ / १] तं जहा - नामावस्सयं, ठवणावस्सयं,
[ अनुयोगद्वार, सूत्र- ८ ]
[ उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन - २८, गाथा - २४]
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मूलसूत्रम्
निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थितिविधानतः ॥ १-७॥ * तस्याधारस्थानम्निद्देसे पुरिसे कारण कहिं केसु कालं कइविहं ।।
[अनुयोगद्वार, सूत्र-१५१]
मूलसूत्रम्
सत्-संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालाऽन्तर-भावाऽल्प-बहुत्वैश्च ॥ १८ ॥ * तस्याधारस्थानम्
से कि तं अणुगमे ? नवविहे पण्णत्ते। तं जहा-[१] संतपयपरूवणया [२] दव्वपमाणं च [३] खित्त [४] फुसरणा य [५] कालो य [६] अंतरं [७] भाग [८] भाव [६] अप्पबहुं चेव ।
[अनुयोगद्वार, सूत्र-८०]
मूलसूत्रम्
___मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्याय-केवलानि ज्ञानम् ॥ १६ ॥ * तस्याधारस्थानम्(१) पंचविहे गाणे पण्णत्ते। तं जहा-पाभिणिबोहियणाणे, तुयनारणे, प्रोहिणाणे, मरणपज्जवरणाणे, केवलनाणे।।
स्थानाङ्ग-स्थान-५, उद्देश-३, सूत्र-४६३] (२) नाणं पंचविहं पण्ए. ते। तं जहा-प्राभिरिणबोहियनाणं, सुयनाणं,
मोहिनाणं, मरणपज्जवनारणं, केवलनाणं । [ * भगवतीशतक ८, उद्देश-२, सूत्र-३१८ । * नंदिसूत्र-१ । * अनुयोगद्वार, सूत्र-१ । ]
मूलसूत्रम्
तत्प्रमाणे ॥ १-१०॥
* तस्याधारस्थानम्(१) दुविहे नाणे पण्णत्ते। तं जहा-पच्चकखे चेव, परोक्खे चेव ।
[स्थानाङ्ग-स्थान २, उद्देश-१, सूत्र-७१]
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(२) तं समासो दुविहं पण्णत्तं। तं जहा-पच्चक्खं च परोक्खं च ।
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[नंदिसूत्र-२]
मूलसूत्रम्
आद्ये परोक्षम् ॥ १-११॥ * तस्याधारस्थानम्(१) परोक्खे णाणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-पाभिणिबोहिय णाणे चेव, सुयनाणे चेव ।
[स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश-१, सूत्र-७१] (२) परोक्खनाणं दुविहं पन्नत्तं। तं जहा-प्राभिणिबोहिय नाणं परोक्खं च, सुयनाणं परोक्खं च ।
[नंदिसूत्र-२२]
मूलसूत्रम्
प्रत्यक्षमन्यद् ॥ १-१२ ॥
* तस्याधारस्थानम्(१) पच्चखे नाणे दुविहे पन्नत्ते । तं जहा-केवलणाणे चेव, णो केवलणाणे
चेव । णो केवलणाणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-प्रोहिणाणे चेव, मणपज्जवणाणे चेव ।
__ [स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश-१, सूत्र-७१/२-१२] (२) नोइंदिय पच्चक्खं तिविहं पण्णत्तं। तं जहा-मोहिनाणपच्चक्खं, मणपज्जवनाणपच्चक्खं, केवलनाणपच्चक्खं ॥
[नंदिसूत्र-५]
मूलसूत्रम्
मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् ॥ १-१३ ॥ * तस्याधारस्थानम्
ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेषणा । सन्ना सई मई पन्ना, सव्वं आभिणिबोहियं ॥
[नंदिसूत्र-३७, गाथा-८०]
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मूलसूत्रम्- -
तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १-१४ ॥
* तस्याधारस्थानम्(१) से किं तं पच्चक्खं ? पच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं । तं जहा-इन्दियपच्चक्खं. नोइन्द्रियपच्चक्खं च ।
[नदिसूत्र-३] (२) से किं तं पच्चक्खे-पच्चक्खे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा-इंदिय पच्चक्खे अनोइंदिय पच्चक्खे अ।
[अनुयोगद्वार, सूत्र-१४४]
मूलसूत्रम्
अवग्रहहावायधारणाः ॥ १-१५ ॥ * तस्याधारस्थानम्(१) से कि तं सुनिस्सिनं? चउन्विहं पण्णत्तं । तं जहा-(१) उग्गहे (२) ईहा (३) अवाप्रो (४) धारणा ।
- [नंदिसूत्र-२७] (२) आभिणिबोहे चउविहे पण्णत्ते । तं जहा-(१) उग्गहो (२) ईहा (३) अवानो (४) धारणा ।
[भग० शतक-८, उद्देश-२, सूत्र-३१७]
मूलसूत्रम्
बहु-बहुविध-क्षिप्र-निश्रिताऽसंदिग्धध्र वाणां सेतराणाम् ॥ १-१६ ॥ * तस्याधारस्थानम्(१) छव्विहा उग्गहमती पण्णत्ता। तं जहा-(१) खिप्पमोगिण्हइ (२)
बहुमोगिण्हइ (३) बहुविधमोगिण्हइ (४) धुवमोगिण्हइ (५)
अणिस्सियमो गिण्हइ (६) असंदिद्धमोगिण्हइ । (२) छव्विहा ईहामति पण्णत्ता। तं जहा-खिप्पमोहति बहुमोहतिजाव
असंदिद्धमोहति ।
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(३) छव्विहा धारणा पण्णत्ता। तं जहा-बहुं धारेई, बहुविहं धारेई, पोराणं धारेई, दुद्धरं धारेई, अणिस्सियं धारेई, असंदिद्धमं धारेई इति ॥
[स्थानाङ्ग-स्थान ६, उद्देश-३, सूत्र-५६०]
मूलसूत्रम्
। १-१७॥
* तस्याधारस्थानम्(१) से कि तं उग्गहे ? उग्गहे दुविहे पन्नत्ते । तं जहा-अथ्थुग्गहे य वंजणुग्गहे य।
[नंदिसूत्र-२६] (२) से कि तं प्रथ्थुग्गहे ? अथ्थुग्गहे छविहे पण्णत्ते । तं जहा-सोइन्दिय
अत्युग्गहे, चकिखदिय अत्युग्गहे, घाणिदिय अत्युग्गहे, जिभिदिय प्रत्थुग्गहे, फासिदिय प्रत्थुग्गहे, नोइन्दिय अत्थुग्गहे ।
[नंदिसूत्र-३०]
मूलसूत्रम्
व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥ १-१८ ॥ * तस्याधारस्थानम्(१) सुयनिस्सिए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा-अत्थोग्गहे चेव वंजणोवग्गहे चेव ।
स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश-१, सूत्र-७१/१६] (२) उग्गहे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य ।
[भगवती शतक-८, उद्देश-२, सूत्र-३१७]
मूलसूत्रम्
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १-१६ ॥ * तस्याधारस्थानम्
से कि तं वंजणुग्गहे ? वंजणुग्गहे चउविहे पण्णत्ते । तं जहा-सोइन्दियवंजणुग्गहे, घाणिदिय वंजणुग्गहे, जिभिदियवंजणुग्गहे, फासिदियवंजणुग्गहे ।
[नंदिसूत्र-२६]
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मूलसूत्रम्
* तस्याधारस्थानम्
श्रुतं मतिपूर्वं द्वचनेकद्वादशभेदम् ।। १२० ॥
(१) मई पुब्वं जेरण सुध्रं न मई सुपुव्विश्रा ।
[ नं दिसूत्र - २४ ]
(२) सुयनाणे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - अंगपविट्ठ े चेव, श्रंगबाहिरे चेव । [स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश - १, सूत्र - ७१ / २१] (३) से कि तं अंगपविट्ठ ? दुवालसविहं पण्णत्तं । तं जहा - [१] श्रायारो [२] सुयगडे - [३] ठाणं [४] समवाश्रो [५] वियाहपण्णत्ती [६] नायाधम्मकहाश्रो [७] उवासगदसा [८] अंतगडदसाश्रो [C] प्रणुत्तरोववाइश्र दसानो विवाग [१२] दिट्टिवा ।
[१०] पण्हावागरणाई
[११]
[नं दिसूत्र- ४४]
मूलसूत्रम्
द्विविधोऽवधिः ॥ १-२१॥
* तस्याधारस्थानम्
तं
( १ ) से किं तं श्रहिनाणं पच्चकुखं । श्रहिनाण- पच्चकखं दुविहं । जहा - भवपच्चइियं च खाग्रोवसमिश्रं च ।
मूलसूत्रम्
(२) श्रहिना दुविहे पण्णत्ते ।
चेव ।
भवप्रत्ययो नारक - देवानाम् ।। १-२२ ।।
* तस्याधारस्थानम् -
[ नंदिसूत्र - ६ ] तं जहा - भवपच्चइए चेव खप्रोवसमिए [स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश - १, सूत्र - ७१ / १३ ]
(१) दोहं भव पचचइए पण्णत्ते ।
तं जहा - देवाणं चेव नेरइयाणं चेव || [स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश - १, सूत्र- ७१ / १४]
(२) से किं तं भवपच्चइयं ? दुण्हं तं जहा- देवाण य नेरइयाण य ॥
( ७ )
[ नंदिसूत्र ७]
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मूलसूत्रम्
यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ १-२३ ॥
* तस्याधारस्थानम्(१) से किं तं खानोवसमिश्र ? खानोवसमिनं दुण्हं तं जहा-मणुसाय
पंचिदिय तिरिक्ख जोणियाण य । को हेऊ, खानोवसमियं ? खामोवसमियं तयावरणिज्जाणं कम्माणं उदिण्णाणं खएणं अणुदिण्णाणं उवसमेणं प्रोहिणाणं समुप्पज्जइ ।
[नंदिसूत्र-८] (२) दोण्हं खग्रोवसमिए पण्णत्ते । तं जहा-मणुस्साणं चेव पंचिदिय तिरिक्त जोणियाणं चेव ।
__[स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश-१, सूत्र-७१/१५] (३) छविहे प्रोहिनाणे पण्णत्ते। तं जहा-अणुगामिए, अणणुगामिए, वड्ढमाणिए, हीयमाणए, पडिवाई, अपडिवाई।
[स्थानाङ्ग-स्थान-६, उद्देश-३, सूत्र-५२६ ] (४) गुणपडिवन्नस्स अणगारस्स प्रोहिनाणं समुप्पज्जई तं समासो छविहं
पण्णत्तं । तं जहा-१प्राणुगामियं, २ अरणाणुगामियं, ३ वढ्ढमारिणयं, ४ हीयमारणयं, ५ पडिवाइयं, ६ अप्पडिवाइयं ।
[नंदिसूत्र-६]
मूलसूत्रम्
ऋजु-विपुलमती मनःपर्यायः ॥ १-२४ ॥ * तस्याधारस्थानम्(१) मणपज्जवणाणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-उज्जुमति चेव, विउलमति चेव ।
[स्थानाङ्ग-स्थान-२, उद्देश-१, सूत्र-७१/१६] (२) तं च दुविहं उपवज्जइ। तं जहा-उज्जुमईय, विउलमई य ॥
[नंदिसूत्र-१८] मूलसूत्रम्
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ १-२५ ॥
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* तस्याधारस्थानम्(१) उज्जुमईणं अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ ते चेव विउलमई, अब्भहियतराए विउलतराए विशुद्धतराए वितिमिरतराए जारणइ पासइ ।
[नंदिसूत्र-१८] (२) तं सपासपो चउन्विहं पण्णत्तं । तं जहा-दव्वरो, खित्तमो, कालो,
भावो। तत्थ दव्वप्रोणं उज्जमईणं अणंते प्ररणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ। ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ । खेत्तोरणं उज्जुमई जहन्नेरण अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं अहे जाव ईमोसेरयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्ले खुड्डग पयरेउड्ढंजाव जोइसस्स उवरिमतलेतिरियं जाव अंतो मणुस्सखिते अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरस्सकम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णए अंतरदोवरणेसु सण्णीणं पंचिदियाणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ । तं चेव विउलमइ अड्ढाइज्जेहिं अंगुलेहि अभहियतरं विउलतरं विसुद्धतरं वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ पासइ । कालोणं उज्जुमइ जहण्णेणं पलिग्रोवमस्स असंखिज्जइ भागं उक्कोसेणंवि पलिनोवमस्स असंखिज्जइ भागं अतीयमरणागय वा कालं जाणइ पासइ । तं चेव विउलमइ अब्भहियतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ, भावग्रोणं उज्जुमइ अणते भावे जाणइ पासइ सव्वभावारणं अरणंतभागं जाणइ पासइ तं चेव विउलमइणं अभहियतरागं विउलरागं विसुद्धतरागं जाणइ पासमणपज्जवएणाण पुरण जण मण परिचितिपत्थपागडणं माणुसखित्तनिबद्धं गणा पच्चइयं चरित्तवनो सेतमरणपज्जवरणारणं ।
[नंदिसूत्र-१८] मूलसूत्रम्
विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः ॥ १-२६ ॥ * तस्याधारस्थानम्---
भेद विसय संठाणे, अभितर वाहिरेय देसोही। उहिस्सय खयवुड्ढी, पडिवाई चेव अपडिवाई ॥
[प्रज्ञापना सूत्र पब-३३, गाथा-१]
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इड्ढीपत्त अपमत्तसंजय सम्मदिट्ठि पज्जतग संखेज्जवासाउ अकम्मभूमिश्र गन्भवक्कंतिम मणुस्सारणं मणपज्जवनाणं समुप्पज्जई। .
[मनःपर्यवज्ञानाधिकारे द्रव्यादिचतुर्भेदे एतद् विषयस्य श्रीनन्दिसूत्रे वर्णनमस्ति ।]
मूलसूत्रम्
मति-श्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ १-२७ ॥ * तस्याधारस्थानम्(१) तत्थ दव्वरोणं आभिरिणबोहियरणारणी पाएसेणं सव्वाइं दव्वाइं जाणइ
न पासइ, खेत्तप्रोणं प्राभिरिणबोहियणाणी पाएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ न पासइ, कालोणं आभिणिबोहियणाणी पाएसेरणं सव्वकालं जाणइ न पासइ, भावनोणं आभिरिणबोहियणाणी आएसेणं सव्वे भावे जारणइ न पासइ।
[नंदिसूत्र-३७] (२) से समासयो चउविहे पण्णत्ते । तं जहा-दव्वरो, खित्तमो, कालो,
भावो। तत्थ दव्वोणं सुप्रणाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ, खित्तप्रोणं सुप्रणाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ, कालोणं सुप्रणाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावनोणं सुप्रणाणी उवउत्ते सव्वे भावे जारणइ पासइ ॥
[नंदिसूत्र-५८] मूलसूत्रम्
रूपिष्ववधेः ॥१-२८ ॥ * तस्याधारस्थानम्
(१) प्रोहिनाणीजहन्नणं अणताइं रूविदव्वाइं जारणइ पासइ, उक्कोसेणं सव्वाइं रूविदव्वाइं जारणइ पासइ ।
[नंदिसूत्र-१६] (२) प्रोहिदसणं प्रोहिदंसणिस्स सव्वरूविदव्वेसु न पुण सव्वपज्जवेसु ॥
[अनुयोगद्वार, सूत्र-१४४] (३) तं समासपो चउन्विहं पण्णत्तं। तं जहा-दव्यो, खेत्तप्रो, कालो,
( १० )
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भावो। तत्थ दव्वग्रो प्रोहीनाणी जहन्नणं अणंताई रूविदव्वाइं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं सव्वाइं रुविदव्वाइं जाणइ पासइ । खेत्तप्रोणं मोहिनाणी जहण्णणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं असंखिज्जाइं अलोगलोगपमाणमित्ताई खंडाइं जाणइ पासइ। कालोणं प्रोहिनाणी जहण्णणं प्रावलिआए असंखिज्जाइ भागं जारणइ पासइ, उक्कोसेरणं असंखिज्जाओ उसप्पिणीग्रो प्रोसप्पिणीओ अईयं अणागयं च कालं जारगइ पासइ। भावोरणं ओहिनाणी जहन्नणं अगते भावे जाणइ पासइ, उक्कोसेणं वि अणंतभावे जाणइ पासइ, सव्वभावारणं अरणंतभगं जाणइ पासइ ।
मूलसूत्रम्
तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य ॥ १-२६ ॥
* तस्याधारस्थानम्
सव्वत्थोवा मणपज्जवणाणपज्जवा। प्रोहिणाणपज्जवा अनन्तगुणा, सुयणाणपज्जवा अनन्तगुणा, आभिणिबोहियनाणपज्जवा, अनंतगुणा, केवलनाणपज्जवा अनंतगुणा ॥
[भगवतीशतक-८, उद्देश-२, सूत्र-३२२]
मूलसूत्रम्
सर्वद्रव्य-पर्यायेषु केवलस्य ॥ १-३० ॥ * तस्याधारस्थानम्(१) केवलदसणं केवलदंसणिस्स सव्वदव्वेसु अ, सव्वपज्जवेसु य ॥
[अनुयोगद्वार दर्शनगुणप्रमाण सूत्र-१४४] (२) तं समासपो चउन्विहं पण्णत्तं । तं जहा-दव्वरो, खित्तो, कालो,
भावनो। तत्थ दव्वणं केवलनाणी सव्व दवाई जारणइ पासइ । खित्तप्रोणं केवलनाणी सव्वं खित्तं जाणइ पासइ । कालोणं केवलनाणी सव्वं कालं जाणइ पासइ। भावप्रोणं केवलनाणी सव्वे भावे जाणइ पासइ। अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलं नाणं ॥
[नंदिसूत्र-२२]
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मूलसूत्रम्
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्म्यः ॥ १-३१ ॥ * तस्याधारस्थानम्(१) प्राभिणिबोहियनाणसाकारो व उत्ताणं भंते ! चत्तारि णाणाई भयरणाए।
[व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक-८, उद्देश-२, सूत्र-३२०] (२) जे णाणी ते अत्थेगतिया दुणाणी अत्थेमतिया तिणाणी अत्थेगतिया
चउणाणी अत्थेगतिया एगणाणी। जे दुणाणी ते नियमा प्राभिरिणबोहियरणारणी सुयणारणी य, जे तिणाणी ते आभिणिबोहियरणारणी सुतणाणी अोहिणाणी य, अहवा आभिणिबोहियरणारणी सुयरणारणी मणपज्जवणाणी य, जे चउणाणी ते नियमा आभिणिबोहियणाणी सुतणाणी अोहिणाणी मणपज्जवणाणी य । जे एगणाणी ते नियमा केवलणाणी।
[जीवाभिगम प्रतिपत्ति-१, सूत्र-४१] मूलसूत्रम्
मति-श्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ १-३२ ॥
* तस्याधारस्थानम्(१) प्रणाणपरिणामेणं भंते ! कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे
पण्णत्ते । तं जहा-मइप्रणाण परिणामे, सुयप्रणाण परिणामे विभंगणाणपरिणामे ।
[प्रज्ञापना पद-१३/७] (२) अन्नाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते । तं जहा-मइअन्नाणे सुयअन्नाणे विभंगन्नाणे।
[व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक-८, उद्देश-२, सूत्र-२१७] (३) अन्नाण किरित्ता तिविधा पन्नते। तं जहा-मति अन्नाण किरिया, सुत्त अन्नाण किरिया, विभंगनाण किरिया ।
[स्थानाङ्ग-स्थान-३, उद्देश-३, सूत्र-१८७] (४) अविसेसिया मई मइनाणं च....अविसेसियं सुयं सुयनाणं च, सुयअन्नाणं
[नंदिसूत्र-२५]
च....।
(
१२
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मूलसूत्रम्
सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् ॥ १-३३ ॥ * तस्याधारस्थानम्
से किं तं मिच्छासुयं । जं इमं अण्णारिणएहि, मिच्छादिट्टिएहि, सच्छंदबुद्धिमइ विगप्पि, इत्यादि।
[नंदिसूत्र-४२]
मूलसूत्रम्
नेगम-संग्रह-व्यवहार सूत्र-शब्दाः नयाः ॥ १-३४ ॥
आद्यशब्दौ द्वि-त्रिभेदौ ॥ १-३५ ॥ * तस्याधारस्थानम्
सत्तमूलणया पण्णत्ता। तं जहा-णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसूए, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूए।
[अनुयोगद्वार, सूत्र-१३६ । स्थानाङ्ग-स्थान-७, उद्देश-३, सूत्र-५५२]
॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य प्रथमाऽध्याये संगृहीते जैनागम
प्रमारणरूप-आधारस्थानानि समाप्तम् ॥
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परिशिष्ट-२
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* सूत्रानुक्रमणिका *
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सूत्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थ-श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद् वा। जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । . नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः । प्रमाण-नयरधिगमः । निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः । सत्-संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्च । मति-श्रुतावधि-मनःपर्यय-केवलानि ज्ञानम् । तत् प्रमाणे। आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।। मतिः स्मृतिः संज्ञा-चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । अवग्रहहापायधारणाः । बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितानुक्तध्र वाणां सेतराणाम् । अर्थस्य । व्यंजनस्यावग्रहः । न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् । श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् । द्विविधोऽवधिः ।
भवप्रत्ययो नारक-देवानाम् । ___ यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ।
( १४ )
222
२१.
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सूत्रांक
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
२६.
३०.
३१.
३२.
३३.
३४.
३५.
क्रम
तदनन्तभागे मनः पर्यायस्य ।
सर्वद्रव्य - पर्यायेषु केवलस्य ।
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः । मति श्रुतावयविपर्ययश्च ।
सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् । नैगम-संग्रह-व्यवहारजु सूत्रशब्दा नयाः । आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ।
।। इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य प्रथमाध्याये सूत्रानुक्रमणिका समाप्ता ॥
परिशिष्ट-३
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
सूत्र
ऋजु - विपुलमती मनःपर्यायः । विशुद्ध प्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ।
८.
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः ।
मति श्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ।
रूपिष्ववधः ।
* प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका *
सूत्र
अर्थस्य ।
वग्रहापायधारणा । आद्यशब्दौ द्वि-त्रिभेदौ ।
आद्ये परोक्षम् ।
ऋजु - विपुलमती मनः पर्यायः ।
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः । जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।
तत् प्रमाणे ।
( १५ )
सूत्रांक
१७
१५
३५
११
२४
३१
४
पृष्ठ सं.
१०
५५
५६
५७
६०
६१
६२
६२
२८५
६४
६६
६६
७१
७३
पृष्ठ सं.
४१
३६
७३
३२
५५
६४
१०
३०
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________________
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१२.
२
सूत्रांक पृष्ठ सं. तत्त्वार्थश्रद्धानं स तन्निसर्गादधिगमाद् वा । तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य ।
२६६२ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।
१४ .३५ द्विविधोऽवधिः ।
२१ ४६ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ।
१६ ४४ नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः । निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरणस्थितिविधानतः । नैगम-सङ्ग्रह-व्यवहारर्जु सूत्रशब्दानयाः । प्रत्यक्षमन्यत् । प्रमाण-नयैरधिगमः । बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रिताऽसंदिग्ध-ध्र वाणां सेतराणाम् । भवप्रत्ययो नारक-देवानाम् । मति-श्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु । मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च । मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् । मतिस्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् । रूपिष्ववधेः । विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः । विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । व्यञ्जनस्यावग्रहः । श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ।
सत्-संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तरभावाल्प-बहुत्वैश्च । ३३. सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् । ३४. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । ३५. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य प्रथमाध्याये प्रकारादि - सूत्रानुक्रमणिका समाप्ता ॥
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परिशिष्ट-४
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सूत्र सं.
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे श्रीजैनश्वेताम्बर-दिगम्बरयोः सूत्रपाठ-भेदः Panamam ammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm श्रीश्वेताम्बरग्रन्थस्य सूत्रपाठः
श्रीदिगम्बर ग्रन्थस्य सूत्रपाठः ___ सूत्राणि
卐 सूत्राणि सूत्र सं. १५. अवग्रहेहापायधारणाः ।
१५. अवग्रहेहावायधारणाः । १६. बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रिताऽसंदिग्ध- १६. बहुबहुविधक्षिप्रानिसृतानुक्तध्र वाणां ध्र वाणां सेतराणाम् ।
सेतराणाम् । २१. द्विविधोऽवधिः ।
* अत्र सूत्रं नास्ति । २२. भवप्रत्ययोनारक-देवानाम् । २१. भवप्रत्ययोऽवधिदेव-नारकाणाम् । २३. यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्प
२२. क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ।
शेषाणाम् । २४. ऋजु-विपुलमती मनःपर्यायः । २३. ऋजु-विपुलमती मनःपर्ययः । २५. विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधि- २५. विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधि मनःपर्याययोः ।
___ मनःपर्यययोः । २७. मति-श्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्व- २६. मति-श्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।
सर्वपर्यायेषु । २८. तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य ।
२८. तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य । ३४. नैगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र-शब्दा- ३३. नैगम-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्दनयाः ।
समभिरूढवंभूता नयाः । ३५. आद्यशब्दौ द्वि-त्रिभेदौ ।
(
१७
)
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परिशिष्ट-५
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* तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् * ..
(इतिनामसार्थकमेव)
तत्त्व-अर्थ-तत्त्वार्थ-अधिगम-सूत्रम् - तत्त्वः - जीवाजीवादीनां पदार्थानां यथावस्थितस्वभावस्तत्त्वः । अर्थात्-पदार्थानां स्वनैसर्गिकस्वरूपेषु यथास्थितिस्तत्त्वः । संसारे जीवाः जीवस्वरूपेषु अजीवा: अजीवस्वरूपेषु नित्यं वर्तन्ते इति । यत् क्वचिदपि जीवाः अजीवाः नैव भवन्ति, अजीवाश्च जीवाः नैव जायन्ते । हिन्दी भावार्थजीव और अजीव दोनों पदार्थों की अपने स्वभाव में स्थिति तत्त्व है। जो पदार्थ जिस भाव में नैसर्गिक है, उसका स्वरूप अपरिवर्तनीय है । उसे तत्त्व कहते हैं । जीव कभी अजीव में परिवर्तित नहीं होते तथा अजीव कभी जीव में परिवर्तित नहीं होते। उस स्थिति का नाम तत्त्व है । अर्थः - ज्ञायते इति अर्थः । यन्निश्चितं निश्चीयते यत्र तदर्थः । तत् वै यदर्थं निर्णीयमाप्नोति तदर्थस्तत्त्वार्थः । पदार्थानां वस्तुतः निर्णय येन क्रियते तदर्थः । हिन्दी भावार्थनिश्चित जो जाना जावे, उसे अर्थ कहा गया है। जो निश्चय निश्चित किया जाय, अर्थात् जिस निश्चयात्मक सत्य को निश्चित कर कहा जाये उसे अर्थ कहते हैं।
( १८ )
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तत्त्वार्थः
तत्त्वैरर्थनिश्चयं तत्त्वार्थः । पदार्थानां निश्चयात्मिका नैसगिकी अवस्थायाः मूलस्वरूपैः यथास्थित्याः प्राकृतिकमर्थग्रहणं तत्त्वार्थः । तत्त्वार्थेषु प्रक्षेपादितत्त्वानां समवायं वाऽन्यमतप्रतिपादितं अपरस्वरूपं नैव वर्तते । यथा वस्तुनः यथार्थतः अर्थग्रहणं तत्त्वार्थः ।
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* हिन्दी भावार्थ
जो पदार्थ जिस मौलिक स्वरूप में हो, उसे उसी रूप सत्यता से जानना तत्त्वार्थ है । तत्त्व का अर्थ ग्रहण करना एवं निर्णयपूर्वक यथार्थ विश्लेषण करना तत्त्वार्थ है ।
० श्रधिगमम् -
ज्ञानं विशेषज्ञानं वा अधिगमम् । यद् अधिगम्यते सामान्येन विशेषेण वा तद् अधिगमम् । यथार्थतः सामान्यं वा विशेषं ज्ञानं तत्त्वार्थैः तदधिगमम् । * हिन्दी भावार्थ
1
ज्ञान या विशेष ज्ञान चाहे सामान्यरूप से ग्रहण किया गया हो, या विशेषरूप से अधिगम हुआ हो, उसे अधिगम कहते हैं । ज्ञान को संक्षेप से, सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र, विज्ञानक्षेत्र, सामान्य तथा विशेषरूप में अन्तिमावस्था अर्थात् परमावस्था उत्कृष्टस्थिति पर्यन्त अधिगम करना अधिगम है । आत्मज्ञान में इससे उत्कृष्ट ज्ञानप्राप्ति का अन्य कोई अधिगम नहीं है ।
→ सूत्रम् —
संक्षेपतः गाम्भीर्यविषयाणां प्रतिपादकत्वं सूत्रम् । सूत्रेषु विस्तृतानां विषयानां तत्त्वार्थानां वा युक्तियुक्तया संक्षेपेण व्याख्यानं कृतम् ।
शास्त्राणां तत्त्वार्थाः श्रागमानां भावाश्च सूत्रत्वेन प्रकीर्तिताः सन्ति येषु तत्त्वार्थानां गाम्भीर्यं बिन्दुषु सिन्धुरिवान्तर्हित वर्त्तते वा समाहितं वर्त्तते ।
* हिन्दी भावार्थ
संक्षेपरूप से, शास्त्रों के तत्त्वों की गाम्भीर्य विषय प्रस्तुति एवं शास्त्रों के मुख्य सिद्धान्तों का विशदीकरण सूत्र कहा जाता है ।
( १६ )
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सर्वज्ञ विभु श्रीतीर्थंकरभगवन्तों ने अर्थरूप त्रिपदी सुनाई, उससे ही श्रुतकेवली गणधरभगवन्तों ने सूत्ररूपे सारी द्वादशाङ्गी रची और ज्ञानी महापुरुषोंप्राचार्य महाराजादि द्वारा शास्त्रों की व्याख्या का विस्तार संक्षेप में सूत्रों में किया गया है। सूत्र एक प्रकार से सिन्धु को बिन्दु रूप में अन्तर्हित करने की क्षमता वाले होते हैं। अर्थात् 'बिन्दु में सिन्धु' सूत्र है।
5 तत्त्वार्थाधिगमम्'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाः सप्ततत्त्वाः' एतेषां तत्त्वानां यथार्थस्वरूपैः मौलिकत्वेन ग्रहणं अर्थात् स्वभावरूपैः तद् स्वरूपस्यैवार्थग्रहणं तत्त्वार्थाधिगमम् ।
* हिन्दी भावार्थ
जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इन सातों तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप से तद् स्वरूपजन्य बोध करना तत्त्वार्थाधिगम कहा जाता है। तत्त्वों का निश्चयात्मक स्वरूप ही होता है तथा उनका उसी स्वरूप में बोध होना तत्त्वार्थाधिगम है। तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्तत्त्वार्थानां सूत्राणां पुष्पस्तबकमिव ग्रन्थना तत्त्वार्थाधिगमसूत्राणि । तत्त्वार्थसूत्राणां ग्रन्थना गुम्फना वा रचना सूत्रकारमहर्षिश्रीउमास्वातिवाचकप्रवरेण कृता ।
यतः तत्त्वार्थाधिगमसूत्रेति ख्यातः ग्रन्थोऽयम् । * हिन्दी भावार्थ
तत्त्वार्थों की सूत्ररूप में गुम्फना या रचना प्रसिद्ध सूत्रकार महर्षि पूर्वधर वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति महाराज द्वारा की गयी है। अतः यह ग्रन्थ 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्' के नाम से सुप्रसिद्ध है ।
विजय सुशीलसूरिः
विजयादशमी
दिनांक ६-१०-६२
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लेटा
जिला-जालोर, राजस्थान
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है। आपने लगभग १२५ से भी अधिक पुस्तकों की रचना की है। साहित्य-सृजन का आपका उद्देश्य है मानवीय मूल्यों-प्रेम, सेवा, करुणा, प्रभभक्ति और परमार्थ भावों को जागृत करना। आपकी लघता में विनय की पराकाष्ठा झलकती है। ज्ञान-गरिमा को आपने विनय में समाविष्ट कर लिया है। तीर्थोद्वार में आपकी रुचि अद्वितीय है। आप कहते हैं- तीर्थ संस्कृति के अनपम केन्द्र हैं। समाज को सप्तव्यसनों से मुक्त करने हेतु वे कर्मयोगी सतत जागरूक हैं। कवि महर्षि भर्तृहरि के शब्दों में वे 'अलंकरणं भवः' । हैं। वे हिन्दी, संस्कृत, 'प्राकृत, गुजराती आदि भाषाओं के पंडित हैं, तथा साहित्यशिरोमणि, सहृदय, महर्षि हैं। करुणासागर को शत-शत प्रणाम।
अलंकरण
१. साहित्यरल, शास्त्रविशारद एवं कवि भूषण
अलंकरण- श्री चरित्रनायक को मंडारा में पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय-दक्ष सूरीश्वरजी म.सा. के वरदहस्त से अर्पित हैं। जैनधर्मदिवाकर- वि.सं. २०२७ में श्री जैसलमेर तीर्थ के प्रतिष्ठा-प्रसंग पर श्री संघ
द्वारा। ३. मरुधर देशोद्धारक- वि.सं. २०२८ में रानी
स्टेशन के प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ४. तीर्थ प्रभावक- वि.सं. २०२९ में श्री
चंवलेश्वर तीर्थ में संघमाला के भव्य प्रसंग पर श्री केकड़ी संघ द्वारा। राजस्थान दीपक- वि.सं. २०३१ में पाली
नगर में प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ६. शासनरत्न-वि.सं. २०३१ में जोधपुर नगर
में प्रतिष्ठा-प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ७. श्री जैन शासन शणगार- वि.स.२०४९
मेड़ता शहर में श्री अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के प्रसंग पर
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