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प्रथमोऽध्यायः
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नासिका-नाक में प्रवेश न करें तथा शब्द कान के भीतर प्रवेश न करे; तब तक उन-उन विषयोंपदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता है।
सारांश यह है कि मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं। किस तरह ? सो कहते हैं कि-निमित्त कारण की अपेक्षा मतिज्ञान के दो भेद हैं। एक इन्द्रियनिमित्तक और दूसरा अनिन्द्रियनिमित्तक । पाँच इन्द्रियों और छठे मन इन छह को प्रर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा इन चारों के साथ गिनने से चौबीस भेद होते हैं और इन्हीं में व्यंजनावग्रह के चार भेद मिलाने से अट्ठाईस भेद होते हैं । इन अटठाईस भेदों को बह ग्रादि बारह भेदों के साथ गिनने से तीन सौ छत्तीस (३३६) भेद होते हैं |२४४=८,४४५=२०,८+२० =२८,२८x१२-३३६ भेद मतिज्ञान के होते हैं]
* श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ३३६ भेदों का यन्त्र *
मन
चक्षु । स्पर्शन | रसना | घ्राण | श्रोत्र (आँख) (त्वचा) (जीभ) (नाक) | (कान)
कुल भेद
५
५
२८
५ । ५ ।
|
२८
|
५ | ५
|
[१] बहु ४ । ४ । ५ । ५ । ५ [२] अबहु । ४ । ४ । ५ ५ ५ [३] बहुविध | ४ । ४ । ५ ५ ५ । [४] अबहुविध ४ । ४ । ५ । ५ ५ | [५] क्षिप्र । ४ । ४ । ५ । ५ । ५ | | [६] अक्षिप्र । ४ । ४ । ५ । ५ । ५ । | [७] निश्रित | ४ | ४ । ५ । । [८] अनिश्रित ४ [६] असंदिग्ध ४ । ४ । ५ । [१०] संदिग्ध [११] ध्रुव | ४- ४ [१०] अध्रुव ।-४ ४ । ५। ५ । ५
३४०
इनमें अश्रुतनिश्रितमतिज्ञान के प्रौत्पातिकी आदि चार भेद उमेरते हुए ३४० भेद मतिज्ञान के होते हैं।