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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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सिर्फ योग्य निकटता होनी चाहिए । इसीलिए पटुक्रम की धारा में सबसे पूर्व अर्थावग्रह मान्य है तथा मन्दक्रम धारा में व्यंजनावग्रह का स्थान है, किन्तु पटक्रम धारा में व्यंजनावग्रह नहीं है। यद्यपि अपाय की दृष्टि से अर्थावग्रह भो अव्यक्त ज्ञान है, किन्तु व्यंजनावग्रह की दृष्टि से अर्थावग्रह व्यक्त ज्ञान है। व्यंजनावग्रह में तो ज्ञान की अंश मात्र भी अभिव्यक्ति नहीं होती। अर्थावग्रह में 'कुछ है' ऐसी सामान्य ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है।
यहाँ पर इतना ध्यान अवश्य रखना है कि वस्तु-पदार्थ का व्यञ्जनावग्रह हो जाय तो ही अर्थावग्रह होता है, ऐसा नियम है; किन्तु व्यंजनावग्रह हो जाय तो अर्थावग्रह होता ही है, ऐसा नियम नहीं है ॥१८॥
* व्यंजनावग्रहस्य विशेषता * न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १६ ॥
* सुबोधिका टीका * चक्षुषा मनसा च व्यञ्जनस्य अर्थाद् द्रव्यस्य अवग्रहो न जायते, किन्तु अवशिष्टयं : चतुभिरिन्द्रियैरेव अवग्रहो भवति । अनेन प्रकारेण मतिज्ञानस्य द्वि-चतुरष्टाविंशतिभेदानां बह्वादिषड्भिः सह गुणनेन अष्टष्टयधिकमेकशतं भेदाः जायन्ते । तथा अष्टाविंशतेश्च द्वादशसङ्ख्यागुणनेन षट् त्रिंशदधिकशतत्रयं (३३६) भेदाः श्रुतनिश्रितमतिज्ञानस्य भेदाः प्रभवन्ति ।। १६ ॥
ॐ सूत्रार्थ-व्यंजनावग्रह चक्षुरिन्द्रिय और मन के द्वारा नहीं होता अर्थात् नेत्र और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता है ।। १६ ।।
卐 विवेचन ॥ नेत्र और मन के द्वारा होने वाले मतिज्ञान में व्यंजनावग्रह के बिना सीधा ही अर्थावग्रह होता है। कारण कि-वहाँ पर उपकरणेन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध-संयोग की आवश्यकता नहीं रहती है। नेत्र और मन दोनों केवल योग्य सन्निधान से या अवधान-स्मरण मात्र से ही अपने ग्राह्य विषय-पदार्थ को जान लेते हैं। स्पर्शनेन्द्रियादि चार इन्द्रियाँ तो उनके साथ जब अपने विषय का सम्बन्ध-संयोग हो जाय तभी उसे जान सकती हैं। समीप या दूर-दूरतर रहे हए मन्दिरों, मूत्तियों, तीर्थों, पर्वतों, समुद्रों, नदियों, वृक्षों, मुकामों तथा प्राणियों आदि को तो चक्षु-नेत्र ग्रहण करता हैदेखता है तथा हजारों कोस दूरवर्ती-सुदूरवर्ती वस्तु-पदार्थ का चिन्तन तो मन कर सकता है। इसलिए नेत्र और मन को अप्राप्यकारी कहा है और स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय इन चारों को प्राप्यकारी कहा है। कारण कि ये चार इन्द्रियग्राह्य विषय के साथ संयुक्त होकर उस विषय-पदार्थ को ग्रहण करती हैं। जब तक पानी आदि का स्पर्श शरीर के साथ न हो, गुड़-शक्कर प्रादि रसना-जीभ पर न रखी जाय, पूष्प-फल-अत्तर आदि के रजकरण