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प्रथमोऽध्यायः
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जिनसे अर्थ का ज्ञान हो जाय, वही व्यंजन है। अवग्रह तो दोनों ही प्रकार के पदार्थ का हुआ करता है, व्यंजन का भी और अर्थ का भी; जिनको क्रम से व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह कहते हैं । उपकरणेन्द्रिय और विषय के परस्पर सम्बन्ध-संयोग होते ही जो अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान होता है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं तथा व्यंजनावग्रह के पश्चात् 'कुछ है' ऐसा सामान्य ज्ञान रूप अर्थावग्रह होता है।
सारांश यह है कि इन्द्रियों के साथ ग्राह्य विषय का सम्बन्ध-संयोग हुए बिना ज्ञानधारा का आविर्भाव होना पटुक्रम है। इसका प्रथम अंश अर्थावग्रह और अन्तिम अंश स्मति रूप धारणा है। जीव-आत्मा के मन्दक्रम से ग्राह्य विषय का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध-संयोग होने के बाद, ज्ञानधारा का आविर्भाव होता है; जिसका पहला अंश अव्यक्ततम, अव्यक्ततर और व्यंजनावग्रह ज्ञान है और दसरा अंश अर्थावग्रह तथा अन्तिम अंश स्मतिरूप धारणा है ।
इन्द्रिय और विषय सम्बन्ध-संयोग की सापेक्षता से मन्दक्रम की ज्ञानधारा का प्राविर्भाव होता है। इस बात को स्पष्टता से समझाने के लिए सकोरे का उदाहरण-दष्टान्त इस प्रकार है। जैसे-- भट्री में से तत्काल बाहर निकले हए अतिरुक्ष सकोरे में जल की एक बूद डालने के साथ तत्काल वह सकोरा बूद सोख लेता है-चस लेता है, जिससे उसमें जल की बूद देखने में भी नहीं पाती है। इस तरह उसमें कितना ही जल (पानी की बूदें) डालते रहो, वह सकोरा सोखता ही जायगा; किन्तु अन्त में वह भीग कर उन जल की बूंदों को सोखने में जब असमर्थ होगा तब वे जलबिन्दू समूह के रूप में एकत्र होकर दिखाई देने लगेंगे। यहां यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि--प्रारम्भ में जो सबसे पहली पानी की बूद सकोरे में डाली गई थी, वह भी उसमें मौजूद थी, तो भी उस जलबूद का इस प्रकार से शोषण हा कि वह नेत्रों से दिखाई भी नहीं देती। जब क्रमश: जल-पानी का प्रमाण वृद्धि को प्राप्त हुआ तथा सकोरे की सोखने की शक्ति कम हुई तब उसमें प्रार्द्रता यानी गीलापन दिखाई देने लगा। ततपश्चात जल का शोषण नहीं हमा, किन्तु पानी एकत्र होकर दिखाई देने लगा। जब तक सकोरा पानी चूसता है तब तक उसमें पानी दिखने में नही आता, तो भी उसमें पानी नहीं है, ऐसा नहीं कहा जाता । कारण कि उसमें पानी है, किन्तु वह अव्यक्त है । सकोरा भीग जाने के बाद पानी व्यक्त होता है। उसी तरह प्रस्तुत व्यंजनावग्रह में ज्ञान अव्यक्त होता है और अर्थावग्रह में सामान्य रूप से व्यक्त होता है । जिस तरह मिट्टी के बनाये हुए किसी सकोरे आदि बर्तन के ऊपर पानी की बूद पड़ने से पहले तो वह व्यक्त नहीं होती है, किन्तु पीछे से वह धीरे-धीरे क्रमशः पड़तेपडते व्यक्त हो जाती है; उसी तरह कहीं-कहीं कानों पर पड़ा हया शब्द आदि भी पहले तो अव्यक्त होता है, बाद में व्यक्त हो जाता है । इसी प्रकार अव्यक्त वस्तु-पदार्थ को व्यंजन कहते हैं और व्यक्त को अर्थ कहते हैं । व्यक्त के अवग्रहादि चारों होते हैं तथा अव्यक्त का तो अवग्रह ही होता है । इस विषय के सम्बन्ध में पटुक्रम शीघ्रगामी धारा के लिए दर्पण का भी दृष्टान्त पाता है। जैसे-पाईने-दर्पण के सामने आई हुई वस्तु-पदार्थ का प्रतिबिम्ब तत्काल दिखाई देता है। इसके लिए दर्पण के साथ बिम्बत वस्तु-पदार्थ के स्पर्श रूप साक्षात् संयोग की आवश्यकता नहीं रहती है, परन्तु प्रतिबिम्बग्राही दर्पण और प्रतिबिम्बित वस्तू-पदार्थ का संयोग स्थान संनिधान-सामीप्य अवश्य है इसलिए उसके सामने होते ही प्रतिबिम्ब पड़ता है। वैसे ही नेत्र के सामने आई हुई वस्तु-पदार्थ सामान्य रूप से तत्काल दिखाई देती है । इसके लिए वस्तु-पदार्थ का और नेत्र का संयोग सापेक्ष नहीं है। जैसे कान और शब्द के संयोग की सापेक्षता है वैसा नहीं है, तो भी दर्पण के समान नेत्र और वस्त-पदार्थ की