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________________ १९ ] प्रथमोऽध्यायः [ २६ शमिक भाव में होता है। सारांश यह है कि सम्यग्दर्शन कहीं औपशमिक, कहीं क्षायिक और कहीं क्षायोपशमिक इस तरह तीनों ही भावरूपों में पाया जा सकता है, प्रौदयिक और पारिणामिक भाव में नहीं। (८) अल्पबहुत्व * प्रश्न--प्रौपशमिकादि तीनों भावों में रहने वाले तीनों ही सम्यग्दर्शनों का अल्पबहुत्व समान है या उसमें कुछ न्यूनाधिकता है ? उत्तर-प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन वाले जीवों का अल्पबहुत्व समान नहीं है, किन्तु सबसे अल्प है। अर्थात्-औपशमिक सम्यग्दर्शन वाले जीवों की संख्या सबसे न्यून-अल्प है। उससे असंख्येय गुणे क्षायिक भाव वाले सम्यग्दर्शनी हैं। अर्थात-क्षायिक सम्यग्दर्शन वाले जीवों की संख्या असंख्यात गुणी है। उससे भी असंख्य गुणे क्षायोपशमिक भाव वाले सम्यग्दर्शनी हैं। अर्थात्-क्षायोपशमिक भाव वाले जीवों की संख्या असंख्यात गुणी है। इस तरह होने पर भी सम्यग्दष्टियों की संख्या सबसे अधिक अनन्त गुणी है। कारण यही है कि केवली और सिद्ध भगवन्त दोनों मिलकर अनन्त हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव अनन्त गुण युक्त अनन्ता कहलाते हैं। [जीव द तत्त्वों का विस्तारपूर्वक स्वरूप जानने के लिए सातवें निर्देश ०' सूत्र में उल्लिखित निर्देश आदि छह अनुयोग तथा आठवें ‘सत्संख्या ०' सूत्र में निर्दिष्ट सत् आदि पाठ अनुयोग, सब (६+ ८) मिलकर चौदह (१४) अनुयोग बताये हैं। प्रमाण-नय आदि उपर्युक्त इन चौदह अनुयोगों के द्वारा सर्व भावों का जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। कारण कि-इनके द्वारा निश्चित तत्त्वार्थों का तथाभूत श्रद्धान करना यही 'सम्यग्दर्शन' है।] इस तरह सम्यग्दर्शन का संक्षिप्त वर्णन किया। अब मति आदि पाँच ज्ञान का वर्णन आगे बताये हुए सूत्रों से करते हैं ।।८।। अजीवादि तत्त्वों का * सम्यग्ज्ञानस्य भेदाः * मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यय-केवलानि ज्ञानम् ॥६॥ * सुबोधिका टीका * ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् । एतद् मूलविधानतः पञ्चविधं ज्ञानमस्ति । तद्यथा-मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं, अवधिज्ञानं, मनःपर्ययज्ञानं, केवलज्ञानं चेति । तस्योत्तरभेदानां वर्णनं पुरस्ताद् कथ्यते । -- * सूत्रार्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं ॥ ६ ॥ 卐 विवेचन ॥ मूल भेद की अपेक्षा ज्ञान पाँच प्रकार का है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इनके उत्तरभेदों का वर्णन प्रागे आने वाला है, इसलिए उनका वर्णन किया है। संक्षेप में ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा है कि-'ज्ञायते अनेनेति ज्ञानम' जिसके द्वारा
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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