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७० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १।३३ लोष्टं सुवर्णमिति सुवर्णं लोष्ट इति लोष्टं च लोष्ट इति सुवर्ण सुवर्णमिति तस्यैवमविशेषेण लोष्टं सुवर्णं सुवर्णं लोष्टमिति विपरीतमध्यवस्यतो नियतमज्ञानमेव भवति । तद्वन्मिथ्यादर्शनहतेन्द्रियमतेर्मति-श्रुतावधयोऽप्यज्ञानं भवन्तीति ।। ३३ ।।
सूत्रार्थ-'सत्-असत्' अर्थात् वास्तविक-अवास्तविक की विशेषता को जाने बिना उन्मत्तता के समान स्वेच्छाचारी होने से ज्ञान भी अज्ञान रूप होता है। अर्थात्उन्मत्त की तरह सत्-असत् के विवेक से शून्य ऐसे यदृच्छा ज्ञान को मिथ्याज्ञान अज्ञान कहा है ।। ३३ ।।
+ विवेचन ॥ अपनी मतिकल्पना के अनुसार अर्थ करने से उन्मत्त की तरह सत पदार्थ की और असत पदार्थ की विशेषता नहीं समझ सकने से मिथ्यादृष्टि का मति आदि ज्ञान अज्ञान स्वरूप होता है
जैसे-कर्मोदय से किसी उन्मत्त-पागल पुरुष की इन्द्रियों की और मन की शक्ति नष्ट हो जाने से, वह वस्तु-पदार्थ के स्वरूप को विपरीत ही ग्रहण करता है। वह मिट्टी के ढेले को सुवर्ण मानता है तथा सुवर्ण को ढेला मानता है। कभी ढेले को ढेला और सुवर्ण को सुवर्ण भी समझता है। जैसा समझता है वैसा कहता भी है। ऐसा होते हुए भी उसके ज्ञान को अज्ञान ही कहते हैं। इसी तरह जिस व्यक्ति की मिथ्यादर्शन कर्म के निमित्त से देखने की तथा विचार-विमर्श करने की शक्ति और योग्यता नष्ट हो गई है अथवा विपरीत हो गई है, वह व्यक्ति जीव-अजीवादि वस्तु-पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को न देख सकता है, न विचार-विमर्श कर सकता है और न सही रूप में जान सकता है। इसलिए उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीनों अज्ञान ही कहे जाते हैं।
प्रश्न—क्या सम्यग्दृष्टिवन्त जीवात्मा के सभी व्यवहार प्रमाणभूत ही हैं और मिथ्यादृष्टिवन्त जोव-प्रात्मा के सभी व्यवहार अप्रमाणभूत हैं ? यह कहना अयथार्थ अर्थात् भ्रमात्मक है । यह भी कोई नहीं कह सकता कि सम्यग्दृष्टिवन्त जीव की इन्द्रिय-साधना परिपूर्ण और निर्दोष होती है और मिथ्यादृष्टिवन्त जीव की साधना अपूर्ण तथा सदोष होती है। मिथ्यादृष्टि जीव भी श्वेत रंग को श्वेत,काले रंग को काला, शीत को शीत और उष्ण को उष्ण इत्यादि सम्यग्दृष्टि जीव के समान देखता है और कहता भी है तो फिर स्वगृहीत सम्यक्त्व और अन्यगृहीत मिथ्यात्व है, ऐसा कहना और भी असंगत है। इसलिए इसका यथार्थ-वास्तविक तात्पर्य क्या है ?
उत्तर-मोक्षाभिमुखी सम्यग्दृष्टिवन्त जीवात्मा में समभाव की मात्रा तथा प्रात्म-विवेक विशेषरूप में होता है। इसलिए यह अपने ज्ञान का उपयोग मात्र समभाव की पूष्टि में करत इस हेतु से वह भले कितना ही अल्पविषयी ज्ञान वाला हो तो भी उसका ज्ञान सही ज्ञान कहलाता है। इससे विपरीत संसाराभिमुखी मिथ्यादृष्टि जीवात्मा में कितना ही विशाल और स्पष्टपने ज्ञान हो तो भी उसका ज्ञान असही, अज्ञान ही कहलाता है। मिथ्यादृष्टिवन्त जीवात्मा राग-द्वेष की तीव्रता और आध्यात्मिकज्ञान की अनभिज्ञता के कारण ही अपने विशाल ज्ञान का उपयोग केवल भवपुष्टि के लिये करती है। इसलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है तथा वही कर्म के राग-द्वेष की