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प्रथमोऽध्यायः परिमित पर्यायों से युक्त सर्व द्रव्यों में होती है। इन दोनों ज्ञानों के द्वारा जीव-प्रात्मा समस्त द्रव्यों को तो जान सकता है, परन्तु उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को नहीं जान सकता है ।। २७ ।।
卐 विवेचन ॥ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और उनकी अल्प पर्यायें है। इसलिए श्रुतागम के अनुसार ये दोनों ज्ञान सर्व द्रव्यों को और उनकी अल्प पर्यायों को ही जान सकते हैं, समस्त पर्यायों को नहीं। सारांश यह है कि मतिज्ञान और श्रतज्ञान द्वारा विश्व में विद्यमान रूपी और अरूपी सर्व द्रव्यों को जान सकते हैं, किन्तु उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को नहीं। इनके द्वारा द्रव्यों की परिमित पर्यायें ही जानी जा सकती हैं। क्योंकि इस विश्व में अति विशेष रूप से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान पूज्य श्री गणधरादि को या चौदह पूर्वधारी महापुरुषों को ही होता है। उनके ज्ञान का मूल सर्वज्ञविभु श्री तीर्थंकर भगवन्त हैं। वे ही श्री तीर्थंकर भगवन्त अर्थ रूप से जितना धर्मोपदेश देते हैं अर्थात् शब्द सुनाते हैं, उसका अनन्तवाँ भाग ही श्री गणधर भगवन्त द्वादशांगी में शब्दों द्वारा सूत्र में गूथते हैं। इससे इस द्वादशांगी के अभ्यासी ऐसे पूर्वधर महापुरुष भी समस्त द्रव्यों की अनन्तवें भाग पर्यायों को ही जान सकते हैं। ऐसे चौदह पूर्वधर भी जो भाव-पर्याय द्वादशांगी में नहीं पाये हैं और जिनके लिये शब्द भी नहीं हैं, उन्हें नहीं जान सकते । वे जितना जानते हैं, उनसे अनन्तगुणा अधिक भावों को नहीं जानते हैं। इसलिए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय समस्त द्रव्य हैं, किन्तु उनकी समस्त पर्यायें नहीं हैं ॥२७॥
* अवधिज्ञानस्य विषयः * रूपिष्ववधेः॥ २८॥
® सुबोधिका टीका * रूपिषु पुद्गलेषु पुद्गलसम्बन्धिजीवेषु च अवधेविषयनिबन्धो भवति । स्वयोग्यपर्यायेषु अल्पेषु पर्यायेषु न तु अनन्तेषु पर्यायेष्ववधिः प्रवर्तते ॥ २८ ॥
ॐ सूत्रार्थ-अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य ही है अर्थात्-अवधिज्ञान की प्रवृत्ति केवल रूपी द्रव्य में ही है ॥ २८ ।।
ॐ विवेचन तृतीय अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य का होते हुए भी उसकी समस्त पर्यायों से युक्त नहीं है। कारण कि, चाहे अवधिज्ञानी अतिविशुद्ध अवधिज्ञान को धारण करने वाला हो, तो भी वह उसके द्वारा रूपी द्रव्यों को ही जान सकता है, अरूपी को नहीं तथा रूपी द्रव्यों की भी सब पर्यायों को नहीं जान सकता है । ॥२८॥