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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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जिसके द्वारा हेय यानी छोड़ने योग्य, उपादेय यानी स्वीकार करने योग्य तत्त्व की, यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। नय और प्रमाण से होने वाले जीवादि तत्त्वों का यथार्थज्ञान, वही सम्यग्ज्ञान है। वस्तु-पदार्थ के ज्ञान अंश को नय कहते हैं, और सम्पूर्ण ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। सम्यग्ज्ञानपूर्वक कषायभावों की अर्थात् राग-द्वेष की और मन-वचन-काया के योगों की निवृत्ति से जो स्वरूप-रमणता होती है, वही सम्यक्चारित्र है।
साधनों का साहचर्य-मोक्ष के साधनभूत धर्म को-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन विभागों में विभक्त करके पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज इस ग्रन्थ के प्रारम्भिक प्रथम सूत्र में ही उनका निर्देश करते हुए कहते हैं कि
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है ॥१॥ अर्थात्-ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग यानी मोक्ष के साधन-उपाय हैं। इस सूत्र में मोक्ष के साधनों का निर्देश मात्र है; न कि उनका स्वरूप और न ही उनके भेद। कारण कि आगे उनके स्वरूप और उनके भेद का वर्णन विस्तार से करेंगे। इसलिए यहाँ तो शास्त्र की रचना क्रमबद्ध हो सके, इस बात को लक्ष्य में रखकर इनका नाम मात्र, उद्देश्य मात्र ही निरूपण किया जा रहा है।
___ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों [रत्नत्रय] मिले हुए ही समवाय रूप से मोक्ष के मार्ग यानी साधन-उपाय माने गए हैं; न कि पृथक्-पृथक् एक या दो। इन तीनों में से यदि एक का अभाव हो जाय तो भी मोक्ष का साधन नहीं हो सकता। इसे अधिक स्पष्ट करते हए कहते हैं कि सम्यग्दर्शन होने पर भी सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र हो या न हो, सम्यग्ज्ञान होने पर भी सम्यक्चारित्र हो या न हो, किन्तु जब सम्यक्चारित्र होगा तब सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान अवश्य ही होगा तथा जहाँ पर सम्यग्ज्ञान होता है वहाँ पर सम्यग्दर्शन भी अवश्य ही रहता है। जैसे-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान परिपूर्णता के रूप में प्राप्त होते हुए भी सम्यकचारित्र की अपूर्णता के कारण तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थानक में पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता और चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थानक में शैलेषी अवस्था रूप परिपूर्ण चारित्र प्राप्त होते ही सम्यग्दर्शनादि तीनों साधनों की सम्पूर्ण प्रबलता हो जाने से पूर्ण मोक्ष का सामर्थ्य प्राप्त होता है।।
इन्द्रिय और मन के विषयभूत सर्व पदार्थों की दृष्टि-श्रद्धा रूप प्राप्ति को 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि दोषों से रहित प्रशस्त दर्शन को सम्यग्दर्शन कहते हैं। अथवा संगत-युक्तिसिद्ध दर्शन को भी सम्यग्दर्शन कहते हैं। सारांश यह है कि-सम्यक् यानी प्रशस्त या संगत। सम्यग्दर्शन यानी विश्व के तत्त्वभूत जीवाजीवादि पदार्थों में श्रद्धा । सम्यग्ज्ञान यानी तत्त्वभूत जीवाजीवादि पदार्थों का वास्तविक यथार्थबोध । सम्यक्चारित्र यानी वास्तविक यथार्थज्ञान द्वारा असक्रिया से निवृत्ति और सक्रिया में प्रवृत्ति । मोक्ष यानी मुक्तिसमस्त कर्मों का क्षय-विनाश। मार्ग यानी साधन-उपाय। अर्थात-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की सम्पूर्ण मिली हुई अवस्था वह मोक्ष का मार्ग-साधन-उपाय है। ज्ञानी महापुरुषों ने सांसारिक सुखों को सुखाभास कहा है। विश्व में एक मोक्षावस्था ऐसी है कि समस्त इच्छाओं का अभाव हो जाता है और स्वाभाविक सन्तोष प्रगट होता है, वही सुख सच्चा सुख है, अन्य नहीं ।।१॥