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सम्बन्धकारिका-८
निज मोहनीयादिक चार, अशुभ घाती कर्मों का ,
क्षय करके क्षायिकभावे, ज्ञानदर्शन प्राप्त किया। • कृतकृत्य होते हुए भी, केवल लोकहित के लिए ,
की स्थापना धर्मतीर्थ की, चतुर्विध संघ के रूप में । नयभंग से और गम से, अतिगम्भीर धर्मदेशना , अर्थ से सुना कर सच्ची, राह दिखाई मोक्ष की।
प्रागम को महत्ता - - - द्विविधमनेक-द्वादशविधं, महाविषय - ममितगमयुक्तम् । संसारार्णवपार - गमनाय, दुःखक्षयायालम् ॥ १६ ॥ ग्रन्थार्थवचनपटुभिः प्रयत्नवद्भिरपि वादिभिनिपुरणैः ।।
अनभिभवनीयमन्यै - र्भास्कर इव सर्वतेजोभिः ॥ २० ॥ टीका : अङ्गबाह्य तथाऽङ्गप्रविष्टमित्थं द्विविधं, (अङ्गबाह्यम्) अनेकप्रकारं, (अंगप्रविष्टम् ) द्वादशप्रकारं, महान्विषयवन्तं, अनेकालापकयुक्त, संसारसमुद्रस्य पारं कतु समर्थं, दुःखध्वंसने च सशक्तमित्थं तीर्थं प्रभुः प्राकटयत् ।। १६ ।। यथा अन्यसर्वतेजोभिः सूर्यो नैव पराभूयते तथा एवं ग्रन्थानामर्थनिरूपणकार्ये प्रवीणेन स प्रयत्नेन निपुणेनापि वादिना यथा न खण्डयेत इत्थमिदं तीर्थं (प्रभुः) प्रावर्तयत् ।। २० ॥
अर्थ : तीर्थङ्कर परमात्मा जिनेश्वर भगवान ने जो धर्मोपदेश दिया वह अनन्तगमों से युक्त तथा महान् विषयों से परिपूर्ण है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य इसके दो मूलभेद हैं। अंगबाह्य के अनेक भेद हैं तथा अंगप्रविष्ट के द्वादश भेद हैं। प्रभु द्वारा उपदिष्ट यह तीर्थश्रुत भवसिन्धु से यानी संसार-सागर से पार ले जाने में तथा दुःखों का क्षय करने में समर्थ है ॥ १६ ॥ ग्रन्थ की रचना और अर्थ का निरूपण करने में निपूणवादी चाहे कितना ही प्रयत्न करें तो भी इस तीर्थश्रुत को जीत नहीं सकते। क्या सूर्य को किसी भी प्रकार का तेज-प्रकाश अभिभूत कर सकता है ? अर्थात् जगत् में जैसे मणिरत्नों इत्यादि समस्त पदार्थों के तेज प्रकाश एकत्र हो जायें तो भी उनसे सूर्य पराभव नहीं पाता है, वैसे ही ग्रन्थों का अर्थ कहने में निपुण और न्यायकुशलवादी तीर्थश्रुत के पराभव का प्रयत्न करें तो भी उनसे तीर्थश्रुत का पराभव नहीं होता ॥ २० ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • इसके दो मूलभेद हैं, अंगप्रविष्ट अंगबाह्य ,
अंगबाह्य के अनेक भेद, द्वादश अंग प्रविष्ट के। प्रभु द्वारा उपदिष्ट ये, तीर्थश्रुत भवजल नौ समा , तथा दुःखक्षय करने में, समर्थ है विश्व में महा। ग्रन्थरचना अर्थनिरूपण में चाहे जो निपुणवादी होते , कितना ही यत्न करे तो भी, इस श्रुत को न जीत सके । शास्त्रार्थ करने को सदातुर, ये प्रतिक्षण सर्वदा , वादी सभी थकते यहाँ, जिनश्रुत रहे विजयी सदा ।।