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१।३१ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ६५ ॐ सूत्रार्थ-एक जीव के एक समय में प्रारम्भ के एक से लेकर चार ज्ञान [मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्ययज्ञान] तक अनियत रूप से हो सकते हैं ॥ ३१ ॥
____+ विवेचन ज्ञान के जो पूर्वोक्त मत्यादिक पाँच भेद कहे हैं, उनमें से एक जीव-प्रात्मा के एक समय में युगपत् एक, दो, तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं। किन्तु पाँचों ज्ञान एक साथ में नहीं होते हैं। किसी जीव-पात्मा को मतिज्ञानादिक में से एक ही ज्ञान हो सकता है। जैसे—मतिज्ञान या केवलज्ञान । किसी जीव प्रात्मा को मतिज्ञानादिक में से दो ज्ञान हो सकते हैं। जैसे—मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । किसी जीव-प्रात्मा को मतिज्ञानादिक में से तीन ज्ञान हो सकते हैं। जैसे–मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान अथवा मतिज्ञान, श्रतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान । किसी जीव-यात्मा को मतिज्ञानादिक में से चार ज्ञान भी हो सकते हैं। जैसे–मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान।
परिपूर्ण अवस्था में जीव-आत्मा को अन्य अपूर्ण ज्ञान नहीं होते हैं। इसलिए उनके एक केवलज्ञान ही कहा है। उक्त पाँच ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान नियमतः सहचारी हैं। श्रुतज्ञान का तो मतिज्ञान के साथ सहभाव नियत है। कारण कि वह श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक ही होता है। किन्तु जिस जीव-प्रात्मा को मतिज्ञान है, उसको श्रुतज्ञान हो या न भी हो? शेष अवधि, मनःपर्यय और केवल इन तीनों ज्ञानों में सहचारिता नहीं है तथा मत्यादि चारों ज्ञान जो अपूर्णभावी हैं, उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान तो प्रत्येक जीव-प्रात्मा को अवश्य होते हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान किसी को होते हैं तथा नहीं भी होते हैं। जिसको होते हैं उसके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों अवश्य रहते हैं । अकेला अवधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञान मति-श्रुतज्ञान के बिना नहीं होता है। सम्पूर्ण भावी होने से केवलज्ञान की किसी ज्ञान के साथ सहचारिता नहीं है। क्योंकि--इसका अपूर्णता के साथ विरोध भाव है। जीव-आत्मा को एक साथ दो, तीन या चार ज्ञान की जो सम्भवता है वह उसकी शक्ति की अपेक्षा से है, प्रवृत्ति की अपेक्षा से नहीं है।
प्रश्न-पूर्व के चार मत्यादि ज्ञानों के साथ पंचम केवलज्ञान का सहभाव है या नहीं?
उत्तर-जीव-आत्मा की शक्ति और प्रवृत्ति का अर्थ यह होता है कि जो जीव-आत्मा पूर्वोक्त दो, तीन या चार ज्ञान वाला है, वह जिस समय मतिज्ञान द्वारा किसी एक वस्तु-पदार्थ को जानने के लिए प्रवृत्तमान होता है, उस समय उसके अन्य शेष ज्ञान का आविर्भाव होता है, तो भी उसकी उपयोगिता नहीं होती है । जोव-आत्मा को मत्यादि चारों ज्ञान की शक्ति भले एक समय की होती है तो भी जीव-प्रात्मा के उपयोग में प्रवृत्ति रूप से चारों ज्ञान नहीं होते हैं। कारण कि, एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग होता है। दो या तीन ज्ञान का उपयोग एक समय में एक साथ नहीं हो सकता है । मतिज्ञान या अवधिज्ञान की शक्ति प्राप्त होते हुए भी श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति में उसकी उपयोगिता शक्ति प्रकट नहीं होती है।
सारांश यह है कि-एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग होता है। उस समय दूसरे ज्ञान निष्क्रिय रहते हैं। (१) केवलज्ञान के विषय में दो मत हैं। कितनेक प्राचार्यों का ऐसा मन्तव्य है कि-जीव-आत्मा में केवलज्ञान हो जाने पर भी इन चारों मतिज्ञानादिक का प्रभाव नहीं हो जाता ।
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