________________
* प्रकाशकीय निवेदन ॐ
पूर्वधर महर्षि परमपूज्य वाचकप्रवर श्रीउमास्वातिजी महाराज एक महान् संग्राहक तरीके सुप्रसिद्ध थे। इनके सम्बन्ध में कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजश्री ने भी अपने 'श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक व्याकरण ग्रन्थ में उत्कृष्टेऽनूपेन ॥२।१।३६ इस सूत्र की वृत्ति में 'उपोमास्वाति सङ्ग्रहीतारः' इस तरह उदाहरण रखकर सर्वोत्कृष्ट संग्राहक तरीके कहे हैं। ऐसे सर्वोत्कृष्ट संग्राहक पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज विरचित यह 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' यानी 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमशास्त्र' सुन्दर ग्रन्थ है।
यह एक ही ग्रन्थ सांगोपांग श्रीअर्हद्दर्शन-जैनदर्शन के जीवादि तत्त्वों का ज्ञान कराने में अति समर्थ है। इस महान् ग्रन्थ पर भाष्य, वृत्ति-टीका तथा विवरणादि विशेष प्रमाण में उपलब्ध है तथा विविध भाषाओं में इस पर विपुल साहित्य रचा गया है; जो मुद्रित और अमुद्रित भी है।
१०८ ग्रन्थों के सर्जक समर्थ विद्वान् परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरजी म. श्री ने भी इस तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर प्रकाशित हुए संस्कृत-प्राकृत-हिन्दीगुजराती आदि ग्रन्थों का अवलोकन कर और उन्हीं का पालम्बन लेकर सरल संस्कृत भाषा में संक्षिप्त सुबोधिका टीका रची है तथा सरल हिन्दी भाषा में अर्थयुक्त विवेचनामृत अतीव सुन्दर लिखा है। तदुपरान्त 'सम्बन्धकारिका' की संस्कृत टीका, हिन्दी सरलार्थ और हिन्दी पद्यानुवाद भी किया है। इस ग्रन्थ के सर्जक पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वाति म. का संक्षिप्त जीवन-परिचय भी अपने 'प्राक्कथन' में लिखा है । यह सब प्रकाशित करते हुए हमें अतिप्रानंद का अनुभव हो रहा है ।
पूज्यपाद आचार्य म. श्री को इस ग्रन्थ की सुबोधिका टीका, विवेचनामृत तथा सरलार्थ बनाने की सत् प्रेरणा करने वाले उन्हीं के पट्टधर-शिष्यरत्न पूज्य उपाध्याय श्री विनोद विजय जी गणिवर्य म. तथा पूज्य पंन्यासश्री जिनोत्तम विजय जी गरिणवर्य म. हैं।