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प्रथमोऽध्यायः
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विचारधारा प्रचलति । केचिद् सन्निकर्षकं प्रमाणं, क्वचिद् निर्विकल्पदर्शनं प्रमाणं, केचित् कारकसाकल्यं प्रमाणं, केचिद् वेदं प्रमाणमित्यादिविविधरूपः मन्यन्ते । तन्न युक्तियुक्तम् ।
तस्य निर्दोषलक्षणमाह-'सम्यग्ज्ञानमेव प्रमाणम्' अस्ति । प्रमाणस्य भेदोऽपि भिन्नभिन्नमतापेक्षया भिन्नभिन्नप्रकारैः मन्यते । केचित् प्रमाणस्य भेदः एक एव प्रत्यक्षः, केचिद् द्वौ भेदौ प्रत्यक्षानुमानौ, केचित् त्रयो भेदाः प्रत्यक्षानुमानोपमानाः, केचित् चत्त्वारो भेदाः प्रत्यक्षानुमानोपमानागमाः, केचित् पञ्चभेदाः प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्तयः, केचित् षड्भेदाः प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्त्याऽभावाश्चेति मन्यन्ते । एते सर्वेऽपि अव्याप्तिप्रमुखदूषणत्वाद् अवास्तविकाः । अत्र परोक्ष-प्रत्यक्षौ द्वावपि भेदौ सर्वथा निर्दोषौ, इष्टार्थसाधको चेति । एतदस्मिन् प्रमाणे प्रमाणस्य सर्वेषां भेदानामन्तर्भाव अभूवन् ।। १० ।।
* सूत्रार्थ-पूर्व कथित यह मत्यादि पाँच प्रकार का ज्ञान प्रमाणरूप है तथा उसके दो भेद हैं-एक परोक्षप्रमाण और दूसरा प्रत्यक्षप्रमाण ॥ १० ।।
ॐ विवेचन प्रथम अध्याय के छठे सूत्र में प्रमाण का वर्णन किया है, तो भी इधर विशेष रूप में कर रहे हैं । जिसके द्वारा वस्तु-पदार्थ स्वरूप का परिच्छेदन होता है, वह 'प्रमारण' कहा जाता है। इस विषय में अनेक शास्त्रज्ञों ने अपनी-अपनी मान्यतानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रमाण माना है। किसी ने सन्निकर्ष को, किसी ने निर्विकल्पदर्शन को, किसी ने कारकसाकल्य को और किसी ने अपने वेद को ही प्रमाण माना है। ये सभी प्रमाण के प्रयोजन को सिद्ध करने में युक्तियुक्त नहीं हैं, अर्थात् असमर्थ हैं । इसलिए यहाँ पर प्रमाण का यह लक्षण निर्दोष बताया है कि-'सम्यग्ज्ञानमेव प्रमारणलक्षणम' सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण का लक्षण है। इस प्रमाण के प्रकार-भेद भी भिन्न-भिन्न मतों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न माने गये हैं। किसी ने एक प्रत्यक्ष को, किसी ने प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों को, किसी ने प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान तीनों को, किसी ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान
और पागम चारों को, किसी ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम और अर्थापत्ति पाँचों को तथा किसी ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति एवं प्रभाव इन छह को प्रमाण के भेद माना है । ये सभी अव्याप्ति आदि दोषों से युक्त होने के कारण अवास्तविक हैं। इसलिए यहाँ पर प्रमाण के मात्र दो प्रकार-भेद प्रतिपादित किये हैं । एक परोक्ष और दूसरा प्रत्यक्ष । दोनों ही सर्वथा निर्दोष हैं और इष्ट अर्थ के साधक हैं । इनमें प्रमाण के समस्त भेदों का अन्तर्भाव हो जाता है ॥१०॥