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________________ १४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ११४ * तत्त्वों का सम्बन्ध * प्रश्न-जीवादितत्त्वों का परस्पर सम्बन्ध कैसा है ? इसके उत्तर में कहा है कि जीवतत्त्व में अजीव तत्त्व कर्म का प्रास्रव-प्रवेश होता है। इससे कर्म का बन्ध पड़ता है। जीव-प्रात्मा के साथ अजीव-कर्मपुद्गल क्षीरनीर के समान एकाकार बन जाते हैं। जब कर्म का उदय होता है तब जीव को संसार में परिभ्रमण और दुःख का अनुभव होता है। इसलिए दुःख का मूल कारण प्रासव तत्त्व है। इसे दूर करने के लिए प्रात्मा को प्रास्रव का निरोध करना चाहिए। अर्थात् आस्रव द्वारा प्राते हुए कर्म को संवर द्वारा हटाना चाहिए। आस्रव का द्वार बन्द करने में संवर ही काम करता है। अब पूर्व काल में बँधे हए कर्मों का विनाश करने के लिए निर्जरातत्त्व की आवश्यकता है। संवरतत्त्व और निर्जरातत्त्व से प्रात्मा सर्वथा कर्मरहित हो जाता है। जीव-प्रात्मा की सर्वथा कर्म रहित जो अवस्था है वही मोक्ष है। * तत्त्वों में संख्याभेद * जीवादि नौ तत्त्वों का एक-दूसरे में यथायोग्य समावेश करने से सात तत्त्व, पाँच तत्त्व, अथवा दो तत्त्व भी गिने जाते हैं। जैसे—शुभ कर्म का प्रास्रव वह पुण्य है और अशुभ कर्म का आस्रव वह पाप है। इस कारण से पुण्यतत्त्व और पापतत्त्व को प्रास्रवतत्त्व में गिनें तो सात तत्त्व होते हैं। अथवा, प्रास्रवतत्त्व, पूण्यतत्त्व और पापतत्त्व को बन्धतत्त्व में गिनें; तथा निर्जरा और मोक्ष इन दोनों में से कोई भी एक गिनें तो पाँच तत्त्व होते हैं। अथवा, संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व और मोक्षतत्त्व ये तीन जीवस्वरूप हैं। इसलिए जीवतत्त्व में इन तीनों को गिनें तो (१) जीवतत्त्व और (२) अजीवतत्त्व ये दो ही तत्त्व हैं। इत्यादि विवक्षाभेद होते हुए भी प्रस्तुत इस शास्त्र ग्रन्थ में तो सात तत्त्वों का ही नाम निर्देशपूर्वक निरूपण किया है। * तत्त्वों में जीव और अजीव * जीव यह जीवतत्त्व है। संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीन तत्त्व भी जीवस्वरूप (यानी जीवपरिणाम) होने से या जीव के स्वभाव रूप होने से जीवतत्त्व हैं। इसलिए जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये चार जीवतत्त्व हैं। शेष पाँच तत्त्व अजीव हैं। उनमें पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध ये चारों कर्म के परिणाम होने से अजीव हैं। अर्थात ये चारों अजीवतत्त्व में गिने जाते हैं। * तत्त्वों में रूपी और अरूपी * विश्व में वास्तविक रीति से जीवतत्त्व अरूपी ही है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में तो देहधारी होने से रूपी भी कहा है। संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व और मोक्षतत्त्व ये तीन जीव के परिणाम रूप होने से अरूपी हैं तथा पुण्यतत्त्व, पापतत्त्व, प्रास्रवतत्त्व एवं बन्धतत्त्व ये चारों कर्म के परिणाम होने से रूपी हैं। अजीवतत्त्व में रूपी और अरूपी दोनों प्रकार पाते हैं। कारण कि धर्मास्तिकाय इत्यादि प्ररूपी हैं और केवल एक पूदगल द्रव्य ही रूपी है। इस कारण से 'नवतत्त्व प्रकरण' में अजीवतत्त्व के चार भेद रूपी और दस भेद अरूपित्व से कहे हैं।
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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