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________________ २२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १७ [५] स्थिति और [६] विधान । इन छह अनुयोग' द्वारों से जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है ।। ७ । 5 विवेचन 5 पूर्व सूत्र में जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नय से होता है, इस तरह - सामान्य रूप से कहा है । अब विशेष रूप से तत्त्व सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के लिए छह द्वारों का निर्देश करते हैं (१) निर्देश - यानी वस्तु पदार्थ स्वरूप का कथन । (२) स्वामित्व - यानी श्राधिपत्य ( स्वामी मालिक ) । (३) साधन - यानी कारण, अर्थात् उत्पन्न होने वाले निमित्त । (४) अधिकरण - यानी आधार, अर्थात् रहने का स्थान । (५) स्थिति - यानी काल - समय का प्रमाण । (६) विधान - यानी प्रकार ( भेदों की संख्या) । इन छह द्वारों से जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है । 'सम्यग्दर्शन' यह आत्मा का गुण है। उसकी विचाररणा इन छह द्वारों से इस प्रकार की है (१) सम्यग्दर्शन गुण 'से जीव आत्मा विवेकी और पारमार्थिक ज्ञान वाला बनता है तथा य एवं उपादेय का विवेक कर सकता है। इस गुरण की प्राप्ति से जीव आत्मा का चौरासी लाख जीवायोनि में संसार-परिभ्रमण परिमित बन जाता है, अर्थात् मर्यादित होता है । (२) सम्यग्दर्शन गुण जीव- श्रात्मा का ही है । इसलिए उसका स्वामी (मालिक) जीव- श्रात्मा ही होता है, अजीव कभी नहीं हो सकता । ( ३ ) सम्यग्दर्शन गुरण की उत्पत्ति जीव- प्रात्मा में निसर्ग से यानी स्वाभाविक रूप से और अधिगम से यानी परोपदेशादि निमित्त से होती है । अथवा मिथ्यात्वमोहनीय कर्म और अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान- माया लोभ रूप चार कषायों के क्षयोपशम से या उपशम आदि से होती है । ( ४ ) सम्यग्दर्शन गुरण जीव-प्रात्मा में ही प्रगट होता है, इसलिए उसका अधिकरण यानी आधार जीव- आत्मा ही है । (५) जीव- प्रात्मा में प्रगटे हुए सम्यग्दर्शन गुरण का काल सादि श्रनन्त है । पशमिक सम्यक्त्व गुरण का काल जघन्य से या उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त्त का है तथा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व गुरण का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट से साधिक ६६ सागरोपम का है । जैसे कि मनुष्य भव में पूर्वक्रोड़ वर्ष के प्रायुष्य वाला जीव - प्रात्मा आठ वर्ष की वय में सम्यक्त्व पाकर, अनुत्तर देवलोक में विजयादि चारों विमानों में से किसी एक विमान में उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हो जाय । देवायुष्य पूर्ण होने के पश्चाद् वहाँ से व्यव कर और मनुष्यभव में प्राकर पुन: विजयादि में उत्पन्न होकर, फिर वहाँ से च्यव कर पुनः मनुष्यगति में आकर सकल कर्म का क्षय करके मोक्ष में जावे तो वहाँ पर ६६ सागरोपम से अधिक काल हो जाता है । अथवा अनुत्तर देवलोक में न जाकर तीन बार अच्युत देवलोक में उत्पन्न हो जाय तो भी ६६ सागरोपम के काल में मनुष्यभव का काल १. जानने के उपायों को अनुयोग कहा जाता है । २. लक्षण या स्वरूप के कथन को निर्देश कहते हैं ।
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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