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सम्बन्धकारिका - १०
खद्योतक प्रभाभिः सो ऽभिबुभूषेच्च भास्करं महत् । जिनवचनं
saमहाग्रन्थार्थं,
जिघृक्षे ।। २६ ।।
भाष्यस्य
टीका : महतोऽतिस्थूलस्य दुरधिगमस्य ( काठिन्येन ज्ञातु ं शक्यस्य ) ग्रन्थस्येतद् च जिनवचनरूपिणो महासागरस्य संग्रहं विदधातु कः समर्थो भविष्यति ? ।। २३ ॥ यः कश्चन पुरुषोऽतिविशालग्रन्थेनार्थेण च जिनवचनानां पूर्णरीत्या संग्रहं कर्तुमिच्छति स मूढो जनः शिरसा मस्तकेन पर्वतानां भङ्क्तु ं वाञ्छति, द्वाभ्यां भुजाभ्यां पृथिवीमुत्क्षेप्तुमिच्छति, भुजाभ्यां तीर्त्वा समुद्रस्य पारं गन्तुमिच्छति, कुशाग्रेण (तृणखण्डेन ) समुद्रजलानि मातुमिच्छति, आकाशे उत्पत्य चन्द्रमुल्लंघितुमिच्छति, मेरुपर्वतं हस्ताभ्यां कम्पयितुमिच्छति, गत्या ( गमनेन ) वायोरपि अग्रे गन्तुमिच्छति, अन्तिमं (स्वयम्भूरमणनामकं ) समुद्रं पातुमिच्छति, तथा खद्योतप्रभया भानुं पराभवितुमिच्छति । अयमाशयः यथोपरि दर्शितानि कार्यारिण दुष्कृतानि ( अति कठिनानि ) सन्ति, तथैव सम्पूर्णरीत्या सर्वज्ञविभुवचनप्रमुखानां संकलनं तात्पर्यज्ञानं वा प्रतिदुष्करं न कोऽपि विदधातुं समर्थः ।। २४-२५-२६ ।।
अर्थ : जिस ग्रन्थ का और उसके अर्थ का पार अत्यन्त कठिनाई से ही पा सकते हैं, जिसमें अतिशय अनेक विषय हैं, ऐसे उस महान् जिनवचनरूप महासमुद्र का संग्रह करने में कौन समर्थ है ? अर्थात् जिनवचनरूप सिन्धु महान् है, प्रत्यन्त उत्कृष्ट और महागम्भीर विषयों से युक्त दुर्गम होने के कारण अपार भी है । क्या कोई अत्यन्त कुशल - निपुण व्यक्ति भी उस श्रुतसिन्धु का पार पा सकता है ? अर्थात् कोई पार नहीं पा सकता है ।। २३ ।। जो पुरुष इस महान् गम्भीर श्रुतसमुद्र का संग्रह करने की अभिलाषा रखता है तो कहना चाहिए कि ( १ ) क्या वह मोह के कारण अपने सिर से पर्वत को विदीर्ण करने की— भेदने की इच्छा रखता है ? ( २ ) क्या वह दोनों भुजाओं से पृथ्वी को उठाकर फेंकना चाहता है ? (३) क्या दोनों बाहुओं के बल से समुद्र को तैरना चाहता है ? ( ४ ) क्या केवल कुश - डाभ - घास के अग्रभाग ( नोक ) से ही समुद्र को नापना चाहता है ? (५) क्या आकाश में स्थित चन्द्रमा को लांघना चाहता है ? (६) क्या एक हाथ से मेरुपर्वत को हिलाना चाहता है ? (७) क्या गति से पवन - वायु को जीतना चाहता है ? ( ८ ) क्या अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र को पीना चाहता है ? (६) तथा क्या मोहवश खद्योत के तेज से सूर्य के तेज को अभिभूत - पराभव करना चाहता है? मोहाधीन विकृतबुद्धि पुरुष की इन असम्भव कार्यों की अभिलाषा के समान ही इस महान् ग्रन्थ ( अर्थात् अर्थरूप जिनवचन) का संग्रह करने की इच्छा वाले को भी मोहाधीन समझना चाहिए ।। २४-२६ ॥
हिन्दी पद्यानुवाद: • विविध विषयों से भरा है सुज्ञान प्रति दुर्गम जहाँ, मूल तो क्या भाष्य को भी समझना मुश्किल महा । जिनवचन जलनिधि अंजलि से, रिक्त हो सकता कभी ? तथा सिर से क्या गिरि को विदीर्ण कर सकते हैं कभी ?