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अकलंकदेव ने राजवात्तिक टीका तथा प्राचार्य विद्यानन्दि ने श्लोकवात्तिक टीका की रचना की है। इस ग्रन्थ पर एक श्रुतसागरी टीका भी है। इस प्रकार इस ग्रन्थ पर आज संस्कृत भाषा में अनेक टीकाएँ तथा हिन्दी व गुजराती भाषा में अनेक अनुवाद विवेचनादि उपलब्ध हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ की महत्ता निर्विवाद है।
* प्रस्तुत प्रकाशन का प्रसंग १ उत्तर गुजरात के सुप्रसिद्ध श्री शंखेश्वर महातीर्थ के समीपवर्ती राधनपुर नगर में विक्रम संवत् १६६८ की साल में तपोगच्छाधिपति शासनसम्राट-परमगुरुदेव-परमपूज्य आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के दिव्यपट्टालंकारसाहित्यसम्राट-प्रगुरुदेव-पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी म. सा. का श्रीसंघ की साग्रह विनंति से सागरगच्छ के जैन उपाश्रय में चातुर्मास था। उस चातुर्मास में पूज्यपाद आचार्यदेव के पास पूज्य गुरुदेव श्री दक्षविजयजी महाराज (वर्तमान में पू. प्रा. श्रीमद् विजय दक्षसूरीश्वरजी महाराज), मैं सुशील विजय (वर्तमान में प्रा. सुशीलसूरि) तथा मुनि श्री महिमाप्रभ विजय जी (वर्तमान में प्राचार्य श्रीमद् विजय महिमाप्रभसूरिजी म.) आदि प्रकरण, कर्मग्रन्थ तथा तत्त्वार्थसूत्र प्रादि का (टीका युक्त वांचना रूपे) अध्ययन कर रहे थे। मैं प्रतिदिन प्रातःकाल में नवस्मरण आदि सूत्रों का व एक हजार श्लोकों का स्वाध्याय करता था। उसमें पूर्वधरवाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज विरचित 'श्रीतत्त्वार्थसूत्र' भी सम्मिलित रहता था। इस महान् ग्रन्थ पर पूज्यपाद प्रगुरुदेवकृत 'तत्त्वार्थ त्रिसूत्री प्रकाशिका' टीका का अवलोकन करने के साथ-साथ 'श्रीतत्त्वार्थसूत्र-भाष्य' का भी विशेष रूप में अवलोकन किया था।
अति गहन विषय होते हुए भी अत्यन्त आनन्द प्राया। अपने हृदय में इस ग्रन्थ पर संक्षिप्त लघु टीका संस्कृत में और सरल विवेचन हिन्दी में लिखने की स्वाभाविक भावना भी प्रगटी। परमाराध्य श्रीदेव-गुरु-धर्म के पसाय से और अपने परमोपकारी पूज्यपाद परमगुरुदेव एवं प्रगुरुदेव आदि महापुरुषों की असीम कृपादृष्टि
और अदृष्ट आशीर्वाद से तथा मेरे दोनों शिष्यरत्न वाचकप्रवर श्री विनोदविजयजी गणिवर एवं पंन्यास श्री जिनोत्तमविजयजी गणि की जावाल [सिरोही समीपवर्ती] में पंन्यास पदवी प्रसंग के महोत्सव पर की हुई विज्ञप्ति से इस कार्य का शीघ्र प्रारम्भ करने हेतु मेरे उत्साह और प्रानन्द में अभिवृद्धि हुई। श्रीवीर सं. २५१६, विक्रम सं.