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प्रथमोऽध्यायः (११-१२) ध्र व-अध्र व-ध्रुव का अर्थ है निश्चय और अध्रुव का अर्थ है अनिश्चय । जैसे-इन्द्रियों और मन आदि की साधन-सामग्री समान होते हुए भी एक व्यक्ति विषय को अवश्य जानता है और दूसरा व्यक्ति कदाचिद् जानता है तथा कदाचिद् नहीं भी जानता है। अवश्य जानने वाले व्यक्ति के पूर्वोक्त अवग्रहादि चारों ज्ञान ध्र वग्राही हैं तथा इन्द्रिय और मन आदि की साधनसामग्री होते हए भी क्षयोपशम की मन्दता से किसी समय पर ग्रहण करता है तथा किसी समय ग्रहरण नहीं भी करता है। इसलिये ऐसे पूर्वोक्त चारों ज्ञान प्रध्र वग्राही कहलाते हैं। इन बारह भेदों में से बद. अल्प. बहविध और एकविध ये चारों भेद विषय की विविधता से होते हैं। शेष अठारह भेद क्षयोपशम की तारतम्यता से होते हैं। मतिज्ञान के २८८ भेद होते हैं। जैसे-पाँच इन्द्रिय और मन इन छह को अवग्रहादि चार भेदों युक्त गिनने से चौबीस भेद होते हैं। उन चौबीस को बहु आदि बारह भेदों सहित गिनने से २८८ भेद होते है ॥१६॥
* अवग्रहादीनां विषयः *
अर्थस्य ॥१७॥
* सुबोधिका टीका * अर्थस्य अर्थाद्-स्पर्शनादिविषयस्य अवग्रहादयो मतिज्ञानस्य भेदाः भवन्ति । अवग्रहादयश्चत्त्वारो भेदाः अर्थग्राहीरूपाः भवन्ति एव ॥ १७ ॥
- सूत्रार्थ-अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा ये चारों भेद अर्थग्राही होते हैं। अर्थात्-अवग्रहादि मतिज्ञान अर्थ अर्थात् वस्तु-पदार्थ को ग्रहण करते हैं। वस्तु-पदार्थ का ज्ञान अवग्रहादि चार प्रकार से होता है ।। १७ ।।
+ विवेचन शास्त्र में द्रव्य और पर्याय को वस्तु कहते हैं । इसका अन्य नाम अर्थ भी है। स्पर्शादि गुणरूप अर्थ के और स्पर्शादि गुण सहित द्रव्य रूप अर्थ के अवग्रहादि होते हैं। प्रश्न--इन्द्रिय और मनोजन्य अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा का ज्ञान क्या द्रव्यरूप वस्तु-पदार्थग्राही है या पर्यायरूप वस्तुपदार्थग्राही है ?
उत्तर-मुख्यतया अवग्रहादि ज्ञान पर्यायग्राही हैं, सम्पूर्ण द्रव्यग्राही नहीं हैं। जीव-आत्मा द्रव्य को पर्याय द्वारा जानते हैं। कारग-कि-पाँचों इन्द्रियों और मन का मुख्य विषय पर्यायग्राही है तथा पर्याय द्रव्य का एक अंश ही है। जब जीव-प्रात्मा अवग्रहादि ज्ञान द्वारा पाँचों इन्द्रियों और मन की सहायता से अपने-अपने विषय रूप पर्याय को जानता है, तब वह तद्-तद् पर्याय रूप से द्रव्य को भी अंशतः जानता है। कारण यह है कि द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं रह सकती और द्रव्य पर्याय से रहित नहीं होता है। यद्यपि इन्द्रियों और मन का विषय पर्याय रूप है, तो भी पर्याय द्रव्य से अभिन्न होने के कारण पर्याय के ज्ञान के साथ द्रव्य का भी ज्ञान अवश्य हो ही जाता है। जैसे-नेत्र से रूप का ज्ञान होने के साथ ही 'यह अमुक द्रव्य है' ऐसे द्रव्य का भी बोध अवश्य हो जाता है। नेत्र का विषय रूप, स्थान, प्राकृति-प्राकारादि है। यह पुदगल द्रव्य की एक पर्याय है। जीव-पात्मा द्वारा