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१।२१-२२ ]
प्रथमोऽध्यायः
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प्रश्न - श्रंगबाह्य सूत्र की और अंगप्रविष्ट सूत्र की विशिष्टता यानी विशेषता किस अपेक्षा से है ?
उत्तर- इन दोनों की विशिष्टता - विशेषता वक्ता की अपेक्षा से है । अर्थात् श्रुतज्ञान के दो भेद वक्ता के भेद की अपेक्षा से जानना । जिस ज्ञान को सर्वज्ञ विभु श्री तीर्थंकर भगवन्तों ने प्रर्थ रूप से प्ररूपा अर्थात् प्रकाशित किया और श्रुतकेवली श्रीगणधर महाराजाओं ने ग्रहण करके सूत्र रूप से रचना की, उसे ही अंगप्रविष्ट कहते हैं तथा उसी के अनुसार शिष्यादिकों को सुगमता - सरलता से अवबोध- जानकारी कराने के लिए एवं सर्व साधारण जीवों के हितार्थ अन्य ज्ञानी प्राचार्य भगवन्तों ने और पूर्वघर महर्षियों ने विविध अनेक विषयों पर अनेक शास्त्रों की रचना की है, उनको श्रंगबाह्य कहते हैं ।। २० ।।
* अवधिज्ञानस्य भेदाः द्विविधोऽवधिः ॥ २१ ॥
* सुबोधिका टीका
प्रोक्तं श्रुतज्ञानम् । अथ किमिति अवधिज्ञानम् ? कथ्यतेऽत्र - अवधिज्ञानं द्विप्रकारक - मस्ति । भवप्रत्ययः, क्षयोपशमनिमित्तश्चेति । भवस्य निमित्तार्थमवश्यं भवति तद् भवप्रत्ययमवधिज्ञानं ज्ञेयम् । तथा अवधिज्ञानावरणीयकर्मणः क्षयोपशमाद् भवति तद् क्षयोपशममवधिज्ञानं ज्ञेयमिति ॥ २१ ॥
सूत्रार्थ - अवधिज्ञान के दो भेद हैं- एक भवप्रत्यय अवधिज्ञान और दूसरा क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान ।। २१ ।।
विवेचन फ
अवधिज्ञान दो प्रकार का है । भवप्रत्यय और क्षयोपशम निमित्तक । प्रत्यय यानी निमित्त । जो भव के निमित्त से अवश्य होता है, उसको भवप्रत्यय श्रवधिज्ञान कहते हैं तथा जो अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है, उसे क्षयोपशम प्रत्यय ( निमित्त ) श्रवधिज्ञान कहते हैं ॥२१॥
* भवप्रत्ययावधिज्ञानस्य स्वामी
भवप्रत्ययो नारक-देवानाम् ॥ २२ ॥
* सुबोधिका टीका
तत्र नारकारणां देवानां च यथायोग्यं भवप्रत्ययमवधिज्ञानं भवति । भवप्रत्ययं भवहेतुकं भवनिमित्तमित्यनर्थान्तरम् । भवः कारणं यस्य सः भवप्रत्ययिकः । यतः देवतानां नारकाणां च भवोत्पत्तिः सैव तस्य अवधिज्ञानस्य कारणं भवति । यथा- पक्षीणां