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२० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १७ प्रमाण से वस्तु का पूर्ण बोध होता है और नय से वस्तु का प्रपूर्ण या आंशिक बोध होता है। जैसे कि 'प्रात्मा नित्य है कि अनित्य है ?' इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि-'पात्मा नित्याऽनित्य है।' इस प्रमाण वाक्य से नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म की दृष्टि से प्रात्मा का पूर्ण रूप से बोध
है। 'प्रात्मा नित्य है' इस प्रकार के नय वाक्य से प्रात्मा का केवल नित्य रूप से बोध होता है, किन्तु 'प्रात्मा अनित्य भी है' ऐसा बोध नहीं होता है। इस तरह 'प्रात्मा अनित्य है' इस प्रकार के नयवाक्य से आत्मा का अनित्य रूप में बोध होता है, किन्तु 'आत्मा नित्य भी है' ऐसा बोध नहीं होता है। कारण कि नय वस्तु-पदार्थ के एक ही अंश को ग्रहण करता है अतः वस्तु पदार्थ का पूर्ण रूप से बोध नहीं होता।
प्रमाण के अनेक भेद होने पर भी सामान्य रूप से दो भेद प्रतिपादित किये गये हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष । जो पर-आत्मा से भिन्न इन्द्रिय या मन की सहायता से उत्पन्न होता है, उस ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहते हैं तथा जो पर की सहायता बिना केवल प्रात्मा से ही उत्पन्न होता है, उस ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं । प्रमाण और नय दोनों ज्ञानस्वरूप हैं तो भी दोनों में महान् अन्तर है। कारण कि एक गुण के द्वारा अशेष वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण है और दूसरा वस्तु के एक अंशविशेष को ग्रहण करने वाला नय है। दोनों में यही महान् अन्तर है। इसलिए परोक्षज्ञान और प्रत्यक्षज्ञान दोनों में सकलादेश और विकलादेश का अन्तर समझना चाहिए। इस तरह तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नय के द्वारा होता है, ऐसा सामान्य रूप से इस सूत्र में कहा है। अब विशेष रूप से तत्त्वों का प्रधिगम-ज्ञान करवाने वाले द्वारो का निर्देश प्रागे के सूत्र में करते हैं ।।६।।
__* विशिष्टतत्त्वज्ञानप्राप्त्यर्थ षवाराणां निर्देशः * निर्देश-स्वामित्व-साधना-धिकरण-स्थिति-विधानतः ॥ ७॥
ॐ सुबोधिका टीका * [१] निर्देशः पदार्थस्वरूपाभिधानम्, [२] स्वामित्वं प्राधिपत्यम्, [३] साधनं उत्पत्ति - निमित्तं कारणमित्यर्थः, [४] अधिकरणं आधारम्, [५] स्थितिः कालप्रमाणम्, तथा [६] विधानम् प्रकार, भेदसङ्ख्या एव । एभिश्च निर्देशादिभिः षड्भिरनुयोगद्वारैः सर्वेषां भावानां जीवाऽजीवादीनां तत्त्वानां विकल्पशो विस्तृतरूपेणाधिगमो ज्ञानं भवतीति । तद्यथा
[१] निर्देशः । को जीवः ? औपशमिकादिभावसहितो द्रव्यं जीवः, आत्मेत्यर्थः। अत्र सम्यग्दर्शनविषयसम्बन्धत्वात् कथयति । किं सम्यग्दर्शनम् ? गुणो द्रव्यं वा। तस्य किं स्वरूपमाह-सम्यग्दृष्टिजीवोऽरूपी एव, तस्मात् नोस्कन्धरूपो वर्तते नोग्रामरूपोऽपि वर्तते ।